समाप्ति की ओर 'प्राइड ऑफ बिहार', इस खास केले को बचाने में जुटा कृषि विश्वविद्यालय

बिहार में कुछ वर्षों पूर्व तक मालभोग केले की अपने स्वाद और सुगंध के कारण अलग पहचान थी, लेकिन अब इस प्रजाति का केला राज्य के कुछ इलाकों में ही देखने को मिलता है. बिहार के कृषि वैज्ञानिकों ने एक बार फिर से इस केले की उत्पादकता बढ़ाने का बीड़ा उठाया

बिहार में कुछ वर्षों पूर्व तक मालभोग केले की अपने स्वाद और सुगंध के कारण अलग पहचान थी, लेकिन अब इस प्रजाति का केला राज्य के कुछ इलाकों में ही देखने को मिलता है. बिहार के कृषि वैज्ञानिकों ने एक बार फिर से इस केले की उत्पादकता बढ़ाने का बीड़ा उठाया

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Rashmi Rani
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Malbhog Banana( Photo Credit : फाइल फोटो )

बिहार में कुछ वर्षों पूर्व तक मालभोग केले की अपने स्वाद और सुगंध के कारण अलग पहचान थी, लेकिन अब इस प्रजाति का केला राज्य के कुछ इलाकों में ही देखने को मिलता है. हालांकि बिहार के कृषि वैज्ञानिकों ने एक बार फिर से इस केले की उत्पादकता बढ़ाने का बीड़ा उठाया है. बताया जाता है कि इस प्रजाति के केले को कुछ हद तक बीमारियों ने बर्बाद किया तो कुछ भौगोलिक कारण भी रहा है. बिहार के समस्तीपुर के पूसा स्थित राजेंद्र प्रसाद कृषि केंद्रीय विश्वविद्यालय इसकी पहल शुरू की है.

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विश्वविद्यालय के सह निदेशक (अनुसंधान) डॉ. एस के सिंह बताते हैं कि केला अनुसंधान केंद्र, गोरौल में एक उत्तक संवर्धन प्रयोगशाला की स्थापना की गई है, जिसका प्रमुख उद्देश्य है कि मालभोग प्रजाति के केले के उत्तक संवर्धन से तैयार किए जाएं. उन्होंने कहा कि इसका सार्थक परिणाम बहुत जल्दी मिलने लगेगा. उन्होंने बताया कि भारत में लगभग 500 से अधिक केले की किस्में उगायी जाती हैं, लेकिन एक ही किस्म का विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न नाम हैं. राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के पास केला की 74 से ज्यादा प्रजातियां संग्रहित हैं.

लगभग 20 प्रजातियां वाणिज्यिक उद्देश्य से उगाई जा रही हैं. उन्होंने बताया कि सिल्क समूह के मशहूर केला मालभोग बिहार में पनामा विल्ट रोग की वजह से लुप्त होने की कगार पर है. इसकी खेती हाजीपुर के आस पास के कुछ गांवों तक सीमित रह गई है. यह मशहूर केला सिल्क (एएबी) समूह में आता है. इसमें मालभोग, रसथली, मोर्तमान, रासाबाले और अमृतपानी आदि केले आते हैं. केले में मालभोग बिहार की एक मुख्य किस्म है जो अपने विशिष्ट स्वाद एवं सुगन्ध की वजह से एक प्रमुख स्थान रखती है. यह अधिक वर्षा को सहन कर सकती है. इसका पौधा लम्बा, फल औसत आकार का बड़ा, छाल पतली और पकने पर पीलापन लिए होता है. फलों के घौंद (केले का गुच्छा) का वजन 15-25 किलोग्राम होता है, जिसमें फलों की संख्या लगभग 125 के आस-पास होती है.

कृषि वैज्ञानिक सिंह बताते हैं कि यह प्रजाति पनामा विल्ट की वजह से लुप्त होने के कगार पर है. फल पकने पर डंठल से गिर जाता है. इसमें फलों के फटने की समस्या भी अक्सर देखी जाती है. मालभोग केला को प्राइड ऑफ बिहार भी कहते हैं. मालभोग केला 150 से 200 रुपये दर्जन बिकता है.

बिहार में मालभोग प्रजाति के केले वैशाली एवं हाजीपुर के आसपास के मात्र 15 से 20 गांवों में सिमट कर रह गया है. इसकी मुख्य वजह इसमें लगने वाली प्रमुख बीमारी फ्यूजेरियम विल्ट है. इस प्रजाति को लुप्त होने से बचाने के लिए उत्तक संवर्धन से तैयार केला के पौधों को लगाना एक प्रमुख उपाय है.

उन्होंने बताया कि इस क्रम में डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा ने पहल करते हुए केला अनुसंधान केंद्र ,गोरौल में एक उत्तक संवर्धन प्रयोगशाला की स्थापना की है, जिसका प्रमुख उद्देश्य मालभोग प्रजाति के केले के उत्तक संवर्धन से पौधे तैयार करना है. उन्होंने संभावना जताते हुए कहा कि इसके जल्द ही सार्थक परिणाम सामने आएंगे.

Source : News Nation Bureau

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