जानिए बिरसा मुंडा कैसे बने 'भगवान', अंग्रेजों से लिया था लोहा
आदिवासियों के हितों के लिए संघर्ष कर अपनी जान गंवाने वाले बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा दिया जाता है. आदिवासी समाज के लोग उन्हें भगवान बिरसा मुंडा कहते हैं, तो कुछ इतिहासकार उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का भी दर्जा देते हैं.
highlights
- जानिए बिरसा मुंडा कैसे बने 'भगवान'
- आदिवासियों का किया उत्थान
- अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन
Ranchi:
आदिवासियों के हितों के लिए संघर्ष कर अपनी जान गंवाने वाले बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा दिया जाता है. आदिवासी समाज के लोग उन्हें भगवान बिरसा मुंडा कहते हैं, तो कुछ इतिहासकार उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का भी दर्जा देते हैं. महज 25 साल की कम उम्र में बिरसा मुंडा ने आदिवासियों के ऐसे नायक बन गए कि जनजातीय लोग उन्हें गर्व से याद करते हैं क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लिया था. ऐसे तो बिरसा मुंडा के जन्म की तारीख को लेकर कई सारे विवाद हैं, कोई उनकी जन्म की तारीख 15 नवंबर, 1875 बताते हैं तो कोई 15 नवंबर, 1872 कहते हैं. महज 25 साल की उम्र में अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाले भगवान बिरसा मुंडा ने आदिवासियों के उत्थान के लिए कई काम किए. जिसकी वजह से आज वह अमर हो गए.
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आदिवासी से बन गए थे ईसाई
बता दें कि बिरसा मुंडा की पढ़ाई सलगा से हुई, जिसके बाद वह जर्मन मिशन स्कूल में आगे की पढ़ाई के लिए गए. जहां वह आदिवासी से ईसाई बन गए और उनका नाम बिरसा डेविड हो गया. पढ़ाई के दौरान ही बिरसा मुंडा को समझ आ गया कि कैसे अंग्रेज धर्मांतरण का खेल रच रहे हैं. जिसके बाद पहले तो उन्होंने स्कूल छोड़ा और फिर ईसाई धर्म को त्याग दिया.
ईसाई धर्म का त्याग कर बनाया बिरसाइत
ईसाई धर्म को त्यागने के बाद उन्होंने 1894 में आदिवासियों की जमीन और वन संबंधी अधिकारियों की मांग को लेकर सरदार आंदोलन में शामिल हो गए. उन्होंने आदिवासियों से अंग्रेजों को लगान देने से मना कर दिया और उन्हें समझाया कि कैसे अंग्रेज उनकी जमीन पर ही कब्जा कर लगान वसूल रहे हैं. जब उन्हें लगा कि ना ही आदिवासी और ना ही आदिवासी से ईसाई बने लोग इस आंदोलन को तरजीह दे रहे हैं तो उन्होंने एक अलग धार्मिक पद्धति बनाया, जिसका नान बिरसाइत दिया गया. इस धर्म के प्रचार के लिए बिरसा मुंडा ने 12 शिष्यों को भी नियुक्त किया था. जल्द ही मुंडा और उरांव जनजाति के लोग उस धर्म को मानने लगे.
अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन
आदिवासियों के भगवान का जन्म तो झारखंड के खूंटी में हुआ था, लेकिन संघर्ष की शुरुआत चाईबासा से हुई थी. बिरसा मुंडा जगह-जगह जाकर भाषण दिया करते थे और लोगों से अंग्रेजों को टैक्स ना देने की अपील करते थे. उन्होंने यह भी घोषणा कर दी कि अब विक्टोरिया रानी का राज खत्म हो चुकै है और मुंडा राज शुरू हो गया है. मुंडा जनजाति के लोग उन्हें धरती आबा भी कहने लगे थे.
मुंडा को पकड़ने के लिए 500 रुपये का इनाम
बिरसा मुंडा के आंदोलन से जमींदारों से लेकर खेत तक का काम रूक गया, जिससे ब्रिटिश शासन बौखला गया. बिरसा मुंडा पुलिस स्टेशनों से लेकर जमींदारों की संपत्ति पर भी हमला करने लगे. उनसे तंग आकर अंग्रेजों ने मुंडा को पकड़ने के लिए 500 रुपये का इनाम रखा था. यह रकम उस समय के हिसाब से एक मोटी रकम थी. 24 अगस्त, 1895 में बिरसा मुंडा को पहली बार गिरफ्तार किया गया था. 2 साल तक मुंडा को जेल में रखा गया और फिर रिहा कर दिया गया. जेल से बाहर आने के बाद मुंडा ने एक बार फिर आंदोलन शुरू किया.
आदिवासियों का किया उत्थान
साल 1900 में छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर तक बिरसा मुंडा का आंदोलन फैल चुका था. आदिवासियों का विद्रोह इतना बढ़ गया कि रांची के जिला कलेक्टर को सेना की मदद मांगनी पड़ गई. डोम्बारी पहाड़ी पर आदिवासियों और सेना में भिड़ंत हुई, जिसमें करीब 400 आदिवासी मारे गए, लेकिन उस समय के अंग्रेजी सेना ने सिर्फ 11 लोगों के मारे जाने की ही पुष्टि की. जब अंग्रेजों को बिरसा मुंडा के आंदोलन का डर सताने लगा तो उन्होंने इसे रोकने के लिए साजिश रची और गिरफ्तारी वॉरंट जारी कर दिया. जिसके बाद 1900 में उन्हें गिरफ्तार किया गया. 9 जून, 1900 में बिरसा मुंडा ने प्राण त्याग दिया. अंग्रेजों ने बताया कि हैजा की वजह से जेल के अंदर उनकी मौत हुई, लेकिन उसका कोई साक्ष्य नहीं मिला. वहीं, मुंडा के दोस्तों का दावा है कि अंग्रेजों ने उन्हें जहर देकर मार दिया था.
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