logo-image

सूर्योपासना : लोकल से ग्लोबल की ओर बढ़ता छठ महापर्व    

समान्यतया “छठ महापर्व” बिहार में मनाया जानेवाला चार दिवसीय पर्व है लेकिन अब यह बिहार का न रह कर  देश के अधिकांश राज्यों में  मनाया जाने लगा है.

Updated on: 10 Nov 2021, 04:15 PM

highlights

  • छठ पर्व की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सादगी है
  • प्रकृति पूजा का एक महान पर्व है छठ
  • छठ पर्व लैंगिक समानता का उदाहरण है

नई दिल्ली:

आज छठ पर्व है. देश भर में नदियों के किनारे श्रद्धालु छठ पूजा मनाने को इकट्ठा हैं. बिहार के कुछ जिलों परंपरागत रूप से मनाया जाने वाला सूर्योपासना का यह पर्व अब महपर्व का रूप ले लिया है. लोक आस्था का महापर्व छठ, जो प्रकृति पूजा का एक महान पर्व है अब वह सिर्फ लोकल ही नहीं रह गया गया बल्कि पूरे विश्व में मनाया जाने वाला पर्व बन गया है. समान्यतया “छठ महापर्व” बिहार में मनाया जानेवाला चार दिवसीय पर्व है लेकिन अब यह बिहार का न रह कर  देश के अधिकांश राज्यों में  मनाया जाने लगा है. अगर हम छठ मनाने की पद्धति पर गौर करें तो पाते हैं कि यह एक ऐसा पर्व है जिसमें कहीं भी किसी बाजार उत्पाद की आवश्यकता नहीं होती है. आज अगर किसी विशुद्ध “देशज” पर्व की बात करें तो उसमें छठ पूजा का स्थान अप्रतिम है. 

इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सादगी है जो किसी भी तड़क भड़क से मुक्त सिर्फ आस्था से परिपूर्ण है. इस पर्व को करनेवाली को “पर्वयती” कहते हैं जो 36 घंटे निर्जला रहकर इस वर्त का “पारण” के साथ समापन करती है. इससे पूर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि को “नहाय-खाय” या “कद्दू-भात” से प्रारम्भ होता है, फिर पंचमी को “खरना” या “लोहंडा” और षष्ठी को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य एवं सप्तमी को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. यह पर्व अपने परिवारजनों के आरोग्य एवं कल्याण के लिए किया जाता है.  संतान के लिए किए जानेवाली इस  पूजा में पुत्र और पुत्री के रूप में कोई भी विभेद नहीं किया जाता है.

छठ के गीतों में “रुनकी-झुनकी” शब्दों का प्रयोग कर पुत्री के जन्म की का कामना की जाती है साथ ही पढ़े लिखे दामाद की कामना की जाती है. एक तरह से यह “लैंगिक समानता” का उदाहरण है तो दूसरी तरफ अस्ताचलगामी सूर्य एवं उदीयमान सूर्य दोनों को नदी के जल में खड़े होकर अर्घ्य देते हुए  उनकी पूजा करना कहीं न कहीं “प्रकृति-साम्य” का भी एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है. शायद यह एकमात्र पर्व है जिसमें डूबते हुए सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है. 

यह भी पढ़ें: सिंघु बॉर्डर पर एक और किसान की मौत, फंदे पर लटका मिला शव

इस पूजा में लगने वाली सारी वस्तुएं  गांव में उपलब्ध रहती है. पर्व के पहले दिन “कद्दू-भात” के लिए कद्दू हो या “खरना” के प्रसाद के लिए खीर का चावल हो या गेहूँ का आटा या फिर सूर्य के अर्घ्य के लिए घर का बना हुआ “ठेकूआ” या फल (मुख्यतः गन्ना, मुली, केला इत्यादि) बाँस का “सूप”, “दउरा” ये सभी वस्तुएँ स्थानीय स्तर पर सुगमता से मिल जाती है. स्वाभाविक है कि इन वस्तुओं की उपलब्धता स्थानीय स्तर पर तभी हो सकती है जब व्यक्ति सभी जाति एवं वर्ग के लोगों से जुड़ा रहे जिसके कारण समाज में अपनापन तथा सामूहिकता की भावना को भी  बल मिलता है. साथ ही जिन लोगों के यहाँ छठ नहीं होता है वो लोग भी छठ पूजा में अपनी भागीदारी श्रद्धा के साथ सुनिश्चित करने के लिए लालायित रहते हैं.

बिहार में छठ पूजा का प्रचलन तो प्राचीन काल से ही रहा है जिसके कई ऐतिहासिक साक्ष्य भी मिलते हैं. आज “छठ-पूजा” जो “लोक” का पर्व रहा है उसमें बाजार को प्रवेश कराने का प्रयास किया जाने लगा. बाँस और पीतल के सूप और दउरा की जगह डिजाइनर सूप और दउरा बनाए जाने लगे. जिन संभ्रांत वर्ग के लोगों को छठ पूजा देशज और ग्रामीण परिपाटी की लग रही थी उन्हें भी अब अपनी सोसाइटी में “ठेकूआ” और “दउरा” कहने में होने वाली हिचक समाप्त होने लगी. अन्य लोगों की नज़र में भी छठ पूजा का महत्व बढ़ने लगा और विदेशों तक में छठ पूजा करना “गर्व” और “आस्था” का विषय बन गया जो स्व्भावतः अब बिहारी पर्व की पहचान बन गया है.

छठ-पूजा में बिहार के क्षेत्र विशेष की परंपरा के अनुसार खाने-पीने में थोड़ा बहुत अंतर भी दिखता है, जैसे “खरना” का प्रसाद सामान्य तौर पर “खीर और रोटी” का ही होता है जो लगभग पूरे बिहार में होता है परंतु कुछ जगह जैसे नालंदा, शेखपुरा और नवादा जिले के कुछ भाग में “खरना के प्रसाद” के रूप में अरबा चावल, चने की दाल (सेंधा नमक में) चावल के आटे का पिट्ठा उपयोग किया जाता है. इसलिए कहा जा सकता है कि इस पर्व में परंपरा और व्यावहारिक उपलब्धता को अधिक महत्व दिया जाता है.