लातेहार में ना सड़क, ना पानी, ना स्कूल, कब सुनी जाएगी आदिवासियों की गुहार?

झारखंड सरकार भले ही खुद को आदिवासी हितैषी बताकर उन्हें हर सुविधा मुहैय्या कराने का दम भरती हो, लेकिन जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है.

झारखंड सरकार भले ही खुद को आदिवासी हितैषी बताकर उन्हें हर सुविधा मुहैय्या कराने का दम भरती हो, लेकिन जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है.

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Jatin Madan
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पगडंडियों का सहारा.( Photo Credit : News State Bihar Jharakhand)

झारखंड सरकार भले ही खुद को आदिवासी हितैषी बताकर उन्हें हर सुविधा मुहैय्या कराने का दम भरती हो, लेकिन जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है. इसका जीता जागता उदाहरण है लातेहार का तिसिया गांव है. बूढ़ा पहाड़ की तलहटी पर बसे लातेहार बसा ये गांव कहने को तो ये आदिवासी बहुल गांव है. यहां आदिवासी हितैषी सरकार के शासन है, लगाचतार विकास के दावे भी कई किए जाते हैं, लेकिन जमीनी हालात दावों की पोल खोलने के लिए काफी हैं. गांव को देख ये कहना गलत नहीं कि आजादी के 7 दशक बाद भी आदिवासियों के पैरों में गुलामी की जंजीरें आज भी बंधी है. 

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इन गांव में रहने वाले लोग आज भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम है. तिसिया गांव और इसके अंतर्गत पड़ने वाले छोटे-छोटे टोलों को मिलाकर गांव की कुल आबादी 700 के करीब है. खास बात ये कि यहां विलुप्त होती आदिम जनजाति के कोरवा समुदाय, नगेसिया जनजाति और कुछेक यादव जाति के लोग भी रहते हैं, लेकिन ना तो इनके विकास पर शासन की नजर जाती है और ही प्रशासन की. असुविधाओं की बात करें तो तिसिया गांव में सरकारी योजना के नाम पर महज एक सोलर मोटर टंकी ग्रामीणों को मिली है. मतलब एक सोलर मोटर टंकी के भरोसे पूरा गांव है. एक सोलर मोटर टंकी से 700 ग्रामीणों की प्यास कैसे बुझती होगी अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. गांव के लोगों ने आजतक गांव में बिजली की रोशनी तक नहीं देखी है.

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इसके आलावा गांव में इलाज के लिए कोई सुविधा नहीं है. अगर ग्रामीण बीमार पड़ते है तो उन्हें इलाज के नाम पर दवा की एक गोली भी नहीं नसीब होती. गंभीर बीमार के इलाज के लिए कई किलोमीटर तक चलकर जाना पड़ता है. गांव में सड़क के नाम पर सिर्फ पगडंडियां हैं, जिसके भरोसे आवाजाही होती है.

चारों ओर से पहाड़ों से घिरा ये गांव सालों तक नक्सलियों की जद में रहा,लेकिन सुरक्षाबलों की कोशिशों ने गांव से नक्सलियों को तो खदेड़ दिया लेकिन आज भी ग्रामीण विकास की राह देख रहे हैं और ये इंतजार लोगों के साथ बच्चों को भी है. जिनके पढ़ने के लिए एक स्कूल भवन तक नहीं है. एक स्कूल भवन गांव में बना तो जरूर,लेकिन वो भी देखरेख के अभाव में खंडर में तब्दील हो चुका है. आलम ये है कि आज भी बच्चे कभी पेड़ के नीचे तो कभी खुले आसमान के नीचे पढ़ने को मजबूर हैं.

ग्रामीणों का मानना है कि गांव में CRPF कैम्प लगने से उनके जीवन में बदलाव आना शुरू हो गया है. उन्हें उम्मीद है कि आने वाले दिनों में गांव और ग्रामीण दोनों के दिन बहुर जाएंगे, लेकिन सवाल ये उठता है कि अगर आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए ही प्रदेश का निर्माण हुआ तो आदिवासियों की ये बदहाली क्यों.

रिपोर्ट : गोपी सिंह

HIGHLIGHTS

  • 'विकास' तुम कहां हो?
  • ना सड़क, ना पानी... कैसे चले जिंदगानी?
  • पगडंडियों का सहारा... गंदे पानी से गुजारा
  • सरकार... सुन लो आदिवासियों की गुहार

Source : News State Bihar Jharkhand

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