मध्य प्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय की एक ‘नई हरित’ पहल से 1,200 से ज्यादा पीएचडी शोधार्थियों और स्नातकोत्तर विद्यार्थियों को अपने थीसिस को कागजी पुलिंदे के रूप में जमा कराने से मुक्ति मिल गई है. अब वे अपनी थीसिस को डिजिटल स्वरूप में तैयार कर इसे ऑनलाइन जमा करा सकते हैं. जबलपुर स्थित विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. आरएस शर्मा ने रविवार को 'पीटीआई-भाषा' को बताया कि हमने पर्यावरण संरक्षण के मकसद के साथ ही पीएचडी शोधार्थियों व स्नातकोत्तर विद्यार्थियों को मोटे खर्च से मुक्ति दिलाने के लिये डिजिटल थीसिस का नवाचार शुरू किया है.
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इंदौर के शासकीय ‘महात्मा गांधी स्मृति चिकित्सा महाविद्यालय’ के फिजियोलॉजी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. मनोहर भंडारी देश भर के उच्च शिक्षा संस्थानों में डिजिटल थीसिस की व्यवस्था शुरू कराने के लिये अभियान चला रहे हैं. उन्होंने मध्यप्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय प्रशासन को भी इस बारे में सुझाव दिया था. प्रोफेसर मनोहर भंडारी ने बताया, 'अगर देश के सभी उच्च शिक्षा संस्थानों में कागजी थीसिस के बजाय डिजिटल थीसिस का प्रयोग शुरू किया जाए, तो हर साल हजारों पेड़ कटने से बच सकेंगे. इसके साथ ही, करोड़ों रुपये की उस रकम की भी बचत होगी जिसका भुगतान शोधार्थियों और विद्यार्थियों को कागजी थीसिस बनवाने में करना पड़ता है.'
डॉ. आरएस शर्मा ने भी बताया कि अब ये विद्यार्थी कागजी थीसिस के बजाय पीडीएफ फॉर्मेट वाली डिजिटल थीसिस ऑनलाइन जमा करा सकते हैं. यही नहीं, थीसिस जांचने का काम भी ऑनलाइन ही होगा. शर्मा की मानें, तो राज्य के उच्च शिक्षा जगत में पहली बार आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय की ओर से डिजिटल थीसिस की नवाचारी अवधारणा पेश की गयी है. इससे विश्वविद्यालय प्रशासन को विद्यार्थियों की थीसिस को वर्षों तक व्यवस्थित और सुरक्षित रखने में भी मदद मिलेगी.
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उन्होंने बताया, 'कुछ दिन पहले तक जारी व्यवस्था के मुताबिक प्रदेश भर के मेडिकल शिक्षा संस्थानों के पीएचडी शोधार्थियों और स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की जमा करायी गईं कागजी थीसिस वाहनों में लदकर हमारे जबलपुर स्थित मुख्यालय पहुंच रही थीं. इन थीसिस के व्यवस्थित भंडारण में काफी जगह लगती है. इन्हें सीलन और दीमकों से बचाये रखना भी सिरदर्दी का काम है.' आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय के एक अधिकारी ने बताया कि डिजिटल थीसिस की अवधारणा से संस्थान के 1,200 से ज्यादा विद्यार्थियों को फायदा होगा. इनमें एलोपैथी, शल्य चिकित्सा, दंत चिकित्सा, आयुर्वेद, होम्योपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा, नर्सिंग आदि संकायों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के छात्र-छात्राओं के साथ पीएचडी शोधार्थी भी शामिल हैं.
जानकारों के अनुमान के अनुसार, अलग-अलग गुणवत्ता वाला एक टन कागज बनाने के लिये 12 से 24 पेड़ों की बलि देनी पड़ती है. कागज बनाने में खूब पानी और बिजली भी लगती है. कागज को सफेद करने में रसायनों का प्रयोग करना पड़ता है I इस प्रक्रिया में ग्रीनहाउस गैसों का हानिकारक उत्सर्जन होता है जिससे पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है.
Source : भाषा