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Rajasthan Election: अशोक गहलोत और सचिन पायलट एक साथ कांग्रेस की जीत के लिए लड़ेंगे या फिर...

Rajasthan Election 2023 :  राजस्थान में चुनावी घमासान की तैयारी पूरी हो चुकी है. 2023 में हिंदी पट्टी के इस राज्य में कांग्रेस और बीजेपी के लिए 2024 लोकसभा चुनाव से पहले की लड़ाई का सही सेमीफाइनल होना है.

Updated on: 29 Dec 2022, 06:15 PM

जयपुर:

Rajasthan Election 2023 :  राजस्थान में चुनावी घमासान की तैयारी पूरी हो चुकी है. 2023 में हिंदी पट्टी के इस राज्य में कांग्रेस और बीजेपी के लिए 2024 लोकसभा चुनाव से पहले की लड़ाई का सही सेमीफाइनल होना है. सब लोगों की निगाहें भी इस राज्य पर टिकी हैं. हर किसी के लिए शायद पहला सवाल यही होगा कि क्या कांग्रेस इस राज्य में चुनावी इतिहास को उलटते हुए अपनी सत्ता को बरकरार रखेगी या फिर परंपरानुसार बीजेपी जयपुर की गद्दी को संभालेगी. लेकिन राज्य के अंदर इससे भी बड़ा सवाल लोगों के जेहन में है कि क्या कांग्रेस पार्टी चुनाव में अपने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के एक साथ होते हुए चुनाव में उतरेगी? क्या अशोक गहलोत और सचिन पायलट एक साथ पार्टी की जीत के लिए लड़ेंगे या फिर एक दूसरे से लड़ेंगे? राजस्थान में दूसरी पार्टी भी इसी हालत से जूझ रही है, लेकिन उसपर बाद में बाद में चर्चा करेंगे.

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कांग्रेस के सीएम अशोक गहलोत पार्टी की बड़ी उम्मीदों में से एक हैं. गुजरात की शर्मनाक हार के बाद हिमाचल में जीत ने पार्टी को मैदान छोड़ने से बचा लिया था. 2023 में जिन 9 राज्यों में चुनाव हैं उनमें से महज दो कांग्रेसशासित हैं. राजस्थान के अलावा छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की सरकार है. कांग्रेस पूरी ताकत के साथ इन दोनों राज्यों में अपनी सरकार को बचाए रखना चाहती है. पार्टी के रणीतिकार जानते हैं कि इन राज्यों से सरकार खोना 2024 के आम चुनावों में विपक्षी गठबंधन के अंदर भी कांग्रेस की उम्मीदों को कमजोर कर देगा. ऐसी हालत में कोई भी पार्टी अपनी सारी ताकत जीत पर केंद्रित करेगी, लेकिन राजस्थान में कांग्रेस ऐसा करती हुई नहीं दिख रही है. 

अशोक गहलोत इस वक्त अपनी लोकलुभावन योजनाओं से राज्य के चुनावी इतिहास को पलटने की कोशिशों में सबसे बड़ा अवरोध भाजपा को नहीं बल्कि अपने ही उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट को मान रहे हैं. आलाकमान के लिए पार्टी के अंदर का घमासान बाहर की चुनौतियों से बड़ी चिंता में बदल चुका है. राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के अंदर भीड़ से ज्यादा मीडिया कर्मियों में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के एक दूसरे पर किए गए परोक्ष हमलों ने सुर्खियां बटोरीं. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भाषा के संयम के लिए जाना जाता है, लेकिन अब सचिन पायलट के साथ उनकी राजनीतिक लड़ाई इतनी बढ़ चुकी है कि वो भाषा का संयम भी टूट रहा है. पार्टी के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी की यात्रा के दौरान एक सभा में अशोक गहलोत ने साफ तौर पर कह दिया कि गद्दार मुख्यमंत्री नहीं हो सकता है. 

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पार्टी में ये मैसेज साफ था कि इस तरह की बयानबाजी किसको लेकर की जा रही है. उधर सचिन पायलट भी इस बार आरपार की लड़ाई में कोई रणनीतिक चूक नहीं करना चाहते हैं. यानी कांग्रेस में चुनाव से पहले पार्टी में ही फैसला होना है और ये फैसला 2023 का फैसला नहीं है बल्कि 2018 का रुका हुआ फैसला है, जिसको लेने से चूक पार्टी को भारी पड़ती दिख रही है. 2023 का चुनाव कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए 2018 की छाया से घिरा हुआ है.
 
2013 में बीजेपी ने चुनावों में भारी जीत हासिल की थी और उसके बाद वसुंधरा राजे ने राज्य के मुख्यमंत्री पद संभाला था. राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के चेहरे पर लड़े गए इस चुनाव में पार्टी की बुरी हालत से राज्य की राजनीति में गहलोत को लेकर सवाल उठे. गहलोत ने भी अपनी भूमिका राजस्थान से बाहर तलाश की. राहुल गांधी ने टीम राहुल के सदस्य सचिन पायलट को राजस्थान का जिम्मा दिया तो अशोक गहलोत को दिल्ली में ताकत दी. दोनों ने ही अपनी अपनी भूमिकाओं में जान फूंक दी.

