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पेयजल संकट से गुजर रहे राजस्थान में परंपरागत जल स्त्रोत को पुनर्जीवित करने की मुहिम

झुंझुनू जिले की चिड़ावा क्षेत्र के गांवों में परंपरागत जल स्त्रोत को पुनर्जीवित किया जा रहा है, विशेषकर पुराने कुओं को वर्षा जल से भर रहे हैं. इन गांवों में 63 पुनर्भरण कूप हैं जो पाइप के माध्यम से तमाम घरों से जुड़े हुए हैं.

Updated on: 06 Jun 2019, 10:06 AM

नई दिल्ली:

राजस्थान एक ओर जहां भीषण गर्मी से झुलस रहा है वही पेयजल संकट भी गहरा रहा है. भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है, इसके पीछे एक तो बारिश का पानी
व्यर्थ बहा जाता है वहीं परंपरागत जल स्त्रोत भी सूख गए हैं. लेकिन बारिश के जल से परंपरागत स्त्रोत को पुनर्जीवित किया जाए तो इसका दोहरा लाभ है. एक ओर वर्षा जल को सहेज कर परंपरागत स्त्रोत वापिस जल से भर जाएगा वहीं दूसरी ओर भू-जल स्तर भी बढ़ेगा.

झुंझुनू जिले की चिड़ावा क्षेत्र के गांवों में परंपरागत जल स्त्रोत को पुनर्जीवित किया जा रहा है, विशेषकर पुराने कुओं को वर्षा जल से भर रहे हैं. इन गांवों में 63 पुनर्भरण कूप हैं जो पाइप के माध्यम से तमाम घरों से जुड़े हुए हैं. छत पर होने वाली बारिश का जो पानी टांका भरने पर ओवरफ्लो होता है, वह पाइप के माध्यम से इन पुनर्भरण कूपों में पहुंच जाता है. इन कूपों के जरिए अब तक 57 करोड़ लीटर पानी रिचार्ज किया जा चुका है.

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इसके अलावा खराब हो चुके बोरवेल या हैंडपंप में भी वर्षा का जल को पाइपों के जरिए पहुंचाकर भूजल रिचार्ज किया जा रहा है. रिचार्ज जल की मात्रा कुल वर्षा व छत और धरातल के क्षेत्र को मापकर कर ली जाती है. पुनर्भरण कूपों में जल पहुंचाने का फायदा यह होता है कि क्षेत्र में भूजल स्तर सामान्य: स्थिर हो जाता है. कई जगह कूपों के पास बने सरकारी बोरवेल में जलस्तर में वृद्धि देखी गई है.

इन गांवों में घरों से निकलने वाला पानी भी बेकार नहीं जाता. गांवों में 3,060 सोख्ता (सोक पिट) बनाए गए हैं जो भूजल को रिचार्ज करने में मददगार साबित हो रहे हैं. इसके अलावा बारिश का पानी पाइपों के माध्यम से सूख चुके पांच तालाबों में पहुंचाकर उन्हें पुनर्जीवित किया जा चुका है.

झुंझनू जिला अतीत में सूखे की मार कई बार झेल चुका है. देश के बाकी सूखाग्रस्त क्षेत्रों की तुलना में झुंझनू अतिशय मौसम की घटनाओं और सूखे के प्रति अधिक संवेदनशील है. मई और जून में यहां वाष्पीकरण की प्रक्रिया काफी तेज होती है. जिले में औसतन 480 मिलीमीटर बारिश होती है जबकि औसत वाष्पीकरण 1,819 मिलीमीटर है. कम बारिश और वाष्पीकरण की यह स्थिति सूखे के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है. चिड़ावा क्षेत्र में 1901 से 2011 के बीच 111 बार सूखा पड़ा है, यहां सतह का जल अनुपलब्ध है. इस कारण भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन हुआ है साथ ही सामान्य से कम बारिश और उसके असमान वितरण से स्थितियां और खराब हुई हैं.

वाटर एक्सपर्ट की राय

गिरते भूजल का मुख्य कारण सिंचाई की परंपरागत पद्धतियां भी हैं. वैज्ञानिक तरीके से एक हेक्टेयर में गेहूं की खेती की जाए तो फसल तैयार करने के लिए 46 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होती है लेकिन किसान जानकारी के अभाव में 76 लाख लीटर पानी का दोहन कर लेता है. अगर ड्रिप पद्धति से सिंचाई की जाए तो मात्र 16.1 लाख लीटर पानी की ही आवश्यकता होती है. एक हेक्टेयर में जौ की फसल तैयार करने में 28 लाख लीटर पानी की जरूरत होती है लेकिन किसान 35 लाख लीटर तक पानी दे देता है.

ड्रिप से सिंचाई करने पर 9.8 लाख लीटर पानी ही लगेगा. साफ है कि अगर समझदारी दिखाई जाए तो 65 प्रतिशत पानी बचाया जा सकता है और गिरते जलस्तर को काफी हद तक
रोका जा सकता है. इसके अलावा अगर फसलों को मल्चिंग पद्धति से बोया जाए तो वाष्पीकरण से उड़ने वाला पानी भूमि में संचित किया जा सकता है. इससे सिंचाई की
आवश्यकता भी आधी हो जाती है.

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राजस्थान में जल संकट से निपटने के लिए इन पद्धतियों को अपनाने के साथ ही जल संरक्षण के लिए तत्काल उपाय करने की जरूरत है. इसमें देरी का मतलब है अपने ही
पैर पर कुल्हाड़ी मारना जैसा होगा.