विवादित ढांचा विध्वंस : 17 साल बाद आई लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट, मनमोहन सरकार ने नहीं की थी कोई कार्रवाई
अयोध्या में बाबरी ढांचा विध्वंस की जांच के लिए तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने लिब्रहान आयोग (Librahan Commission) का गठन किया था. आयोग को तीन माह में रिपोर्ट देनी थी पर उसे रिपोर्ट देने में 17 साल लग गए.
नई दिल्ली:
अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस की जांच के लिए तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने लिब्रहान आयोग (Librahan Commission) का गठन किया था. आयोग को तीन माह में रिपोर्ट देनी थी पर उसे रिपोर्ट देने में 17 साल लग गए. आयोग का कहना था कि आरोपी पेशी के लिए समय नहीं दे रहे हैं, इसलिए इतना समय लग रहा है. कई बार लिब्रहान आयोग का कार्यकाल बढ़ने का मुद्दा सुर्खियों में भी रहा. जब भी लिब्रहान आयोग का कार्यकाल बढ़ा, इसे लेकर शोर मचा. लेकिन पीवी नरसिम्हा राव (PV Narsimha Rao) के बाद सभी सरकारों ने आयोग के कार्यकाल को बढ़ाया. 2007 में आयोग के बार-बार बढ़ते कार्यकाल को लेकर इतना विवाद हो गया कि तत्कालीन मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) की सरकार को संसद में कहना पड़ा कि अब किसी भी हालत में आयोग का कार्यकाल नहीं बढ़ाया जाएगा. हालांकि 2007 में ही मनमोहन सिंह की सरकार ने 5 बार लिब्रहान आयोग के कार्यकाल को विस्तार दिया. एक बार तो महज एक महीने के लिए आयोग का कार्यकाल बढ़ाया गया था.
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2008 और 2009 में भी लिब्रहान आयोग का कार्यकाल दो-दो बार बढ़ाया गया था. जस्टिस लिब्रहान पर भी आरोपों की बारिश हुई. आयोग के साथ 10 साल तक जुड़े रहे आयोग के ही वकील अनुपम गुप्ता ने ये कहते हुए इससे किनारा कर लिया कि जस्टिस लिब्रहान बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी के प्रति कुछ ज्यादा ही नरम हैं. उसके बाद जस्टिस लिब्रहान को सफाई देनी पड़ी थी कि कुछ बड़े नेता आयोग की मदद नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए समय के भीतर जांच नहीं हो पा रही है. दूसरी ओर, बीजेपी (BJP) के नेता आरोप लगाते रहे हैं कि कांग्रेस अपने लाभ के लिए लिब्रहान आयोग का इस्तेमाल कर रही है.
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2009 में लिब्रहान आयोग ने प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह की सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी. उसके बाद सरकार ने संसद में 13 पन्ने की एक्शन टेकन रिपोर्ट (ATR) पेश की, जिसमें सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए सख्त कानून की पैरवी करने की बात कही गई थी. हालांकि एक्शन टेकन रिपोर्ट में 68 आरोपियों के खिलाफ कोई गंभीर कार्रवाई करने की बात नहीं कही गई. लिब्रहान आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में दोषियों को सजा की सिफारिश नहीं की थी.
एटीआर (ATR) की खास बातें
- चुनाव आयोग को राजनीति में धर्म के इस्तेमाल की खबर मिलते ही कार्रवाई करनी चाहिए.
- नेताओं, पुलिस और नौकरशाहों की मिलीभगत न होने दी जाए.
- सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी नौकरशाहों को लाभ के पदों पर आसीन नहीं किया जाए.
- किसी खास राजनीतिक और धार्मिक विचारधारा रखने वाले लोगों को सरकारी नौकरी देने से बचा जाए.
- सरकार भी सांप्रदायिक दंगों की जांच करने के लिए एक विशेष बिल लाने का विचार कर रही है.
कार्रवाई कर बीजेपी को माइलेज नहीं देना चाहती थी कांग्रेस
दरअसल, कांग्रेस की मनमोहन सिंह की सरकार लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई कर बीजेपी को राजनीतिक लाभ नहीं लेने देना चाहती थी. इसलिए सरकार ने इस पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया. कांग्रेस के नेताओं ने तब बयान देते हुए कहा था, ‘हम इसे शाह आयोग नहीं बनने देंगे, यानी कार्रवाई कर भाजपा को फायदा नहीं लेने देंगे.’ बता दें कि शाह आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया था, जिसका उन्होंने पूरा फायदा उठाया और तीन साल में उन्होंने फिर अपनी सरकार कायम कर ली थी.
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क्यों होता है आयोगों का यह हश्र
जानकार बताते हैं कि जांच आयोग आपराधिक अभियोजन का विकल्प नहीं हैं, न ही यह आपराधिक न्याय प्रक्रिया का हिस्सा है. जांच आयोग को यह शक्ति भी नहीं है कि वह किसी व्यक्ति को पेशी के लिए मजबूर कर सके. इसकी रिपोर्ट और इसके समक्ष दिए गए बयानों का आपराधिक ट्रायल में कोई महत्व नहीं है. आयोगों को एक निश्चित फैसला देने की भी ताकत हासिल नहीं होती है. इसका सिर्फ राजनीतिक उपयोग है, जिससे प्रशासनिक विफलताओं पर लीपापोती की जा सकती है.
6 दिसंबर की घटना की जांच थी लिब्रहान आयोग के जिम्मे
छह दिसंबर 1992 को कथित रूप से हिंदूवादी संगठनों के करीब डेढ़ लाख लोगों ने कार सेवा के दौरान बाबरी मस्जिद के विवादास्पद ढांचे को गिरा दिया था. सुप्रीम कोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार के मस्जिद को किसी तरह का नुकसान न होने देने की प्रतिबद्धता के बावजूद ढांचा गिराया गया था. इसके बाद भड़के दंगों में तकरीबन दो हजार लोग मारे गए थे.
कुछ अन्य आयोग और उनके कार्यकाल
- शाह आयोग: इमरजेंसी के दौरान ज्यादतियों की जांच के लिए गठित : कार्यकाल: नवंबर 1977-अगस्त 1978
- जे.एस. वर्मा आयोग: राजीव गांधी हत्याकांड की जांच के लिए गठित : कार्यकाल: मई 1991- जनवरी 1992
- ठक्कर-नटराजन आयोग: इंदिरा गांधी हत्याकांड की जांच के लिए गठित : कार्यकाल: नवंबर 1984- फरवरी 1986
- एम.सी. जैन आयोग: राजीव गांधी हत्याकांड की जांच के लिए गठित : कार्यकाल: अगस्त 1991- अगस्त 1997
- डीपी वाधवा आयोग: ग्राहम स्टेंस की हत्या की जांच के लिए गठित : कार्यकाल : जनवरी 1999-अगस्त 1999
- जस्टिस नानावती-शाह आयोग : 2001 में हुए कार्यरत गुजरात दंगों की जांच में कार्यरत
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