अपना पड़ोसी देश अफगानिस्तान, सदियों से भारत के साथ सांस्कृतिक विरासत साझा करने वाला अफगानिस्तान. वही अफगानिस्तान जिसे अनारों का देश कहा जाता है. जो होठों को छू लें तो लगता है कि मुंह में खून लग गया हो. लेकिन आज हकीकत देखें तो सच में यही खून इस देश की किस्मत बन गया है. इस खूनी मंजर की कहानी का इतिहास और भी ज्यादा भयानक है, सवाल है कि आखिर कैसे अफगानिस्तान की खुशी गम में बदल गई. इस पूरे किस्से को समझने के लिए हमें करीब तीन दशक पीछे चलना होगा. यानी कि 90 के उस दौर में जब दो बड़े देश दुनिया में अपनी ताकत आजमाने के नशे में चूर थे. एक ओर था अमेरिका तो दूसरी तरफ था सोवियत संघ यानी कि रूस. दुनिया में सबसे शक्तिशाली बनने में मदमस्त इन दोनों देशों ने दुनिया के कई खूबसूरत नक्शों की तस्वीर हमेशा के लिए बदल दी थी. इसी की गिरफ्त में अफगानिस्तान भी आया.
यह भी पढ़ेः राजदूत, कर्नल और अब अफगानिस्तान की सत्ता के हेड! जानें कौन हैं अली अहमद जलाली?
अफगानिस्तान तालिबान की आग में झुलस ही रहा था कि इसी बीच 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया भर का ध्यान तालिबान पर गया. हमले के मुख्य संदिग्ध ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा के लड़ाकों को शरण देने का आरोप तालिबान पर लगा. अमेरिका ने सात अक्टूबर, 2001 को अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन खत्म हो गया. फिर नाम आता है उस देश का जिसके बिना कट्टरता और आतंकवाद का हर किस्सा अधूरा है. वो नाम है पाकिस्तान , जिसने तमाम तालिबानी नेताओं को अपने यहां पनाह दी. करीब 20 साल बाद फिर अफगानिस्तान में इन तालिबानियों ने कहर बरपाना शुरू कर दिया है. अमेरिका ने भी एक समझौते के बाद अपने सैनिकों को वापस बुला लिया है. तालिबानी अपनी इस हिंसा को जायज ठहरा रहे हैं और उनका कहना है कि सत्ता पाने के लिए ये हिंसा जायज है. वो खुली जुबान में बोल रहे हैं कि महिलाओं को बुर्के में ही रहना होगा, घरों से निकलने पर सौ बार सोचना होगा. जो भी पश्चिमी सभ्यता को मानेगा उसकी मौत तय है. ये हिंसा देखकर दुनिया सकते में है और अफसोस कि अफगानी ये सब कुछ झेल रहे हैं.
यह भी पढ़ेः अफगानिस्तान में अब तालिबान का राज, देश छोड़कर भागे राष्ट्रपति अशरफ गनी
दरअसल, हुआ यूं कि रूस ने अफगानिस्तान में अपने जवानों को उतार दिया था और राज कर रहा था. ये बात जब अमेरिका को नागवार गुजरी तो अमेरिका ने मुजाहिदों की एक फौज खड़ी करवा दी. भारी हथियार, पैसा सबकुछ झोंक दिया. नतीजा...रूस ने अपने कदम तो अफगानिस्तान से खींच लिए लेकिन यहां की वादियों में जुल्म की आग सुलगती रही. मुजाहिद के धड़े से नींव पड़ी तालिबान की, जिसका नेता बना मुल्ला उमर. सवाल है कि तालिबान का मकसद क्या है? पश्तो जुबान में छात्रों को तालिबान कहा जाता है. माना जाता है कि पश्तो आंदोलन पहले धार्मिक मदरसों में उभरा और इसके लिए सऊदी अरब ने फंडिंग की. इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था.
तालिबान का जो चेहरा आज हमारे सामने है, जिस क्रूरता, कट्टरता और हिंसा के उदाहरण आज हम देख रहे हैं तालिबान शुरू में ऐसा नहीं था. तालिबान ने जब 1996 में अफगानिस्तान पर पहली बार कब्जा जमाया तो आम लोगों ने उसका खुलकर समर्थन किया, तालिबानियों का स्वागत किया. क्योंकि तालिबान तब सुधारों के नाम पर आया था, उसका कहना था कि अफगानिस्तान भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है, जिसके लिए जरूरी है कि हम सत्ता में आएं. ऐसा हुआ भी. सत्ता हथियाने के बाद तालिबानियों ने भ्रष्टाचार पर अंकुश, अराजकता की स्थिति में सुधार, सड़कों का निर्माण और नियंत्रण वाले इलाके में कारोबारी ढांचा और सुविधाएं मुहैया कराईं, इन कामों के चलते शुरुआत में तालिबानी लोकप्रिय भी हुए. लेकिन फिर तालिबानियों ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया. कट्टरता की ऐसी मिसाल गढ़ी की इंसानियत कांप उठी. पाबंदियों का ऐसा फरमान जारी किया कि हर ओर बस एक चुप्पी नजर आने लगी. बीच चौराहे पर फांसी, कोड़ों की सजा. लड़कियों के लिए स्कूल और टीवी देखने तक पर बैन. पुरुषों के लिए दाढ़ी और महिलाओं के लिए पूरे शरीर को ढकने वाली बुर्क़े का इस्तेमाल जरूरी कर दिया गया. तालिबान के इस खौफ का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि आज भी जब हैवानियत की मिसाल देनी हो तो वहां तालिबान कह दिया जाता है.
HIGHLIGHTS
- 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया भर का ध्यान तालिबान पर गया
- अमेरिका ने सात अक्टूबर, 2001 को अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया
- अमेरिका ने भी एक समझौते के बाद अपने सैनिकों को वापस बुला लिया है
Source : News Nation Bureau