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सांकेतिक तस्वीर Photograph: (Social)
Budhi Diwali 2025: भारत की खूबसूरती यही है कि हर कुछ किलोमीटर पर यहां की भाषा, बोली, खान-पान और संस्कृति बदल जाती है. लेकिन हर त्योहार का सार एक ही रहता है, अच्छाई की जीत, बुराई का अंत और अंधकार पर प्रकाश की विजय. दिवाली भी इसी संदेश को लेकर मनाई जाती है, लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में इसका एक अलग ही रूप देखने को मिलता है.
मैदानों में जहां दिवाली कार्तिक अमावस्या को मनाई जाती है, वहीं उत्तराखंड में यह पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी यानी देव प्रबोधिनी एकादशी को मनाया जाता है. 'इगास' का मतलब होता है 'ग्यारह' यानी एकादशी का दिन, और 'बग्वाल' का अर्थ है 'दीपोत्सव'. इस तरह इगास बग्वाल का अर्थ हुआ 'एकादशी का दीपोत्सव'. यह पर्व भगवान विष्णु के देवोत्थान से जुड़ा है, जब वे चार माह के शयन के बाद जागते हैं और संसार का कार्यभार फिर से संभालते हैं.
गांव-गांव में ढोल-दमाऊं की धुन
इस दिन सुबह से ही गांव-गांव में ढोल-दमाऊं की धुन गूंजने लगती है, जिसे देवताओं को जगाने का प्रतीक माना जाता है. घरों में पारंपरिक व्यंजन जैसे अहिरसे और पूए बनाए जाते हैं, जिन्हें पहले देवताओं को भोग लगाकर फिर परिवार के साथ खाया जाता है. महिलाएं और पुरुष अपने पारंपरिक पहाड़ी परिधानों में सजे-धजे उत्सव मनाने निकलते हैं. शाम ढलते ही पूरे गांव में रोशनी का नजारा फैल जाता है. युवा चीड़ की मशालें लेकर मैदान में नाचते-गाते हैं और घरों, चौक-चबारों, मंदिरों में दीपक जलाकर अंधेरे को मिटाते हैं.
इसलिए कहते हैं बूढ़ी दिवाली
कहा जाता है कि जब भगवान श्रीराम रावण वध के बाद अयोध्या लौटे, तो अयोध्या वासियों ने अमावस्या की रात दीप जलाकर उनका स्वागत किया. लेकिन पहाड़ों तक यह खबर पहुंचने में 11 दिन लग गए. जब वहां के लोगों को यह शुभ समाचार मिला, तब उन्होंने भी दीप जलाकर अपनी खुशी व्यक्त की. वही परंपरा आज भी इगास बग्वाल के रूप में जीवित है.
ऐसे होती है सजावट
इस दिन घरों और मंदिरों को ऐपन (चावल के घोल से बनाए पारंपरिक अलंकरण) से सजाया जाता है, जिनके कोनों पर दीप रखे जाते हैं. इगास बग्वाल केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान है — जो बताती है कि चाहे दूरी कितनी भी हो, आस्था और उत्सव की भावना सबको जोड़ देती है.
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