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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के गांव को विकास का इंतजार, स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था बदहाल

तीन दिसंबर को देश के प्रथम राष्ट्रपति और भारतरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की जयंती है. इस दिन आम से लेकर खास तक हर कोई महानसपूत को याद कर श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे.

Updated on: 02 Dec 2022, 03:46 PM

highlights

.डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के गांव को विकास का इंतजार
.रेलवे स्टेशन पर नहीं रुकती कई ट्रेनें
.आंदोलन के बाद भी नहीं हुई सुनवाई
.गांव में आज तक नहीं बन पाई लाइब्रेरी
.जमीन मिलने के बाद भी अधिकारी लापरवाह

Siwan:

तीन दिसंबर को देश के प्रथम राष्ट्रपति और भारतरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की जयंती है. इस दिन आम से लेकर खास तक हर कोई महानसपूत को याद कर श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे. उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प करेंगे, लेकिन उनके जयंती के उत्साह के बीच आज हम एक नजर डालेंगे इस महानक्रांतिकारी को जन्म देने वाला गांव पर, जो आजादी के 75 सालों बाद भी शासन-प्रशासन की उपेक्षा का शिकार बना है.

तारीख- 3 दिसंबर 1884. जगह- बिहार का सीवान जिला. ये वो दिन था जब बिहार की धरती पर जन्म हुआ एक महान क्रांतिकारी और आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद का. अपने सादे व्यक्तित्व और मृदुभाषी होने के चलते उन्हें राजनीति के संत की उपाधि मिली. देश में 3 बार राष्ट्रपति की कमान संभालकर उन्होंने नए लोकतांत्रिक भारत को नई दिशा दिखाई. डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की सादगी के कायल आम से लेकर खास तक हर कोई था. आजादी की लड़ाई और आजादी के बाद संविधान निर्माण में दिए उनके अहम योगदान के लिए आज भी देश उन्हें याद करता है. उनके इन्हीं योगदानों को देख उन्हें भारतरत्न भी मिला, लेकिन जिस धरती पर इस महान क्रांतिकारी ने जन्म लिया उसे आश्वासन और बड़े-बड़े दावों के अलावा कुछ नहीं मिला.

देश के प्रथम राष्ट्रपति के जयंति को लेकर देश भर में उत्साह है, लेकिन इस उत्साद के बीच हम कुछ कड़वी सच्चाईयों को भूल रहे हैं. इसी सच्चाई को उजागर करने के लिए न्यूज़ स्टेट बिहार झारखंड की टीम उस गांव में पहुंची जहां इस क्रांतिकारी का बचपन गुजरा. सीवान जिला मुख्यालय से करीब 14 किलोमीटर की दूरी पर जीरादेई गांव है. यहीं बाबू राजेंद्र का जन्म हुआ था. इस गांव के लोग आज भी अपने सपूत को बाबू कहकर बुलाते हैं.

गांव पहुंचने पर सबसे पहले हमारी टीम रेलवे स्टेशन पहुंची. स्टेशन की हालत ठीक-ठाक थी, लेकिन समस्या स्टेशन के रंगरोगन की नहीं बल्कि ट्रेनों के ठहराव की है. इस स्टेशन पर आज भी बड़ी ट्रेनें नहीं ठहरती. इसको लेकर ग्रामीणो ने कई बार आंदोलन भी किया, लेकिन समस्या आज भी जस के तस हैं. बाबू राजेंद्र के पिता फारसी और संस्कृत के विद्वान थे. खुद राजेंद्र प्रसाद ने भी अर्थशास्त्र में MA किया था, लेकिन पूरे देश में शिक्षा की अलख जगाने की बात करने वाले राजेंद्र प्रसाद के गांव में एक लाइब्रेरी भी नहीं है. प्रशासन की ओर से एक लाइब्रेरी खोलने की बात जरूर कही गई थी. इसके लिए ग्रामीणों ने अपना जमीन भी दान दिया, लेकिन आजतक लाइब्रेरी बनाने की दिशा में कोई काम नहीं किया गया.

केंद्र सरकार की ओर से जीरादेई में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पैतृक मकान को पुरातत्व विभाग के सुपुर्द किये जाने के बाद राज्य सरकार ने इसे पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा की थी, लेकिन इस दिशा में भी अब तक कोई कवायद शुरू नहीं हुई है. ग्रामीणों की मानें तो गांव में बिजली, सड़क और पानी के साथ साथ स्वास्थ्य व्यवस्था की कमी है. आलम ये है कि 19 पंचायतों और करीब एक लाख 67 हजार की आबादी वाले इस जीरादेई प्रखंड के लोगों को शिक्षा और चिकित्सा के लिए जिला मुख्यालय जाना पड़ता है.

इस गांव को बीजेपी के पूर्व सांसद ओमप्रकाश यादव ने गोद लिया था, लेकिन गांव को विकास की पटरी पर लाने के लिए क्या काम किए गए हैं. ये तो तस्वीरों से अंदाजा लगाया जा सकता है. हर बार राजेंद्र प्रसाद की जयंति के मौके पर बड़े-बड़े नेता गांव आते हैं. मूर्ति पर माल्यार्पण करते हैं. बड़े बड़े दावे करते हैं और चले जाते हैं. इन दावों पर कभी कोई सुनवाई नहीं होती.

रिपोर्ट : निरंजन कुमार

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