तिब्बत के 14वें दलाई लामा के 90वें जन्मदिवस पर पूरी दुनिया में फैले तिब्बती समुदाय ने न केवल आध्यात्मिक उल्लास के साथ उन्हें याद किया, बल्कि यह अवसर चीनी शासन के खिलाफ अपने असहमति के स्वर को मुखर करने के लिए भी चुना। यह आयोजन न केवल श्रद्धा का प्रतीक था, बल्कि यह तिब्बतियों की उस सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिता का पुनर्पुष्टि भी थी जिसे चीन दशकों से कुचलने की कोशिश कर रहा है।
खोया हुआ लामाः राजनीतिक बंदी बना एक मासूम
सन् 1995 में दलाई लामा ने छह वर्षीय गेडुन चोएक्यी न्यिमा को 11वां पंचेन लामा घोषित किया, जो तिब्बती बौद्ध धर्म में दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक पद है। लेकिन चीन ने तुरंत उन्हें और उनके परिवार को गायब कर दिया, और फिर एक सरकारी समर्थक बच्चे, ग्यात्सेन नोरबू को पंचेन लामा नियुक्त कर दिया। यह निर्णय अंतरराष्ट्रीय समुदाय और तिब्बती समाज द्वारा पूरी तरह नकारा गया, और इसे चीन की राजनीतिक चाल बताया गया।
धर्म को "चीनी" बनाने की मुहिम
6 जून 2025 को ग्यात्सेन नोरबू ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग से बीजिंग में मुलाकात की। इस दौरान शी ने उनसे तिब्बत में कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति निष्ठा को बढ़ावा देने, "धार्मिक समरसता" लाने और "धर्म का चीनीकरण" करने का आह्वान किया। यह स्पष्ट संकेत है कि चीन धर्म को भी अपनी विचारधारा के अनुरूप ढालने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा है।
तिब्बत का इतिहास: छल और दबाव की कहानी
1951 के सत्रह सूत्रीय समझौते के जरिए चीन ने तिब्बत को अपनी अधीनता में लेने का वादा किया था कि वह उसकी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को बरकरार रखेगा। लेकिन 1959 के विद्रोह और दलाई लामा के निर्वासन के बाद, चीन ने इन वादों को तोड़ दिया। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान हजारों मठों को नष्ट किया गया, और धार्मिक क्रियाकलापों पर पाबंदियां लगा दी गईं।
आज भी तिब्बत में लोगों को दलाई लामा की तस्वीर रखने या उन्हें सम्मान देने पर सजा दी जाती है। धार्मिक शिक्षा को कम्युनिस्ट विचारधारा के अनुसार बदला जा रहा है और तिब्बती भाषा व परंपराएं धीरे-धीरे समाप्त की जा रही हैं।
दमन के बीच भी नहीं टूटा विश्वास
चीन के तमाम प्रयासों और कठोर नियंत्रण के बावजूद तिब्बती जनता की निष्ठा दलाई लामा के प्रति अडिग बनी हुई है। वे उन्हें सिर्फ एक धार्मिक गुरु नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक, भाषाई और राजनीतिक पहचान का प्रतीक मानते हैं। निर्वासन में रह रहे दलाई लामा "मध्य मार्ग" की नीति के जरिए चीन से पूर्ण स्वतंत्रता नहीं, बल्कि वास्तविक स्वायत्तता की मांग करते हैं।
चीन चाहे उन्हें "अलगाववादी" कहे, पर दलाई लामा का संघर्ष पूरी तरह अहिंसात्मक और सांस्कृतिक अस्तित्व की रक्षा पर केंद्रित है। यही कारण है कि न केवल भारत में बसे 80,000 से अधिक तिब्बती प्रवासी, बल्कि चीन के कड़े नियंत्रण में जी रहे तिब्बती भी उन्हें अपना असली नेता मानते हैं।
वैश्विक समर्थन और भविष्य की राह
अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भूमिका भी इस संघर्ष में महत्वपूर्ण रही है। 'इंटरनेशनल कैंपेन फॉर तिब्बत' जैसे संगठन तिब्बती संस्कृति और अधिकारों की रक्षा के लिए परियोजनाएं चला रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक मंचों पर भी तिब्बतियों की आवाज उठाने की मांग लगातार तेज हो रही है।
तिब्बतियों की दलाई लामा के प्रति निष्ठा और उनकी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा की लड़ाई, केवल चीन के खिलाफ एक राजनीतिक संघर्ष नहीं है, बल्कि यह अस्तित्व और आत्मा की लड़ाई बन चुकी है। चीन की लाख कोशिशों के बावजूद तिब्बत की आत्मा आज भी जिंदा है – अडिग, आत्मगौरव से भरपूर और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की उम्मीद में सदैव तत्पर।
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