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किसान आंदोलन: सियासी जमीन बनाने में जुटा रालोद

तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसानों के आंदोलन के जरिए राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) अपनी खोयी जमीन को पाने में जुटा है. हलांकि इस आंदोलन में अन्य विपक्षी दल भी राजनीति चमकाने के प्रयास में लगे हैं.

Updated on: 02 Feb 2021, 04:11 PM

नई दिल्ली:

तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसानों के आंदोलन के जरिए राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) अपनी खोयी जमीन को पाने में जुटा है. हलांकि इस आंदोलन में अन्य विपक्षी दल भी राजनीति चमकाने के प्रयास में लगे हैं, मगर इसका सियासी फायदा रालोद को मिलने की संभावनाएं अभी नजर आ रही हैं. 26 जनवरी को लाल किला की घटना के बाद जब चारों तरफ से किसान आंदोलन को दबाने की कोशिशें हुईं, तो एक बारगी लगा था कि अब यह आंदोलन इतिहास बनकर रह जाएगा. मगर 28 जनवरी की रात गाजीपुर बॉर्डर पर रोते हुए राकेश टिकैत ने जब भावनात्मक अपील की तो वहीं से किसान आंदोलन ने पलटी मार दी. नतीजा, पुलिस की हिम्मत नहीं हो सकी कि वह राकेश टिकैत को गिरफ्तार कर ले. इसके बाद से हुई महापंचायतों में भाकियू रालोद की दोस्ती का रंग चटक होने लगा है. किसान आंदोलन पर चढ़ रहा सियासी रंग रालोद को संजीवनी भी दे सकता है.

पश्चिमी यूपी की राजनीति में हमेशा से किसान प्रभावित रही है. इसी कारण चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री की गद्दी पर विराजमान हुए थे. अजित सिंह भारतीय राजनीति के ऐसे नेताओं में गिने जाते हैं जो लगभग हर सरकार में मंत्री रहे हैं. वे कपड़ों की तरह सियासी साझेदार बदलते रहे हैं.

नए-नए प्रयोग करने वाले रालोद के रिकॉर्ड पर गौर करें तो वर्ष 2002 में भाजपा से गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ते हुए रालोद के कुल 14 विधायक जीते थे. वर्ष 2009 में भाजपा से गठबंधन में लोकसभा चुनाव लड़ा और उनके पांच सांसद जीते. उस चुनाव में रालोद के कोटे में सात सीटें आईं और यह अब तक का उसका सबसे ठीक ग्राफ रहा है. वर्ष 2012 में कांग्रेस के साथ मिलकर लड़े विधानसभा चुनाव में महज नौ सीटें ही मिलीं. 2014 नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर उदय होने का साल था जो रालोद के लिए बेहद निराशाजनक रहा. यहीं से उनके धरातल पर जाने की कहानी शुरू होती है.

2017 में कांग्रेस से मिलकर लड़ने के बाद भी रालोद एक विधानसभा सीट छपरौली ही जीत पाई और वह विधायक भी भाजपा में चला गया. साल 2019 में लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न होने के बावजूद जातीय समीकरण के चलते इन्हें सपा-बसपा के बीच गठबंधन में जगह मिली. वहां भी यह सफल नहीं हो सके. तब से लगातार अपनी सियासी जमीन बचाने के प्रयास में लगे हैं. 28 जनवरी की रात किसानों के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. उसको जयंत ने सही समय पर लपक कर आगे बढ़ने में लगे. 29 जनवरी को हुई पंचायत में नरेश टिकैत ने मुजफ्फरनगर में पंचायत बुलाई, यहीं समीकरण में बदलाव देखे गए. यहां नरेश ने जयंत को मंच में बुलाकर एकता का संदेश दिया. 2019 में चुनाव में जयंत के परिवार सफलता न मिलने पर मलाल भी व्यक्त किया.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) की 2012, 2014, 2017, 2019 के चुनावों में सीटें कम हुई है. इनका जनाधार कम हुआ है. अजीत सिंह राजनीति से रिटायरमेंट ले चुके हैं. उनकी बातों का वजन अब किसानों की बीच नहीं बचा है. वह किसानों के लिए कुछ नहीं कर पाए. अजीत सिंह जननेता नहीं बन पाए. चरण सिंह के बेटे के नाते उनकी प्रासंगिकता नहीं बन पाई. किसान आंदोलन से उन्हें संजीवनी मिली है. 

मुस्लिम, जाट की एकता से उन्हें सफलता मिलती रही है. वह भी मुजफ्फरनगर दंगे से टूट गई थी, लेकिन वह इस किसान आंदोलन के माध्यम से एक बार फिर बनती दिख रही है. टिकैत को लगता है कि यूपी में यह आंदोलन राजनीति के समर्थन से फल-फूल सकता है. अभी होने वाले पंचायत चुनाव में रालोद अपनी संभवानाएं तलाशेगी. इस आन्दोलन से उन्हें आशा की किरण नजर आ रही है. पंचायत चुनाव में 50-60 लोग जीत जाते हैं तो उसी के आधार पर वह अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का रोडमैप तैयार करेंगे.