मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहु सु दशरथ अजर बिहारी

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निर्मल मान जन सू मोहि पावा, मोहे कपट छल छिद्र न भावा

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जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करे सब कोई

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हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम, राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम.

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जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी

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रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाए.

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होइहि सोइ जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा

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उल्टा नाम जपत जग जाना, बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना

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हरि अनंत हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता

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तुलसी अपने राम को, रीज़ भजे चाहे खीज खेत पड़े पर जामिहै , उल्टा सुल्टा बीज.

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