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कांग्रेस: गांधी परिवार का स्वामित्व और क्षेत्रीय नेताओं की राजनीति

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस या फिर कांग्रेस जैसे आप सरल भाषा में समझ लें, कुछ ऐसा ही सोचते होंगे आप भी लेकिन ऐसा है नहीं.

Updated on: 22 Sep 2021, 08:00 PM

नई दिल्ली:

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस या फिर कांग्रेस जैसे आप सरल भाषा में समझ लें, कुछ ऐसा ही सोचते होंगे आप भी लेकिन ऐसा है नहीं. स्थापना के समय की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में हुई थी, पार्टी के अंदर इतना खुला पन था कि दो विचारों को एक साथ पिरोए पार्टी लगातार अंग्रेजों का विरोध करती रही. 1907 में पार्टी में दो वैचारिक दल बन गए थे, गरम दल और नरम दल. गरम दल जिसकी अगुवाई बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं बिपिन चंद्र पाल (लाल-बाल-पाल ) कर रहे थे और नरम दल को गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता एवं दादा भाई नौरोजी आगे बढ़ा रहे थे.

एक तरफ गरम दल पूर्ण स्वराज की मांग कर रहा था तो नरम दल ब्रिटिश राज में स्वशासन चाहता था. 1919 में जलियांवाला कांड के बाद बापू कांग्रेस के महासचिव बनाए गए (तब तक बापू चंपारण आंदोलन को सफल बना कर महात्मा की "उपाधी" से जाने लगे थे) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक जनसमुदाय संस्था बन गई. फिर आजादी के लिए संघर्ष करने वाले नेताओं की एक नई पीढ़ी आई सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, महादेव देसाई और सुभाष चंद्र बोस जैसे नाम थे.

1947 में देश आजाद हुआ और फिर धीरे-धीरे शुरू हुई सत्ता और उसके इर्द-गिर्द रहने की होड़ जिसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को कांग्रेस बनाया. जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी और फिर राजीव गांधी काँग्रेस पार्टी से निकले वो बड़े नाम हैं, जिन्होंने इस देश की रूप-रेखा बदली.

1978 में कांग्रेस की कमान दूसरी बार इंदिरा गांधी ने अपने हाथ में ली थी, बीते 43 साल में महज 6 साल पार्टी की अध्यक्ष्ता गांधी परिवार से बाहर के किसी राजनेता ने की है. 2014 के बाद से बदले राजनीतिक समीकरणों ने तो कांग्रेस को हाशिए पर धकेला के साथ ही गांधी परिवार की सार्थकता और नेतृत्व पर भी सवाल खड़े कर दिए है.

2019 के लोकसभा चुनाव में बमुश्किल 52 सीटें और महज़ पांच राज्यों में (तीन राज्यों में कांग्रेस औऱ दो में गठबंधन) सत्ता पा सकने वाली पार्टी बन चुकी कांग्रेस अब गांधी परिवार का स्वामित्व और क्षेत्रीय नेताओं की राजनीति के बीच कहीं उलझ चुकी है, कांग्रेस पार्टी में गांधी परिवार तले उम्र गुज़ार चुके क्षेत्रीय नेता अब अपनी उस कुर्बानी का पुरस्कार चाहते हैं तो वहीं आलाकमान अपने वफादारों को विद्रोही बनता देख समझ नहीं पा रहा कि चूंक कहां हुई.

पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में क्षेत्रीय नेतृत्व में जबरदस्त कलह है तो वहीं हरियाणा में सत्ता ना होने पर भी आसार वैसे ही हैं और मध्य प्रदेश तो कांग्रेस के हाथ से गया ही अपनी पार्टी में टूट की वजह से. पंजाब में कांग्रेस आलाकमान की नई रणनीति बदलेगी कई और राज्यों के समीकरण. पंजाब में आलाकमान ने पिछले पांच सालों से चला आ रहा गतिरोध खत्म तो कर दिया लेकिन कीमत के तौर पर कैप्टन जैसे पुराने वफादार औऱ मंझे हुए राजनेता को गंवा देना पड़ा.

