साहिबगंज में 'पूस की रात', 37 हजार कंबल वितरण, फिर भी कांप रहे गरीब
मुंशी प्रेम चंद की कहानी पूस की रात साहिबगंज में कई जगह चरितार्थ होती दिख रही है. पूस की अंधेरी रात में सर्दी ऐसी कि तारे भी ठिठुर रहे हो. ऐसे में इंसानों का सिर्फ दो ही सहारा होता है.
एक कंबल के सहारे कैसे कटेगी रात?( Photo Credit : News State Bihar Jharakhand)
मुंशी प्रेम चंद की कहानी पूस की रात साहिबगंज में कई जगह चरितार्थ होती दिख रही है. पूस की अंधेरी रात में सर्दी ऐसी कि तारे भी ठिठुर रहे हो. ऐसे में इंसानों का सिर्फ दो ही सहारा होता है. अलाव या कंबल, लेकिन अगर इनमें से कुछ ना मिले तो सांसें साथ छोड़ने लगती हैं. झारखंड में कड़ाके की ठंड पड़ रही है और प्रशासन के अपने दावे हैं. ऐसे में पूस की रात कहानी का मर्म समझने के लिए न्यूज़ स्टेट की टीम ने जिले के कई इलाकों का जायजा लिया.
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हमारी यात्रा की शुरूआत हुई वीरान सड़कों से दो चार होने के साथ, हड्डियां गलाने वाली ठंड के प्रकोप ने मानों शहर को सुनसान कर दिया, लेकिन सुनसान सड़कों के बीच बिजली ऑफिस के सामने कुछ मज़दूर दिखे. कम कपड़ों में दौड़-दौड़ कर ट्रक से सरिया उतारते नजर आए. बीच-बीच में अलाव का सहारा जरूरी है. ताकि ठंड कम लगे. इस बीच गांधी चौक पर नगर थाना के सामने एक शख्स को कैमरे ने कैद किया. देखने में लगा रहा था मानो मानसिक रूप से कमजोर है. सड़क किनारे कोने में बैठा एक कंबल में खुद को समेटने की कोशिश कर रहा था. सर्द हो चुके चेहरे को कभी घुटनों के बीच घुसा लेता, तो कभी हाथों से कंबल को शरीर के इर्दगिर्द समेटता. पूछने पर चेहरा उठा कर बस टकटकी लगाकर देखता और खामोशी से फिर चेहरा घुटनों के बीच दबा लेता. चेहरा उठाता तो उलझे हुए बालों की लट जैसे चेहरे को ढंक रही है.
चलते-चलते एक बुजुर्ग की बेबसी के गवाह भी बने. इस कंपकंपाती ठंड में बुजुर्ग महिला ने सिर्फ एक कंबल लपेटा था, लेकिन इससे ठंड कहां जाने वाली. तो आस-पास से थोड़ा कूड़ा और कागज़ चुन लिया और माचिस से अलाव जलाने की कोशिश करने लगी. कांपते हाथ भी साथ नहीं दे रहे. बड़ी कोशिशों के बाद आग जली. जिसके बाद बुजुर्ग के चेहरे पर सुकून दिखा.
कुछ ऐसा ही नजारा था रेलवे स्टेशन का. जहां कई मुसाफिर वेटिंग हॉल, टिकट काउंटर, मेन गेट पर ट्रेन के इंतेज़ार में किसी तरह ठंड से बचने की कोशिश में लगे थे, लेकिन परिसर के बाहर दातुन बेचने वाली आदिम जनजाति की महिलाएं बैठी थीं. यूं ही सड़क पर, एक पतला सा कंबल और अलाव के सहारे किसी तरह सर्द रात से जिंदगी की जंग लड़ रही थी. कहीं से लाकर एक लकड़ी जला दिया था. जिससे थोड़ी राहत जरूर मिल रही थी. ये तस्वीरें साहिबगंज में पूस की रात की कहानी को बयां करने के लिए काफी है, लेकिन अब जरा हम अधिकारियों की बातें सुनते हैं और बड़े-बड़े दावे सुनते हैं. जिसमें 37 हजार कंबल बांटे जाने की बात कही जा रही है.
37 हजार कंबल बांटे गए, लेकिन कहां बांटे गए. जब शहर के हर दूसरे चौराहे पर कोई गरीब ठंड से कांप रहा है. उम्मीद है कि शासन-प्रशासन तक इन गरीबों की बेबसी की तस्वीरें पहुंचे. ताकि पूस की रात इनके लिए उतनी मुश्किल ना हो जितनी हल्कु के लिए थी.