logo-image

Savitribai phule death anniversary: सावित्रीबाई फुले ने शिक्षित होने के लिए किया लंबा संघर्ष, जिंदगी दांव पर लगा प्लेग से लोगों को बचाया

महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में जन्मी सावित्रीबाई फुले के संघर्षों को लोग आज भी याद करते हैं. सामाज को सुधारने और महिलाओं की आवाज बनने तक का उनका सफर बेहद कठिन था.

Updated on: 09 Mar 2023, 08:44 PM

नई दिल्ली:

महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में जन्मी सावित्रीबाई फुले के संघर्षों को लोग आज भी याद करते हैं. सामाज को सुधारने और महिलाओं की आवाज बनने तक का उनका सफर बेहद कठिन था. वे एक दलित परिवार में पैदा हुईं थीं. उनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे और माता का नाम लक्ष्मी था. 10 मार्च को उनकी पुण्यतिथि है.  ऐसे में उनके संघर्षों को यादकर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है. 3 जनवरी 1831 में जन्मी सावित्रीबाई भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं. आजादी से पहले महिलाओं को सामाज में वह स्थान प्राप्त नहीं था. उन्हें दोयम दर्जे में गिना जता था.  उन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं मिला था.  उस समय महिलाओं का स्कूल जाना पाप समझा जाता था.

ऐसे समय में सावित्रीबाई फूले ने जो कर दिखाया वह कोई साधारण बात नहीं है. बताया जाता ​कि उनके स्कूल जाने पर कड़ा विरोध हुआ. उन पर पत्थर बरसाए गए थे. इसके बाद भी वे अपने लक्ष्य नहीं भटकीं. लड़कियों और महिलाओं  को शिक्षा का हक दिलाने की लड़ाई लड़ी. सावित्रीबाई ने पति समाजसेवी महात्मा ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर 1848 में बालिकाओं के लिए स्कूल की स्थापना की थी. 

ये भी पढ़ें: Maharashtra Budget 2023: महाराष्ट्र के बजट की पांच बड़ी बातें, जानें जनता की उम्मीदों पर कितना खरा उतरा 

नौ साल की उम्र में हुआ विवाह 

सावित्रीबाई का विवाह काफी छोटी उम्र में हो गया था. उनकी शादी नौ साल की उम्र में हो गई. शादी के बाद वे अपने पति के संग पुणे चली गईं. उस समय वे पढ़ी-लिखी नहीं थीं. मगर उनके अंदर पढ़ाई की इच्छा बहुत थी. इस मामले में उनके पति ने साथ दिया. उन्हें पढ़ना लिखना सिखाया.  सावित्रीबाई ने अहमदनगर और पुणे में शिक्षक बनने के लिए प्रशिक्षण भी लिया, वह एक योग्य शिक्षिका बन गईं. 

9 छात्राओं के स्कूल स्थापित किया 

3 जनवरी 1848 में पुणे के पास अपने पति साथ मिलकर सावित्रीबाई ने विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ मिलकर स्कूल स्थापित किया. इसके साथ पांच और स्कूल खोले. उस समय की सरकार ने उन्हें इस कार्य के लिए सम्मानित भी किया. 

लोग पत्‍थर मारते, गंदगी फेंकते

उनका जीवन काफी मुश्किल भरा रहा. वह जब स्कूल पढ़ाने जाती थी, तो लोग उन पर पत्थर फेंकते और गंदगी फेंकते थे. उस दौरान वह अपने साथ एक और साड़ी थैले में रखती थीं. इसे वह स्कूल पहुंचकर बदल लेती थींं. उस समय लड़कियों की शिक्षा को अभिशाप माना जाता था. 

सभी सामाजिक मानदंडो को तोड़ते हुए पति का अंतिम संस्कार

सावित्रीबाई के पति ज्योतिराव का निधन 1890 में हो गया. उस समय उन्होंने सभी सामाजिक मानदंडो को तोड़ते हुए पति का अंतिम संस्कार किया. उनकी चिंता अग्नि दी.  इसके करीब चार साल बाद पूरे महाराष्ट्र में प्लेग फैल गया. जब यह बीमारी फैली तो वे प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की मदद के लिए निकल पड़ीं. उस समय जिसे प्लेग होता था, सात दिनों के अंदर सर्दी-जुकाम, सिरदर्द, बुखार ओर उल्टी के बाद दम तोड़ देता था. इस कारण लाखों लोगों की मौत हो गई. उस समय महाराष्ट्र में लोगों की जान बचाने के लिए सावित्रीबाई फुले अपने बेटे डॉ.यशवंत राव फुले के साथ आगे आईं.

उन्होंने पुणे के पास प्लेग पीड़ितों के इलाज के लिए एक क्लीनिक खोला. यहां पर महार बस्ती में एक दस साल के बच्चा प्ले से पीड़ित पाया गया. उस बच्चे को पीठ पर लादकर वे क्लीनिक लाई. उसे इलाज करके बचा लिया. मगर सावित्रीबाई खुद प्लेग की चपेट में आ गईं. 1897 में उनकी मृत्यु हो गई. वहीं 30 अक्टूबर 1905 को उनके बेटे की भी मौत प्लेग से हुई. वे पीड़ितों की लगातार सेवा में जुटे हुए थे.