आजादी की लड़ाई में हिंदी भाषा और हिंदुस्तानी सोच की भूमिका
सुंदरलाल ने भी हिंदुस्तानी को बढ़ावा देने का काम किया. गांधी मुसलमानों के रहन-सहन, उनकी स्वीकार्यता को लेकर उदार थे, अपने प्रवचनों, अपनी बातचीत में वे हिंदुओं और मुसलमानों में एकता देखना चाहते थे.
highlights
- महात्मा गांधी ने हमेशा संवाद के लिए हिंदी को चुना
- हिंदुस्तानी लहजे को हमेशा माना सर्वश्रेष्ठ
नई दिल्ली:
बिना अपनी भाषा या भाषाओं के कोई भी देश गूंगा है. फर्ज कीजिए भारत के हिंदी भाषी प्रदेशों में सब जगह अंग्रेजी फैल जाए, सब अंग्रेजी बोलते मिलें, गांव, कस्बे, शहर सब जगह केवल अंग्रेजी हो; तो यह देखकर क्या किसी भारत का आभास होगा. क्या इससे भारतीय संस्कृति का अहसास होगा. नहीं. इससे धीरे- धीरे भारतीयता और भारतीय संस्कृति के विलोपन का अहसास होगा. यही वजह है कि महात्मा गांधी हिंदी और हिंदुस्तानी के समर्थक थे. सुंदरलाल ने भी हिंदुस्तानी को बढ़ावा देने का काम किया. गांधी मुसलमानों के रहन-सहन, उनकी स्वीकार्यता को लेकर उदार थे, अपने प्रवचनों, अपनी बातचीत में वे हिंदुओं और मुसलमानों में एकता देखना चाहते थे.
हिंदी और उर्दू भाषा
उर्दू भी मुगल शासन के दौरान फूली फली किंतु हिंदुस्तान के विकास में उर्दू का भी अपना योगदान है, वे इस बात को नहीं भूलते थे. वे जानते थे कि उर्दू जो हिंदी में सदियों से घुली-मिली है उसे आत्मसात किया जाए और एक ऐसी भाषा विकसित की जाए जिससे आम आदमी उसे समझ सके, उसे बरत सके. गांधी जी खुद गुजराती थी, अंग्रेजी माध्यम से उच्च तालीम ली किंतु बरसों अफ्रीका में काम करने व बैरिस्टरी करने के बावजूद उनके अंत:करण में हिंदी, हिंदुस्तानी व भारतीयता के प्रति एक खास लगाव था. उन्होंने अपनी पेशेवर जिंदगी में कोट बूट सूट टाई सब अपनाई पर अंत में धोती लंगोटी में अपना कायांतरण कर भारत के प्रबुद्ध लोगों के साथ आम आदमी को यह सीख दी कि भारत यही है. धोती और लंगोटी वाला देश. दिल्ली के कनाट प्लेस में स्थित खादी ग्रामोद्योग भंडार में प्रवेश करते ही दाईं ओर बिल काउंटर पर देश के महान नेताओं के विचार उनकी ही भाषा में लिखे हैं और यह खुशी की बात है कि एकाधिक नेताओं को छोड़ कर सभी के विचार हिंदी में हैं. हुकूमत की भाषा का अपना रोड रोलर होता है. अंग्रेजी का रोडरोलर भारतीय भाषा भाषियों पर चला, आज भी चल रहा है. आज भी वह भारत की राजभाषा है जिसे 1965 में खत्म हो जाना चाहिए था तथा हिंदी को उसकी जगह मिल जानी चाहिए थी. गांधी अंग्रेजी जानते थे और अच्छी जानते थे. पंडित जवाहर लाल नेहरू तो अंग्रेजी के ज्ञाता थे ही. पर इन दोनों नेताओं ने जनता को अक्सर हिंदी में संबोधित किया. वे हिंदी का महत्व जानते थे. कहना न होगा कि 14 सितंबर 1949 को जिस भाषा को संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया, वह कोई एक सदी की भाषा नहीं, बल्कि वह तो सदियों की बोली जाने वाली भाषा रही है.
गांधी और हिंदुस्तानी
खड़ी बोली में लेखन का इतिहास भले एक डेढ़ सदी पुराना हो, पर लेखन में हिंदुस्तानी लहजा सदियों पुराना है. सूरदास, कबीर, तुलसीदास, नानक, रैदास, मीरा ने जिस भाषा में लिखा, वह कोई संस्कृतनिष्ठ हिंदी नहीं, बल्कि आम लोगों की समझ में आने वाली हिंदी थी. यही वजह है कि सदियों पहले लिखे गए संत साहित्य का प्रसार पूरे देश में तब हुआ जब संचार का आज जैसा कोई त्वरित साधन न था. इन संतों को यह समझ थी कि हिंदी – हिंदुस्तानी में लिख कर पूरे देश में पहुंचा जा सकता है, किसी अन्य भाषा में नहीं. एक प्रवचन में गांधी ने हिंदुस्तानी की हिमायत में यह बात कही कि हमारे यहां हिंदी और उर्दू ये दो भाषाएं हैं जो हिंदुस्तान में बनीं और हिंदुस्तानियों द्वारा बनाई गयी हैं. उनका व्याकरण भी एक ही रहा है. इन दोनों को मिलाकर मैंने हिन्दुस्तानी चलाई. इस भाषा को करोड़ों लोग बोलते हैं. यह एक ऐसी सामान्य भाषा है जिसे हिंदू और मुसलमान दोनो समझते हैं. यदि आप संस्कृतमय हिंदी बोलें या अरबी फारसी के शब्दों से भरी हुई उर्दू बोलें, जैसा कि प्रो.अब्दुल बारी बोलते थे तो बहुत कम लोग उसे समझेंगे. तो क्या हम द्राविड़स्तान की चारों भाषाओं का अनादर कर दें. मेरा मतलब यह है कि वे मातृभाषा के तौर पर अपनी अपनी प्रांतीय भाषा को रख सकते हैं, मगर राष्ट्रभाषा के नाते हिंदुस्तान को जरूर सीख लें.
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