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दिल्ली की तर्ज पर EU के किसान ट्रैक्टर संग सड़कों पर, तेजी से फैल रहा आंदोलन

यूरोपीय संघ के किसान आंदोलन को नीदरलैंड से हवा मिली है. नीदरलैंड सरकार जून में एक नीति लेकर आई है, जिसके तहत 2030 तक नाइट्रोजन ऑक्साइड और अमोनिया के उत्सर्जन में 50 से 70 फीसदी कमी लाने का लक्ष्य रखा गया है.

Updated on: 11 Jul 2022, 12:38 PM

highlights

  • नीदरलैंड से शुरू किसान आंदोलन पोलैंड, इटली, स्पेन और जर्मनी समेत कई देशों में फैला
  • डच सरकार ने नाइट्रोडन ऑक्साइड और अमोनिया उत्सर्जन कम करने की बनाई कड़ी नीति
  • आंदोलन से विश्व खाद्य श्रंखला पर असर पड़ने से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगी दोहरी मार

नई दिल्ली:

दिल्ली की सीमाओं पर चले लंबे किसान आंदोलन (Farmers Protest) की तर्ज पर यूरोपीय संघ (European Union) भी इन दिनों व्यापक किसान आंदोलन देख रहा है. किसान ट्रैक्टर के साथ सड़कों पर उतर कर राजमार्ग जाम कर रहे हैं. सरकारी विभागों के सामने धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं. सुपर मार्केट को जाने वाले रास्ते अवरुद्ध कर रहे हैं. इस दौरान हजारों की तादाद में एकत्र किसान सरकार के खिलाफ 'हमारे किसान हमारा भविष्य' जैसे नारे लगा रहे है. ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली की सीमा पर डटे किसानों का नारा था 'किसान नहीं खाना नहीं'. यूरोपीय संघ के किसान खेती और पशुपालन पर थोपे गए प्रतिबंधों को लेकर आक्रोशित हैं. इस किसान आंदोलन की शुरुआत नीदरलैंड (Netherland) से हुई, जहां ट्रैक्टर सवार किसानों ने नीदरलैंड-जर्मनी हाईवे बीते सोमवार को जाम कर दिया. यूरोपीय संघ में किसानों के इस आंदोलन से फूड सप्लाई चेन पर नकारात्मक असर पड़ेगा. रूस-यूक्रेन युद्ध (Russia Ukraine War) से ऊर्जा संकट झेल रही वैश्विक अर्थव्यवस्था पर यह दोहरी मार होगी.

नीदरलैंड से शुरू हुआ किसान आंदोलन
यूरोपीय संघ के किसान आंदोलन को नीदरलैंड से हवा मिली है. नीदरलैंड सरकार जून में एक नीति लेकर आई है, जिसके तहत 2030 तक नाइट्रोजन ऑक्साइड और अमोनिया के उत्सर्जन में 50 से 70 फीसदी कमी लाने का लक्ष्य रखा गया है. डच सरकार का मानना है कि नाइट्रोजन ऑक्साइड और अमोनिया के उत्सर्जन ने नीदरलैंड को यूरोपीय संघ का बड़ा प्रदूषक देश बना रखा है. ऐसे में खेती और पशुपालन को सीमित कर नीदरलैंड सरकार देश की हवा, मिट्टी और पानी की गुणवत्ता में सुधार लाना चाहती है. इस कड़ी में डच सरकार ने किसानों को नाइट्रोजन वाले उर्वरकों का इस्तेमाल बंद करने को कहा है. इसको नहीं मानने पर किसानों को खेती करने से रोका जा सकता है. डच सरकार ने उत्सर्जन कम करने के लिए 22 बिलियन पौंड की कार्ययोजना तैयार की है. डच सरकार के इस फैसले को देख यूरोपीय संघ के अन्य देशों के किसानों को भी ऐसे ही नियमों की आशंका सता रही है. 

