अफगानिस्तान से सेना वापसी पर अमेरिका और यूरोप में दरार, जानें पूरी वजह
अफगानिस्तान से सेना की वापसी का फैसला जो बाइडन पर भारी पड़ता दिख रहा है. खुद अमेरिका में उनके खिलाफ कैंपेन चल रही है. वहीं हाल में हुए एक सर्वे में जो बाइडन की अप्रूवल रेटिंग को भी घटा दिया गया.
highlights
- नेटो देशों ने अमेरिका के फैसले पर जताई नाखुशी
- यूरोप ने माना अफगानिस्तान से बढ़ेगा रिफ्यूजी संकट
- नेटो के 36 देशों में तीन चौथाई थे गैर अमेरिकी सैनिक
नई दिल्ली:
अफगानिस्तान से सेना की वापसी का फैसला जो बाइडन पर भारी पड़ता दिख रहा है. खुद अमेरिका में उनके खिलाफ कैंपेन चल रही है. वहीं हाल में हुए एक सर्वे में जो बाइडन की अप्रूवल रेटिंग को भी घटा दिया गया. आसान शब्दों में इसे समझें तो उनकी लोकप्रियता कम हो गई है. अब यूरोप के साथ भी उनके रिश्तों को लेकर सवाल उठने लगे हैं. कई यूरोपीय देशों ने बाइडन के इस फैसले पर असंतोष जाहिर किया है. नेटो सदस्यों ने अमेरिका के फैसले को एकतरफा करार देते हुए कहा कि जब इस युद्ध में उनके देश की सेना भी शामिल थी तो फैसला सोच समझकर लेना चाहिए था.
कॉर्नवाल में हुए G-7 सम्मेलन के दौरान राष्ट्रपति जो बाइडन जब अपने पहले दौरे पर गए तो फ्रांस के राष्ट्रपति इमेन्युएल मैक्रों ने एक बार फिर इस लम्हे को ख़ुद की ओर मोड़ लिया. जैसे ही कैमरा उनकी ओर घूमा वो बाइडन के कंधे पर हाथ रखकर समुद्र तट की ओर चल दिए और बाइडन ने भी उनके कंधे पर हाथ रख दिया. यह बॉडी लैंग्वेज साफ़ दिखाती थी कि दोनों पक्ष एक बार फिर बांहों में बांहें डाल रहे हैं. अब अफगानिस्तान के मुद्दे ने इस रिश्ते में कड़वाहट घोल दी है. इसकी वजह अमेरिका के अपने सहयोगी गठबंधन के साथ समन्वय की कमी भी है.
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नेटो देशों ने जताई नाराजगी
दरअसल नेटो में 36 देशों की सेनाएं हैं और तीन चौथाई ग़ैर-अमेरिकी सैनिक हैं. नेटो सदस्य इस बात को लेकर नाराज है कि जब अफगानिस्तान में संकट आया और तालिबान लगातार कब्जा करने लगा तो अमेरिका ने पूरे मिशन को अपने कब्जे में ले लिया. इससे यूरोपीय देशों में भरोसे की कमी साफ तौर पर देखने को मिली. ऐसा इसलिए भी हुआ कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब जर्मनी किसी पहले बड़े लड़ाकू मिशन में शामिल हुआ था और इसकी इस तरह से समाप्ति ने उसे निराशा कर दिया है.
यूरोपीय देशों ने बताया बाइडन की बड़ी हार
अफगानिस्तान से सेना की वापसी के फैसले पर यूरोपीय देशों ने जो बाइडन को खूब खरी सुनाई है. जर्मनी में चांसलर के लिए कंजरवेटिव उम्मीदवार आर्मिन लाशेत ने काह कि अमेरिका का अफगानिस्तान से निकलना 'नेटो की उसकी स्थापना के बाद से सबसे बड़ी हार का अनुभव करना है.' वहीं चेक रिपब्लिक के राष्ट्रपति मिलोस ज़ेमान ने इस पर 'कायरता' का ठप्पा लगा दिया. उन्होंने कहा कि 'अमेरिका वैश्विक नेता के रूप में अपनी प्रतिष्ठा खो चुका है.' इतना ही नहीं स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री कार्ल बिल्ट्स ने कहा, "जो बाइडन जब प्रशासन में आए तो अपेक्षाएं अधिक थीं, शायद बहुत ही अधिक थीं. ये एक अवास्तविक स्थिति थी."
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अमेरिका को लेनी चाहिए थी सलाह-यूरोपीय देश
अफगानिस्तान के पूरे मामले में सबसे ज्यादा निराशा यूरोपीय संघ के देशों की अमेरिका द्वारा बातचीत न करने को लेकर है. यूरोपीय देश चाहते थे कि अफगानिस्तान से निकलने को लेकर सलाह मशविरा किया जाए. अफगानिस्तान में तैनात नेटो सैनिकों की संख्या जब घट रही थी तब उसमें तीन चौथाई गैर अमेरिकी सैनिक थे. यूरोपीय संघ की अब मुख्यतः दो चिंताएं हैं. पहली अफगानिस्तान की अशांति ने एक और रिफ़्यूजी संकट को जन्म दिया है. इसने 2015 की यादों को फिर ताज़ा कर दिया है जब 10 लाख से अधिक लोग सीरिया से भागकर यूरोप में पहुंचे थे. वहीं दूसरी चिंता अमेरिका को लेकर है. अमेरिका अब खुद पर अधिक केंद्रित दिख रहा है. उसने रूस और चीन के लिए मैदान खुला छोड़ दिया है. ये इसी बात का नतीजा है कि चीन अब बिना पश्चिम के खौफ के ताइवान को धमकियां दे रहा है.
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