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कश्मीर में अलगाववादी एजेंडे को बढ़ावा देगा अफगानिस्तान में तालिबान राज

आईएस-के ने तालिबान के वर्चस्व को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है और एक लंबी लड़ाई में शामिल होने के लिए तैयार है.

Updated on: 03 Sep 2021, 03:06 PM

नई दिल्ली:

अफगानिस्तान में तालिबान के उदय ने पाकिस्तान में कुछ तत्वों को तालिबान की जीत को कश्मीर के प्रवेशद्वार के रूप में भी चित्रित करने का अवसर दिया है. उनकी कल्पनाओं की वजह से भले ही दंगे हो रहे हों, लेकिन हकीकत यह है कि अफगानिस्तान की घटनाएं पाकिस्तान के लिए उतनी मददगार नहीं हो सकतीं, जितना वह दावा कर रहा है. लेकिन वह तालिबान के उदय का इस्तेमाल अलगाववादी एजेंडे को हवा देने के लिए 'कश्मीर में इस्लामी भावनाओं को भड़काने' के लिए कर सकता है. हालांकि 2020 में अमेरिका और तालिबान द्वारा हस्ताक्षरित शांति समझौते की शर्तो में से एक यह थी कि उसे सभी आतंकी समूहों से संबंध तोड़ लेने चाहिए और अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए नहीं करने देना चाहिए और क्या, तालिबान इस पर कायम रहेगा, यह 10 लाख डॉलर का सवाल है.

तालिबान के सामने हैं कई चुनौतियां
तालिबान के सामने कई चुनौतियां हैं. सरकार बनाने, उसे चलाने, उसे बनाए रखने और कई अन्य उग्र समूहों से बचाने के लिए उसके संघर्ष इतने अधिक हैं कि वह अपने कश्मीर मिशन में पाकिस्तान को अपनी मदद निर्यात नहीं कर सकता. तालिबान ने पंजशीर प्रांत को छोड़कर पूरे अफगानिस्तान को अपने नियंत्रण में ले लिया है, लेकिन यह इस्लामिक स्टेट-खोरासन और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) है, जो इसे बनाए रखने की क्षमता रखता है. आईएस-के ने तालिबान के कब्जे के बाद से काबुल हवाईअड्डे पर कई हमले शुरू करके तालिबान को पहले ही चुनौती दी है. आईएस-के ने तालिबान के वर्चस्व को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है और एक लंबी लड़ाई में शामिल होने के लिए तैयार है, जिसके परिणामस्वरूप अफगानिस्तान में गृहयुद्ध हो सकता है और पड़ोसी देशों में समस्याएं पैदा हो सकती हैं. खोरासान में पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के कुछ हिस्से शामिल हैं. अब जबकि अमेरिका नहीं है, आईएस-के को लगता है कि उसके पास तालिबान से मुकाबला करने का अवसर है.

टीटीपी भी दे रहा त्रिकोणीय निहितार्थ
तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) या पाकिस्तान तालिबान का तालिबान के साथ स्थिति और समय के आधार पर एक अलग संबंध रहा है. पाकिस्तान इसे सबसे खतरनाक आतंकी संगठनों में से एक मानता है. जैसे ही तालिबान अफगानिस्तान में अपना आक्रमण शुरू कर रहा था, टीटीपी उत्तरी वजीरिस्तान में हमले कर रहा था. वह एक स्वतंत्र राज्य चाहता है, जिसमें पाकिस्तान के कबायली इलाके शामिल हों, जो दशकों से पाकिस्तान की सत्ता पर काबिज हैं. टीटीपी के उइगर समूहों के साथ भी संबंध हैं और उसने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे से जुड़े चीनी श्रमिकों को निशाना बनाया है. चूंकि चीन तालिबान का समर्थन कर रहा है, इसलिए टीटीपी को नियंत्रित करना एक कठिन काम होगा. तालिबान जो पूर्ववर्ती अफगान सरकारों के लिए था, आईएस-के और टीटीपी तालिबान के नए शासन के लिए सिरदर्द हो सकते हैं.

कश्मीर से ज्यादा पाकिस्तान 
अफगानिस्तान को अक्षुण्ण रखना और उसे चलाना तालिबान के लिए सबसे बड़ी चुनौती है और कश्मीर में 'जिहाद' के लिए अपने आदमियों को बख्शने के आगे उसके लिए चुनौतियां बहुत अधिक हैं. हालांकि यह महसूस करना कि कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को एक नया धक्का मिल सकता है, निराधार नहीं है. पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर घुसपैठ और ड्रोन हमले समेत गतिविधियों को बढ़ाएगा, लेकिन तालिबान के पुनरुत्थान और 'आक्रमणकारी अमेरिका' के खिलाफ उसकी 'सफल' लड़ाई के संबंध में मुस्लिम भावनाओं को भड़काना अधिक खतरनाक है. दशकों से कश्मीर में युवाओं का कट्टरपंथ सुरक्षा बलों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय रहा है. और यही उन तत्वों के काम आता है जो अलगाववादी एजेंडे को हवा देने के लिए चौबीसों घंटे काम कर रहे हैं.

इस्लामी भूमि की मुक्ति का नारा
अल-कायदा ने कश्मीर और अन्य तथाकथित इस्लामी भूमि की 'मुक्ति' का आह्वान किया है. यह घाटी में और अधिक सुरक्षा चुनौतियों का सामना कर सकता है. इस अर्थ में कि जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा घाटी में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ा सकते हैं, ताकि महाशक्ति अमेरिका पर तालिबान की जीत की बढ़ती भावनाओं को भुनाया जा सके. अगर तालिबान अमेरिका को उखाड़ फेंक सकता है, तो कश्मीर में ऐसा क्यों नहीं हो सकता - यह भावना शायद इन आतंकी संगठनों और उनके संरक्षक के लिए नया हथियार बन जाएगी, जैसा कि अल-कायदा ने झंडी दिखाकर किया है.

भारत के लिए चुनौतियां
2020 में अमेरिका और तालिबान द्वारा हस्ताक्षरित शांति समझौते की शर्तो में से एक यह थी कि उसे सभी आतंकी समूहों से संबंध तोड़ लेने चाहिए और अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए नहीं करने देना चाहिए और क्या, तालिबान इस पर कायम रहेगा, यह 10 लाख डॉलर का सवाल है. 2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर का प्रशासन सीधे अपने हाथों में ले लिया और कई वादे किए गए. हालांकि स्थानीय निकाय चुनावों के आयोजन से राजनीतिक गतिविधि बहाल हो गई है, लेकिन अलगाव की भावना कम नहीं हुई है. अफगानिस्तान में तालिबान का उदय पाकिस्तान की आईएसआई के लिए फिर से कश्मीरी मुसलमानों की धार्मिक संवेदनाओं पर काम करने के लिए चारा है और यही अब भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के लिए चुनौती है.