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श्रीलंका जैसे हो जाएंगे यूरोपीय संघ के कई देश 
किसानों के फैलते आंदोलन को देख यूरोपीय संघ के देशों के समक्ष अपनी खाद्य सुरक्षा और हरित पर्यावरण के बीच संतुलन बैठाने की बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है. अगर इस चुनौती से पार पाने में यूरोपीय संघ विफल रहता है, तो इसका असर वैश्विक खाद्य श्रंखला पर पड़ना तय है. इसकी वजह से कई देशों को आथिक मंदी का सामना करना पड़ सकता है, जो पहले से ही ईंधन की आसमान छूती कीमतों से परेशान हैं. गौरतलब है कि अमेरिका और कई अन्य पश्चिमी देशों के रूस पर थोपे गए प्रतिबंधों से कच्चे तेल की आवक का वैश्विक असर पड़ा है. ऐसे में पश्चिमी एशिया के तेल उत्पादक देशों ने उत्पादन आधा कर भारी कीमत पर कच्चे तेल की आपूर्ति शुरू कर दी है. इस किल्लत से उपजी महंगाई के बाद यदि खाद्य आपूर्ति श्रंखला प्रभावित होती है, तो छोटी अर्थव्यवस्था वाले देश डूब जाएंगे. सरल शब्दों में कहें तो श्रीलंका संकट जैसी स्थिति अन्य महाद्वीपों के तमाम देशों में आ खड़ी होगी.

यूरोपीय संघ के इन देशों में फैला किसान आंदोलन
हाल-फिलहाल तो नीदरलैंड से शुरू किसान आंदोलन की लहर जर्मनी, इटली, स्पेन और पोलैंड को अपनी चपेट में ले चुकी है. वहां भी हजारों की संख्या में किसान अपने-अपने ट्रैक्टर्स के साथ सड़कों पर उतर आए हैं. सड़कों पर उतर कर इन देशों के किसान नीदरलैंड के किसानों को अपना-अपना समर्थन दे रहे हैं. 6 जून को जर्मनी के किसानों ने नीदरलैंड-जर्मनी सीमा से लगी सड़कों को जाम कर दिया. इसके साथ ही किसानों का एक बड़ा जत्था हेरेनबर्ग में प्रदर्शन कर रहा था. इटली के किसानों ने ग्रामीण इलाकों में बड़ी संख्या में प्रदर्शन कर अपने-अपने ट्रैक्टर्स का मुंह शहरी इलाकों की तरफ करने की चेतावनी दे दी है. पोलैंड के किसान ऊंची ब्याज दरों के खिलाफ सड़कों पर हैं, जिसका असर उनकी उत्पादन क्षमता पर पड़ रहा है और उनके समक्ष आजीविका का संकट उत्पन्न हो गया है. ईंधन की बढ़ती कीमतों की आंच स्पेन तक पहुंच चुकी है, जहां आंदोलनरत किसान हाईवे जाम कर रहे हैं. 

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वैश्विक अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार
चूंकि यूरोपीय संघ के किसानों का आंदोलन भारत के किसान आंदोलन से प्रेरणा ले रहा है, तो यूरोपीय संघ की संसद ने किसानों को शांत करने के लिए भारत की चीनी सब्सिडी की निंदा करता एक प्रस्ताव पारित कर दिया है. इस प्रस्ताव में भारत की सब्सिडी को विश्व व्यापार संगठन समझौते के विपरीत बता कहा गया कि यूरोपीय संघ अपने किसानों के साथ है. इससे यूरोपीय शर्कर उद्योग को थोड़ी राहत तो मिली है, लेकिन उनका आंदोलन खत्म नहीं हो रहा है. अगर आंकड़ों की भाषा में कहें तो नीदरलैंड का कृषि उद्योग यूरोपीय संघ के कुल प्रदूषण का 45 फीसदी नाइट्रोजन उत्सर्जन करता है. इसे कम करने के लिए नीदरलैंड सरकार जो नीतियां लाई है, उससे तमाम किसानों को अपनी खेती आधी करनी पड़ जाएगी. हालांकि डच सरकार फार्म हाउसिंग और टेक्नोलॉजी में बड़ा निवेश कर रही है, लेकिन उसके पास यह अधिकार है कि वह नियमों की अवहेलना करने खेती किसानी की जमीन जब्त कर ले. डच सरकार 2030 तक कम से कम 30 प्रतशित तक खेती किसानी कम करना चाहती है. जाहिर है नीदरलैंड के किसान अपने भविष्य को लेकर आशंकित हो गए हैं और उनके साथ-साथ यूरोपीय संघ के अन्य देश के किसान भी. इसकी परिणति ईंधन की ऊंची कीमतों के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार होगा.