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2 वक्त की रोटी के मोहताज आदिवासी मजदूर, कुंभकरणीय नींद में प्रशासन

2 जून की रोटी का जुगाड़ करना है, इसलिए कंधों पर लकड़ी का बोझ उठाना पड़ता है.

Updated on: 15 Sep 2022, 02:21 PM

Ranchi:

2 जून की रोटी का जुगाड़ करना है, इसलिए कंधों पर लकड़ी का बोझ उठाना पड़ता है. इसके अलावा कोई और चारा भी तो नहीं है. लकड़ी नहीं काटेंगे तो कमाएंगे क्या? परिवार को खिलाएंगे क्या? रोजगार के नाम पर सिर्फ सरकारी दावे ही हाथ लगे. अब पेट तो भरना है इसलिए लकड़ी काटना ही तकदीर बन गई है. झारखंड में पहाड़ों का राजा कहे जाने वाले राजमहल की पहाड़ियां आज लोगों की बेबसी का गवाह बन रही है. 

इस खूबसूरत इलाके में बसे लोगों के बीच अब रोजगार की समस्याएं मुंह बाए खड़ी है. बीते कई महीनों से सरकार की रोजगार सृजन करने वाली महत्वाकांक्षी मनरेगा योजना समेत कई विकास की योजनाओं का काम धरातल पर ठप हो गया है. आलम ये है कि स्थानीय लोगों के सामने अब दो वक्त की रोटी का भी संकट पैदा हो गया है.

अब शासन-प्रशासन के दावे तो दावे ही रह गए हैं. लिहाजा लोगों के पास लड़कियां काटने के अलावा कोई और चारा नहीं बचा है. गरीब मजदूरों के सामने तो भुखमरी के हालात बन गए हैं. ऐसे में ग्रामीण इलाकों में बसे मजदूर किसी तरह पहाड़ों से सूखी लकड़ियां काटकर अपना जीवन यापन करने को मजबूर है. हालांकि इन ग्रामीणों के पास इतनी भर समस्या नहीं है. बड़ी मेहनत से स्थानीय लोग पहाड़ियों पर जाकर सूखी लकड़ियां काटते हैं, लेकिन मजदूरों को बड़े-बड़े हाट-बाजारों में भी सूखी लकड़ियों का सही दाम नहीं मिल पाता है. ऐसे में ये ग्रामीण कैसे अपने घर का गुजारा चलाए ये समझ के परे है. ऐसा नहीं है कि ग्रामीणों के संकट की खबर शासन-प्रशासन को नहीं है, लेकिन सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन कुंभकरणीय नींद में सोया है.

ग्रामीणों की ये हालत एक बार फिर प्रशासन पर बड़ा सवाल खड़ा करती है. सवाल ये कि जब सरकार की ओर से योजनाएं लागू की जाती है तो प्रशासन उसे अमल में लाने का काम क्यों नहीं करती? ये प्रशासनिक अधिकारियों की ही जिम्मेदारी होती है कि वो सरकारी योजनाओं को धरातल पर उतारे, लेकिन अधिकारियों की लापरवाही का नतीजा न जाने कई परिवारों को झेलना पड़ता है. ऐसे में अब देखना होगा कि इन राजमहल के स्थानीय लोगों की समस्या पर जिम्मेदार माननीय कब तक सुनवाई करते हैं.

रिपोर्ट : राजेश तोमर