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70 साल बाद भी लोगों को नहीं है अपने अधिकारों की जानकारी, ईमानदार मं​थन ज़रूरी

अफसोस की ही बात है कि आजादी के 70 साल बाद भी आबादी के बड़े हिस्से को अपने अधिकारों की जानकारी नहीं।

Updated on: 11 Dec 2017, 06:59 PM

नई दिल्ली:

पिछले कुछ दिनों से 'न्यूज़ नेशन- न्यूज़ स्टेट' और 'यूसी न्यूज़' देश के नागरिकों को बुनियादी अधिकारों से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी दे रही है।

वैसे ये अफसोस की ही बात है कि आजादी के 70 साल बाद भी आबादी के बड़े हिस्से को अपने अधिकारों की जानकारी नहीं।

बदकिस्मती ये भी है कि अधिकारों की जानकारी रखने वालों के साथ भी न्याय नहीं हो पाता। ऐसे में मानवाधिकारों की बात करना वक्त की जरूरत है।

कैसे हुई मानवाधिकारों की बात?

दरअसल संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को मानवाधि‍कार घोषणा पत्र को मान्यता दी। इसी के साथ हर साल 10 दिसंबर मानवाधि‍कार दिवस के तौर पर तय किया गया। हालांकि भारत में मानवाधिकार की हिफाजत की बात संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहल से पहले ही शुरू हो चुकी थी।

संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में राज्यों से मानवाधिकार कायम रखने की उम्मीद की गई।

मानवाधिकारों की ​रक्षा करने के लिए ही संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत अदालतों को ताकत दी गई।

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साथ ही मानवाधिकार रक्षा के लिए संविधान ने कानून बनाने के लिए राज्यों को अधिकार दिया।

संविधान लागू होने के कई साल बाद साल 1993 से मानव अधिकार से जुड़ा कानून भी अमल में आया, जिसके तहत 'राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग' जैसी आजाद और मजबूत संस्था वजूद मे आई। इसी के साथ राज्य के स्तर पर भी मा​नवाधिकार आयोग बने।

कैसा रहा सफर?

इसमें कोई शक नहीं कि दुनिया के कई देशों खासकर पड़ोसी मुल्कों के मुकाबले भारत में तस्वीर बेहतर है लेकिन मौजूदा आंकड़ें भी निराश करते हैं।

आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2013 से 2016 तक देशभर में मानवाधिकार उल्लघंन के 3 लाख 30 से ज्यादा मामले दर्ज हुए।

यानि हर दिन औसतन 300 से ज्यादा मामले! मानवाधिकार उल्लघंन के मोर्चे पर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और बिहार की हालत सबसे खराब है। हालांकि 3 लाख 11 हजार मामलों को सुलझाने का दावा भी किया गया है।

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इस साल के शुरूआती महीनों समेत बीते तीन सालों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 1347 मामलों में 28 करोड़ 80 लाख रूपए की आर्थिक मदद की सिफा​रिश की।

98 मामलों में अनुशासनात्मक कार्रवाई जबकि कुल 6 मामलों में अभियोजन की सिफारिश की गई। लेकिन हर दिन मामले तो दर्ज हुए 300 से ज्यादा, जबकि आर्थिक राहत सिर्फ 1347 में, अनुशासनात्मक कार्रवाई महज़ 98 मामलों में, जबकि अभियोजन की सिफारिश केवल 6 मामलों में! आंकड़ें निराश करते हैं।

कैसा मानवाधिकार?

देश में तीन करोड़ से ज्यादा मामले अदालत में लंबित हैं और करोड़ों भारतीय न्याय के इंतजार में। रक्षक माने जानी वाली पुलिस व्यवस्था ही सवालों के घेरे में रही है।

बीते दस सालों में सिर्फ महंगे इलाज के चलते ही 5.5 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे आ चुके हैं। हर दिन करीब 15 हजार लोग!

हालात इतने भयावह हैं कि दुनिया का हर तीसरा गरीब भारत में बसता हैं। हर तीसरा व्यक्ति पढ़ा लिखा नहीं।

गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण झेलती आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी बुनियादी जरूरतों से महरूम है।

बेशक बीते 70 सालों में कई मोर्चो पर हालात सुधरे हैं, लेकिन अभी भी मानवाधिकार की मौजूदा तस्वीर पर ईमानदार मंथन जरूरी है।

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