World War I: खुदादाद खान 'भारतीय फौज' का वो सिपाही जिसे मिला पहला 'विक्टोरिया क्रॉस'
1914 में आज की ही तारीख यानि 28 जुलाई 1914 को शुरू हुआ था और यूरोप में होने वाला यह एक वैश्विक युद्ध था
Patna:
1914 में आज की ही तारीख यानि 28 जुलाई 1914 को शुरू हुआ था और यूरोप में होने वाला यह एक वैश्विक युद्ध था, जो 11 नवंबर 1918 तक चला था. इसे सभी युद्धों को समाप्त करने वाला युद्ध भी कहा जाता है. यह इतिहास में सबसे घातक युद्धों में से एक था, जिसमें कई लोगों की मौत हुई थी. खुदादाद खान भी घायल हो गए थे, लेकिन अकेले तब तक डटे रहे जब तक उन्हें झुटपुटे के बाद बेस कैंप तक पीछे जाने का आदेश नहीं मिला. उनकी इसी हिम्मत के लिए हिंदुस्तान का पहला विक्टोरिया क्रॉस मिला और उन्हें प्रोमोट करके सूबेदार बना दिया गया.
लगभग 10 लाख 'भारतीय सैनिकों' ने भी लिया था हिस्सा
इस युद्ध में करीब 10 लाख भारतीय सेना (जिसे 'ब्रिटिश भारतीय सेना' कहा जाता है) ने भी भाग लिया था. इनमें से 62,000 सैनिक मारे गए थे और अन्य 67,000 घायल हो गए थे. युद्ध के दौरान कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिकों की मौत हुई थी. प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सेना ने जर्मन पूर्वी अफ्रीका और पश्चिमी मोर्चे पर जर्मन साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध किया.
खुदादाद खान को विक्टोरिया क्रॉस से किया गया था सम्मानित
प्रथम विश्व युद्ध में 'ब्रिटिश भारतीय सेना' की तरफ से जर्मन के खिलाफ लोहा लेने वाले बलोच रेजीमेंट के सिपाही खुदादाद खान को 'विक्टोरिया क्रॉस' से सम्मानित किया गया था. यह सम्मान पाने वाले खुदादाद पहले भारतीय थे. पहले सिर्फ़ गोरे ब्रितानियों को यह पदक दिया जाता था लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध के वक़्त से हिंदुस्तानियों को भी दिया जाने लगा. ख़ुदादाद ख़ान की कहानी प्रथम विश्व युद्ध में उनकी बहादुरी के साथ ही ख़त्म नहीं हुई. आज़ादी के बाद के उनके कुछ किस्से तो इतने मशहूर हुए कि आज भी सुनाए जाते हैं.
विक्टोरिया क्रॉस के बारे में
विक्टोरिया क्रॉस का तमगा 1856 में महारानी विक्टोरिया के आदेश पर जारी हुआ और उसे 1854 में क्रीमिया की जंग में रूस से छीनी गई दो तोपों की धातु से तैयार किया जाता है. अबतक विक्टोरिया क्रॉस 1352 बहादुर सैनिकों को मिल चुका है.
खुदादाद को क्यों दिया गया विक्टोरिया क्रॉस
सिपाही ख़ुदादाद ख़ान की रेजीमेंट, ड्यूक ऑफ़ कनॉट्स ऑन बलोच, पहली देसी रेजीमेटों में से एक थी जिन्हें पानी के जहाज़ों में भर-भरकर हिंदुस्तान से पहले फ़्रांस और फिर बेल्जियम के मोर्चों पर पहुंचाया गया. 31 अक्टूबर, 1914 के दिन होलबैक नामक स्थान पर सिपाही ख़ुदादाद ख़ान की रेजीमेंट की जर्मनों से ख़ूनी भिड़ंत हो गई. बताया जाता है कि जिस तोप को सिपाही ख़ुदादाद ख़ान संभाल रहे थे उसी तोप को संभालने के लिए उनके साथ 5 और सिपाही तैनात थे लेकिन सभी मारे गए.
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