गहलोत ने कई राज्यों के चुनावों में पार्टी का कुशल संचालन किया और पार्टी के कई संकटों को सुलझाने में अपनी क्षमता दिखाई. दशकों से पार्टी में मुख्य रणनीतिकार रहे अहमद पटेल के निधन के बाद खाली हुई जगह अशोक गहलोत भरते हुए दिखने लगे थे. सचिन पायलट ने भी पांच साल तक राजस्थान की खाक छान कर पार्टी को वापस लड़ाई में ला खड़ा किया और हाईकमान ने 2018 का चुनाव जीतने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री पद के लिए किसी चेहरे का नाम नहीं दिया.

इसका नतीजा हुआ कि दोनों खेमों ने अपने-अपने उम्मीदवार को मुख्यमंत्री बनाने के नाम पर वोट मांगे. पार्टी ने सत्ता से बीजेपी को बेदखल किया, लेकिन घर की फूट ने अंदर जड़ जमा ली. कई दिन की जद्दोजहद के बाद राहुल गांधी के हस्तक्षेप से सुलह का फार्मूला निकला और अशोक गहलोत वापस मुख्यमंत्री पद पाएं. पार्टी ने सचिन पायलट को उप मुख्यमंत्री पद की भूमिका देकर उनकी मेहनत को भी ईनाम दिया, लेकिन इससे जंग बंद नहीं हुई.

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एक दूसरे पर हमला करते हुए एक दूसरे को नीचा दिखाते हुए पार्टी में एक साल पूरा हुआ और 2019 के आम चुनावों में मोदी मैजिक के सामने पूरी राजस्थान कांग्रेस फेल हो गई. राज्य की सभी 25 लोकसभा सीटें बीजेपी के खाते में गईं. इसके बाद पायलट को लगा कि हाईकमान इस नाकामी के बाद शायद उनके नेतृत्व में अगली बड़ी लड़ाई के लिए चेहरा बदल कर तैयार होगा. लेकिन दिल्ली के बदले समीकरणों में अशोक गहलोत और भी ताकतवर होकर उभरे. 

इस बात से नाराज पायलट ने 2020 में अपने खेमे के विधायकों के साथ मुख्यमत्री अशोक गहलोत के खिलाफ विद्रोह कर दिया. ये कहानी काफी लंबी हो गई, लेकिन सबको मालूम है कि बीजेपी के अंदर से हासिल सहयोग से अशोक गहलोत ने इस मामले में सचिन पायलट को मात देने में कामयाबी हासिल की. लगभग पार्टी से बाहर चले गए पायलट को पार्टी में वापसी पर कोई फायदा नहीं हुआ और महीनों तक उनको इतंजार करा कर अशोक गहलोत ने अपमानित करना शुरू कर दिया. अब भारत जोड़ो यात्रा में जिस तरह से ये सामने आया कि अब दोनों खेमे एक दूसरे को नष्ट करने के लिए पार्टी को नष्ट करने की हद तक जा सकते हैं.

अशोक गहलोत ने सरकार की वापसी के लिए काफी लोकलुभावन योजनाओं पर काम किया है. यहां तक कि कुछ दिन पहले उज्ज्वला योजना के लाभार्थियो को साल में 12 सिलेंडर 500 रुपये में देने की घोषणा की है. इसके अलावा ओल्ड पेंशन स्कीम जैसे वादों के साथ पार्टी अब चुनाव में जा रही है. राहुल गांधी की यात्रा के दौरान जनता के ठीकठाक समर्थन से भी अशोक गहलोत को लग रहा है कि पार्टी सत्ता में वापसी कर सकती है, लेकिन बार-बार सचिन पायलट अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं.

आलाकमान भी इस बात को लेकर पसोपेश में है कि खेमे में बंटी हुई पार्टी कैसे मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी की फूट का फायदा उठा सकती है. पायलट की जल्दबाजी ने अशोक गहलोत की जानी पहचानी राजनीतिक धीरज की रणनीति को उद्विग्नता में बदल दिया है. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद त्यागकर भी इतिहास के खिलाफ जाकर राज्य में सरकार बनाने की ये अधीरता अशोक गहलोत के जानकारों के मुताबिक नई है. इससे उलट सचिन पायलट भी अपनी बारी का इंतजार करने की बजाय हाराकिरी पर उतरते दिख रहे हैं.

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पार्टी आलाकमान को लेकर सब लोग संशय में दिख रहे हैं. अब ऐसे में ये पार्टी चुनावी मैदान में जीत की कितनी उम्मीदों के साथ उतरेंगी. पार्टी कार्यकर्ता की फौज अपने नेताओं की जीत या अपनी पार्टी की दूसरे खेमे की हार के लिए मैदान में उतरेगी.