कहानी है ऐसे कारोबार की जिसको चलाते थे 300 परिवार, अब दो वक्त की रोटी का नहीं हो रहा जुगाड़
आगरा के तीन बड़े माहौल्लों में रहने वाले लगभग हर परिवार में जिल्दसाजी ( बुक बाइंडिंग ) का काम किया जाता था लेकिन समय के साथ अब हाथ के कारीगरों की जगह मशीनों ने ले ली.। अब उनके सामने रोजी रोटी का भी संकट आ खड़ा हो गया है.।
नई दिल्ली:
आगरा के तीन बड़े माहौल्लों में रहने वाले लगभग हर परिवार में जिल्दसाजी ( बुक बाइंडिंग ) का काम किया जाता था लेकिन समय के साथ अब हाथ के कारीगरों की जगह मशीनों ने ले ली। अब उनके सामने रोजी रोटी का भी संकट आ खड़ा हो गया है और युवाओं ने भी पुस्तैनी काम छोड़ अब दूसरी तरफ रुख करना बेहतर समझा । आखिरी सांस गिन रहे बुक बाइंडिंग के कारोबार पर देखिये हमारी ये स्पेशल रिपोर्ट- समय बदलता है ये शायद हम सभी ने सुना होगा. लेकिन बदलता समय कभी कभी कुछ अच्छा लाता है तो कभी कभी एक टीस भी छोड़ जाता है. ये कहानी ऐसी ही एक टीस की है जिसे आगरा सैकड़ाें परिवार झेल रहे हैं. कई के सामने तो रोजी रोटी का संकट भी है. कभी अपने नाम के साथ कारोबारी शब्द जोड़ने वाले इन लोगों को मशीनों ने रिप्लेस कर दिया. हालात इतने खराब हो गए कि कोई रेड़ी धकेल रहा है तो कोई कहीं पर नौकरी कर रहा है. फिर एक बार कहानी शब्द का प्रयोग यहां पर इसलिए क्योंकि उम्मीद है कि एक कहानी की तरह ही इन परिवारों की तकलीफों का भी अंत हो. यहां पर बात की जा रही है बुक बाइंडिंग यानी जिल्दसाजी के कारोबार की. समय के पहिए ने 20 साल में ही ऐसी करवट बदली कि हाथ के कारीगरों की जगह बड़ी-बड़ी मशीनों ने ले ली।
इस काम को करने वाले बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि 20 साल पहले आगरा के राजा मंडी, गोकुलपुरा और वल्का बस्ती में शायद ही ऐसा कोई घर रहा होगा जिसमें बुक बाइंडिंग यानी कि जिल्दसाजी का काम नहीं किया जाता हो. किताबों पर जिल्दसाजी, कवर बनाना, डायरी, रजिस्टर, बिल बुक जैसे तमाम काम थे जो यहां हर घर में किए जाते थे. लगभग 200 से 300 परिवार ऐसे थे जिनकी रोजी-रोटी बुक बाइंडिंग से संबंधित काम से ही चलती थी. इस काम में महिलाओं के साथ-साथ बच्चे भी हाथ बंटाते थे. शहर की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा इस कारोबार से आता था. लेकिन समय का चक्र ऐसा चला कि तकनीक ने इन मजदूरों की रोजी रोटी छीन ली।
वल्का बस्ती के रहने वाले रमेश चंद्र की उम्र 68 साल है. आंखों से धुंधला दिखाई देता है. लेकिन अब भी किताबों की जिल्दसाजी का काम करते हैं. पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि 10 से 20 साल पहले यहां घर-घर में बुक बाइंडिंग करने वालों का अच्छा खासा काम था. हर घर में कारीगर थे. लेकिन अब बड़ी-बड़ी मशीनें आ गई हैं, जो काम कारीगर करते हैं वह काम अब मशीन करने लग गई हैं. अब कोई भी इस काम में अपने बच्चों को लाना नहीं चाहता है. इसके साथ ही बहुत सारे पब्लिकेशन ने खुद के कारखाने खोल लिए हैं.।
यही प्रतिक्रिया 50 साल से काम कर रहे पुराने कारीगर दौलत राम की है दौलतराम जो कि स्थानीय कारीगर हैं वो 50 सालों से ये काम कर रहे हैं. इस काम से उनके घर की रोजी रोटी चलती है. पहले ज्यादातर बुक बाइंडिंग का काम हाथों से किया जाता था. लेकिन अब एडवांस मशीनें आ गई हैं. जिस पर काम करना दौलतराम जैसे लोगों के बस की बात नहीं है. मशीन बहुत तेजी से काम करती हैं. उन्हें केवल एक किताब पर बाइंडिंग करने पर चार से पांच रुपये मिलते हैं. बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी नहीं निकल पाता है. लेकिन करें भी तो क्या उनके पास कोइ दूसरा काम भी नहीं है, जिसे वह कर सकें.।
जिल्दसाजी का काम करने वाले कुछ युवाओं अब हमने बात की. स्थानीय कारीगर दीपक 20 साल से इस काम में है. दीपक के दूसरे साथी अब इस काम को छोड़कर अन्य काम शुरू कर चुके हैं. दीपक का कहना है कि अब जिल्दसाजी में इतना पैसा नहीं है. पर मजबूरी है दूसरे काम के लिए पैसा भी नही है. ऐसे मैं इसी पुस्तैनी काम मैं पिताजी का हाथ बंटाकर घर का खर्च चला रहे हैं.
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