अब सही मायनों में समझा जाए तो पंजाब के असली बॉस नवजोत सिंह सिद्धू हैं और उनकी शह पर कुर्सी पर चरणजीत सिंह चन्नी को बैठाया गया है जोकि पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री बने हैं. पंजाब में 32% से अधिक आबादी दलित मतदाताओं की है, अब इसे एक महत्वपूर्ण कारक माना जाए या फिर आलाकमान का क्षेत्रीय नेताओं को किनारे करने का तरीका इसका जवाब तो आने वाले वक्त में खुद ही मिल जाएगा. लेकिन, सच तो यही है कि गांधी परिवार अब इन पुराने क्षेत्रीय नेताओं को ठिकाने लगाने और राहुल गांधी की मनपसंद नई टीम खड़ी करने में लग गया है.

हरियाणा, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में दो-तीन या इससे भी ज्यादा धड़े सक्रिय हैं

  1. हरियाणा में भले ही सरकार कांग्रेस की ना हो लेकिन खेमेबंदी कम नहीं है, पूर्व मुख्यमंत्री और नेता विपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ खुलकर खेमेबाजी हो रही है जिसकी धुरी में कुमारी शैलजा हैं और हुड्डा खुद इसे समझते भी हैं, लेकिन अब जिस दलित कार्ड को आलाकमान ने पड़ोसी राज्य में खेला है उसमें कुमारी शैलजा औऱ कुलदीप बिश्नोई जैसे नाम मुफीद बैठते हैं.
  2. राजस्थान में सरकार बनने के पहले दिन से अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच कद की लड़ाई रही है, जिसमें अभी तक गहलोत अपने तजुर्बे के दम पर इक्कीस ही साबित हुए हैं, लेकिन पिछड़ों को नेतृत्व देने की राह पर चल पड़ा कांग्रेस आलाकमान आखिर कब तक गुर्जर समाज से आने वाले सचिन पायलट की नाराजगी को दरकिनार करता रहेगा या फिर यहां भी चुनाव से ठीक पहले सत्ता की तस्वीर को बदल दिया जाएगा जो कि पायलट गुट को बनाए रखने का एकमात्र तरीका है.
  3. कमोबेश कुछ ऐसा ही हाल छत्तीसगढ़ का भी है ढाई-ढाई साल के फॉर्म्यूले पर छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के गुटों ने राज़ीनामा किया और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, अब ढ़ाई साल बीत चुके हैं तो टीएस सिंहदेव अपने राज़ीनामे के तहत अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं, लेकिन भूपेश बघेल भी क्या करें किसी समझदार इंसान ने क्या खूब कहा है "राज और खाज अपने हाथ से ही अच्छे लगते हैं" और भूपेश बघेल ठहरे पूरे कांग्रेसी तो वह भला हाथ आई कुर्सी को क्यों छोड़ दें वो भी इतनी सरलता से.

तो क्या सच में गांधी परिवार का स्वामित्व और क्षेत्रीय नेताओं की राजनीति के बीच की खाई को पाट पाना अब संभव है, क्योंकि इस फहरिस्त में वह सब नाम शुमार हैं जिन्होंने गांधी परिवार से आने वाले अपने माननीय नेताओं के लिए लाठियां भी खाई हैं और जिंदगी के कई दिन जेलों में भी बिताए हैं, तब गांधी परिवार सत्ता की धुरी था आज एक अदद विपक्ष बनने को मोहताज है.

अर्श से फर्श तक आते आते कुछ-एक साथी जो बचे हैं अब उन्हें साथ में रख पाना भी कांग्रेस के लिए इतना जटिल हो गया है कि बचपन की उस पहेली की याद दिला देता है जिसमें किसान था जिसके पास एक नाव थी, एक शेर, एक बकरी और कुछ घास और एक बार में केवल एक ही चीज़ नाव से पार कर सकता था.