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Maharashtra Crisis : सत्ता के Power Play में कहां चूके CM उद्धव ठाकरे?

महाराष्ट्र के सियासी संकट (Maharashtra Political Crisis) के बाद एक बार फिर इस चर्चा ने जोर पकड़ ली है कि खुद सत्ता के खेल ( Power Play) में शामिल होने या किंग बनने पर किंगमेकर्स को नुकसान ही उठाना पड़ता है.

Updated on: 23 Jun 2022, 07:27 PM

highlights

  • महाराष्ट्र की सियासी उठापटक में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से चूक हुई
  • बाला साहेब ठाकरे के सिद्धांतों से उलट सत्तासीन होने को प्राथमिकता
  • वर्षा बंगला छोड़ने से पहले उद्धव ठाकरे ने बार-बार हिंदुत्व की दुहाई दी

नई दिल्ली:

भारतीय राजनीति के इतिहास ( Indian Political History) में सत्ता में सरकार और सुप्रीमो दो तरह के विशेषणों की चर्चा हमेशा होती रहती है. मौर्य वंश में चाणक्य और चंद्रगुप्त के उदाहरण से देखें तो किंगमेकर और किंग का अंतर स्पष्ट तौर पर सामने आता है. आधुनिक राजनीति में भी सत्ता चलाने वाले और सरकार चलाने वाले को लेकर हमेशा चर्चा होती रहती है. जैसे एनडीए-बीजेपी के शासन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( RSS) की बात हो या यूपीए -कांग्रेस के शासनकाल में दस जनपथ का जिक्र. इसलिए महाराष्ट्र की हालिया सियासी उठापटक ( Maharashtra Political Crisis) में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ( Uddhav Thackeray ) की चूक को शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के दौर से जोड़कर देखा जाने लगा है.

महाराष्ट्र के सियासी संकट के बाद एक बार फिर इस चर्चा ने जोर पकड़ ली है कि खुद सत्ता के खेल ( Power Play) में शामिल होने या किंग बनने पर किंगमेकर्स को नुकसान ही उठाना पड़ता है. यही कारण है कि देश की आजादी के सबसे बड़े नायक महात्मा गांधी लगभग सर्वमान्य होते हुए भी सीधे सत्ता में शामिल नहीं हुए. आजादी के बाद आपातकाल विरोधी आंदोलन के सबसे बड़े नेता संपूर्ण क्रांति का नारा देने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण सरकार में नहीं बैठे. देश में बहुजन राजनीति की शुरुआत करने वाले कांशीराम ने शासन में कोई पद नहीं लिया. ये सभी महापुरुष देश में बड़ी सामाजिक और राजनीतिक बदलाव को लाने वाले रहे.

सत्ता में आने से बड़े नुकसान के उदाहरण

दूसरी ओर, सत्ता में शामिल होने वाले ऐसे कई उदाहरण भी भारतीय राजनीति में मौजूद हैं जिन्होंने सत्ता में शामिल होने के बाद नुकसान उठाया. सीधे प्रधानमंत्री बनने वाले समाजवादी नेता चंद्रशेखर को पद गंवाने के बाद इसका अहसास हुआ था. कर्नाटक के बड़े नेता एचडी देवेगौड़ा और नौकरशाही से सरकार में आने वाले इंद्र कुमार गुजराल भी इसकी मिसाल के तौर पर देखते हैं. इनकी राजनीति को बाद में नुकसान ही हुआ. साल-डेढ़ साल-दो साल की सफलता बाकी राजनीति पर भारी पड़ी. 

उद्धव ठाकरे की राजनीतिक फिसलन

महाराष्ट्र के हालिया सियासी संकट के लिहाज से देखें तो शिवसेना प्रमुख और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से पहली चूक तो यहीं हुई कि उन्होंने बाला साहेब ठाकरे के सिद्धांतों से उलट खुद सत्तासीन होने को प्राथमिकता दी. अपनी सरकार में बेटे आदित्य ठाकरे को भी महत्वपूर्ण विभाग का मंत्री बनाया. उनकी दूसरी चूक पार्टी के सबसे पुराने और स्वाभाविक मित्र राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी से दोस्ती चुनाव परिणाम के बाद तोड़ ली. तीसरी चूक की इसके लिए अपनी पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं, समर्थकों, प्रशंसकों और वोटरों या राज्य की जनता तक अपने तर्क स्थापित नहीं कर पाए.

हिंदुत्व से दूरी के कई उदाहरण

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक उद्धव ठाकरे की चौथी और सबसे बड़ी चूक उनकी पार्टी के कोर वैल्यू हिंदुत्व से दूरी बरतने को लेकर सामने आया. पालघर में दो साधुओं की हत्या का मामला, औरंगजेब के मजार का मामला, मस्जिदों पर लाउडस्पीकर का मामला, नवनीत राणा दंपति के साथ हनुमान चालीसा को लेकर विवाद में राजद्रोह का मुकदमा, औरंगाबाद का नाम बदलकर संभाजी नगर रखने को लेकर विवाद, हिंदू विरोधी छवि वाले परमबीर सिंह को कमिश्नर बनाना, हिंदुत्व के मुद्दे पर मुखर बॉलीवुड की अभिनेत्री कंगना रानौत के ऑफिस पर बीएमसी के बुलडोजर वगैरह की घटनाओं ने उद्धव ठाकरे को शिवसेना के हिंदुत्व के मूल्य से दूर दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

सावरकर को निशाना बनाने पर चुप्पी

सियासी दुष्चक्र में फंस जाने के बाद और वर्षा बंगला छोड़ने से पहले उद्धव ठाकरे ने अपने भाषण में बार-बार हिंदुत्व की दुहाई दी. शिवसेना के सारे बागी विधायकों और कई सांसदों ने हिंदुत्व से दूरी को लेकर अपनी आपत्तियां जताई है. हिंदुत्व के वैचारिक पुरोधा स्वातंत्र्यवीर सावरकर को लेकर कांग्रेस नेताओं की हल्की टिप्पणियों पर चुप्पी के बावजूद उसके गठबंधन में बने रहने को भी महाराष्ट्र के हिंदुओं खासकर आम शिवसैनिकों ने अच्छा नहीं माना.

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बेमेल राजनीतिक दलों से गठबंधन

बतौर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की आखिरी और अहम चूक के तौर पर बेमेल विचारधारा के गठबंधन को देखा जा रहा है. उनके पिता बाला साहेब ठाकरे ने कभी सीधे सत्ता हाथ में नहीं ली, लेकिन हमेशा सरकार कहलाए. उस परंपरा से उलट उद्धव ठाकरे ने बेमेल गठबंधन किए. कांग्रेस और एनसीपी हमेशा ही शिवसैनिकों के राजनीतिक दुश्मन की तरह देखे जाते थे. इसके नतीजे उद्धव ठाकरे के शिवसैनिकों के साथ इमोशनल बॉन्डिंग कम होने के रूप में सामने आए. इसलिए एकनाथ शिंदे के साथ इतनी बड़ी संख्या में शिवसैनिक गए. मुंबई में इस बगावत की प्रतिक्रिया में कोई उग्र प्रदर्शन नहीं हुआ.