चीन के हाइपरसोनिक मिसाइल के परीक्षण के बाद महाशक्तिओं में बढ़ी प्रतिद्वंद्विता
युद्ध का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही पुराना है हवा में चीज़ें फेंककर हमला करना.
highlights
- बीते महीने चीन के आसमान में बेहद तेज़ गति से रॉकेट जैसी कोई चीज़ उड़ती दिखाई दी
- कई देशों के पास आवाज की गति से कई गुना तेज चलने वाली मिसाइलें मौजूद हैं
- क्रूज़ मिसाइल धरती की सतह के नज़दीक उड़कर कम दूरी तक मार करती है
नई दिल्ली:
मानव सभ्यता का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही पुराना युद्ध भी है. और युद्ध के इतिहास के साथ ही हथियारों का भी इतिहास शुरू होता है. अब हम यह कह सकते हैं कि युद्ध का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही पुराना है हवा में चीज़ें फेंककर हमला करना. पहले के दौर में पत्थर या लोहे के गोले फ़ेंकने के लिए विशाल गुलेल और तोप जैसे हथियार होते थे. और अब मिसाइलें हैं. इंजन लगाने से चीज़ों को ज़्यादा ताक़त के साथ दूर तक फेंक सकने के अहसास ने मिसाइल तकनीक को जन्म दिया. 1930 के दशक में जर्मनी ने इस तकनीक को और बेहतर बनाया.
अब दुनिया के कई देशों के पास आवाज की गति से कई गुना तेज चलने वाली मिसाइलें मौजूद हैं. मिसाइल तकनीक के जन्म के बाद अब युद्ध तकनीक में व्यापक परिवर्तन हुआ है. हर देश मिसाइल के नए-नए रूप सामने ला रहा है. बीते महीने चीन के आसमान में बेहद तेज़ गति से रॉकेट जैसी कोई चीज़ उड़ती दिखाई दी. लगभग पूरी धरती का चक्कर लगाने के बाद ये कथित तौर पर अपने लक्ष्य से क़रीब 40 किलोमीटर पहले गिरी. ये नई तरह की हाइपरसोनिक मिसाइल थी, हालांकि चीन ने इससे इनकार किया है.
लेकिन इस घटना के बाद एक बार फिर अमेरिका, चीन और रूस के बीच हथियारों के परीक्षण की प्रतिद्वंद्विता शुरू हो गयी है. ऐसे में हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि हाइपरसोनिक मिसाइल क्या हैं और हमारे लिए ये चिंता का सबब क्यों बन सकती हैं?
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डॉक्टर गुस्ताव ग्रेसल ऑस्ट्रिया के रक्षा मंत्रालय में काम कर चुके हैं और फ़िलहाल विदेशी मामलों की यूरोपीय काउंसिल में सीनियर पॉलिसी फेलो हैं. वह कहते हैं, "जर्मनी की आइश्वेयर सेना (Reichswehr) के दौर में रॉकेट या मिसाइल तकनीक विकसित करने पर काम हुआ. जर्मनी नया हथियार बनाना चाहता था. इसके लिए उसने हज़ारों वैज्ञानिकों को इकट्ठा किया और इस तकनीक से जुड़ी इंजीनियरिंग की अधिकतर अड़चनों को पार किया."
वर्नर वॉन ब्राउन को जर्मन रॉकेट विज्ञान का जनक कहा जाता है. एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार ब्राउन उन 120 वैज्ञानिकों में से एक थे जिन्होंने बाद में सैन्य तकनीक विकसित करने के लिए पेपरक्लिप नाम के ख़ुफ़िया अमेरीकी अभियान में काम किया. कई वैज्ञानिकों ने उस दौर में सोवियत संघ जाकर भी काम किया. ये शीतयुद्ध का दौर था जब अमेरिका और सोवियत संघ हथियार बनाने और स्पेस तकनीक में एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में थे.
ग्रेसल कहते हैं, "जर्मनी ने दो बेहद अलग तरीक़े के रीसर्च कार्यक्रम चलाए, वी-1 और वी-2 जिसके तहत कम दूरी की और अधिक दूरी की मिसाइलें बनाई गईं. दोनों एक दूसरे से बिल्कुल अलग तरह के हथियार थे."
इन्हें वेन्जिएंस वेपन यानी बदले के हथियार कहा गया. वी-1 जेट इंजन की मदद से दूर तक फेंके जा सकने वाले बम या कहें, फ्लाइंग बम थे. इन्हें क्रूज़ मिसाइल का पूर्वज कहा जा सकता है. वही आवाज़ की गति वाली वी-2 लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइल थी.
हालाँकि दोनों में खामियां भी थीं. वी-1 जल्द गर्म होकर राह भटक जाती और वी-2 की एक खामी के कारण हिटलर अमेरिका के ख़िलाफ़ इसका इस्तेमाल कभी नहीं कर पाए.
ग्रेसल कहते हैं, "इसकी गाइडिंग तकनीक में खामी थी, रेंज बढ़ी तो तकनीक उसे सपोर्ट नहीं करती और लक्ष्य चूकने का ख़तरा रहता. न्यूयॉर्क पर हमले के लिए मिसाइल का आकार बढ़ाना पड़ता और ये लक्ष्य को भेदे सकेगी ये तय नहीं था. सटीक निशाना लगाने को लेकर जर्मन सेना की उम्मीद इससे पूरी नहीं हुई."
युद्ध के दौरान जर्मनी ने लंदन, एंटवर्प और पेरिस पर मिसाइल हमले किए, लेकिन इससे युद्ध की दिशा नहीं बदली. बाद में इन प्रोजेक्ट्स में काम करने वाले वैज्ञानिक हथियार रीसर्च और स्पेस मिशन पर काम करने के लिए अमेरिका और सोवियत संघ चले गए. दोनों मुल्कों ने अपनी सेना की ताक़त बढ़ाने के लिए मिसाइल तकनीक को और बेहतर करने का काम किया.
जर्मनी के ये दो हथियार आज की तारीख़ के क्रूज़ और बैलिस्टिक मिसाइल हैं. क्रूज़ मिसाइल धरती की सतह के नज़दीक उड़कर कम दूरी तक मार करती है, जबकि बैलिस्टिक मिसाइल वायुमंडल से बाहर जाती है और हज़ारों किलोमीटर दूर तक निशाना भेद सकती है.
फ्रांस, भारत, जापान, चीन और ऑस्ट्रेलिया हाइपरसोनिक तकनीक पर काम कर रहे हैं. लेकिन इस मामले में सबसे आधुनिक तकनीक अमेरिका, रूस और चीन के पास है.
दुनिया की बड़ी शक्तियां सैन्य तकनीक के मामले में एक दूसरे से आगे रहने की होड़ में हैं. आम तौर पर ये माना जाता है कि मिसाइल जितनी तेज़ होगी उतनी ही बेहतर होगी. हथियार देश के सम्मान का भी सवाल बन जाते हैं. ऐसा नहीं है कि ये मुल्क बेहतर हथियार इसलिए बना रहे हैं क्योंकि वो इनका इस्तेमाल करना चाहते हैं, बल्कि वो ये बताना चाहते हैं कि वो आधुनिक हथियार बना सकते हैं. मतलब ये कि चीन का हाल में किया गया लॉन्च ये दिखाने की कोशिश है कि तकनीक के मामले में वो अमेरिका के बराबर है.
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