गुमनामी में जी रहे भोजपुरी देशभक्ति गायक जंग बहादुर सिंह, पद्मश्री दिए जाने की मांग
अपने समय के नामी भोजपुरी लोक-गायक जंग बहादुर सिंह गुमनामी में जीने को अभिसप्त हैं.साठ के दशक का ख्याति प्राप्त नाम रहा है
नई दिल्ली:
देश अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है और देशभक्तों में जोश भरने-वाले अपने समय के नामी भोजपुरी लोक-गायक जंग बहादुर सिंह गुमनामी में जीने को अभिसप्त हैं. बिहार में सिवान जिले के रघुनाथपुर प्रखण्ड के कौसड़ गांव के रहने-वाले तथा रामायण, महाभारत व देशभक्ति गीतों के उस्ताद भोजपुरी लोक-गायक जंग बहादुर सिंह साठ के दशक का ख्याति प्राप्त नाम रहा है. लगभग दो दशकों तक अपने भोजपुरी गायन से बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तर-प्रदेश आदि राज्यों में बिहार का नाम रोशन करने-वाले व्यास शैली के बेजोड़ लोक-गायक जंगबहादुर सिंह आज 102 वर्ष की आयु में गुमनामी के अंधेरे में जीने को विवश हैं.
10 दिसंबर, 1920 ई. को सिवान, बिहार में जन्में जंगबहादुर पं.बंगाल के आसनसोल में सेनरेले साइकिल करखाने में नौकरी करते हुए भोजपुरी की व्यास शैली में गायन-कर झरिया, धनबाद,दुर्गापुर, संबलपुर, रांची आदि क्षेत्रों में अपने गायन का परचम लहराते हुए अपने जिले व राज्य का मान बढ़ा चुके हैं. जंग बहादुर के गायन
की विशेषता यह रही कि बिना माइक के ही काफी दूर तक उनकी आवाज़ सुनी जाती थी. आधी रात के बाद उनके सामने कोई टिकता नहीं था, मानों उनकी जुबां व गले में सरस्वती आकर बैठ गई हो. खासकर भोर में गाए जाने वाले भैरवी गायन में उनका सानी नहीं थी. प्रचार-प्रसार से कोसों दूर रहने-वाले व ‘स्वांतः सुखाय’ गायन करने-वाले इस अनोखे लोक-गायक को अपना ही भोजपुरिया समाज भूल रहा है.
पहले कुश्ती के दंगल के पहलवान हुआ करते थे जंग बहादुर
जंग बहादुर सिंह शुरू-शुरू में पहलवान थे. बड़े-बड़े नामी पहलवानों से उनकी कुश्तियां होती थीं. छोटे कद के इस चीते-सी फुर्ती-वाले व कुश्ती के दांव-पेंच में माहिर जंग बहादुर की नौकरी ही लगी पहलवानी के दम पर. 22-23 वर्ष की उम्र में अपने छोटे भाई मजदूर नेता रामदेव सिंह के पास कोलफ़ील्ड, शिवपुर कोइलरी, झरिया, धनबाद में आये थे जंग बहादुर. वहां कुश्ती के दंगल में बिहार का प्रतिनिधित्व करते हुए लगभग तीन कुंतल के एक बंगाल की ओर से लड़ने-वाले पहलवान को पटक दिया. फिर तो शेर-ए-बिहार हो गए जंग बहादुर. तमाम दंगलों में कुश्ती लड़े, लेकिन उन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटी कि वह संगीत के दंगल के उस्ताद बन गए.
संगीत के दंगल के योद्धा बने जंग बहादुर
दुगोला (दो गायकों और उनकी टोली के बिच संगीतमय मुक़ाबला) के एक कार्यक्रम में तब के तीन बड़े गायक मिलकर एक गायक को हरा रहे थे. दर्शक के रूप में बैठे पहलवान जंग बहादुर सिंह ने इसका विरोध किया और कालांतर में इन तीनों लोगों को गायिकी में हराया भी. उसी कार्यक्रम के बाद जंग बहादुर ने गायक बनने की जिद्द पकड़ ली. धुन के पक्के और बजरंग बली के भक्त जंग बहादुर का मां सरस्वती ने भी साथ दिया. रामायण-महाभारत के पात्रों भीष्म, कर्ण, कुंती, द्रौपदी, सीता, भरत, राम व देश-भक्तों में चंद्र शेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, वीर अब्दुल हमीद, महात्मा गाँधी आदि कि चरित्र-गाथा गाकर भोजपुरिया जन-मानस में लोकप्रिय हो गए जंग बहादुर सिंह. तब ऐसा दौर था कि जिस कार्यक्रम में नहीं भी जाते थे जंग बहादुर, वहां के आयोजक भीड़ जुटाने के लिए पोस्टर-बैनर पर इनकी तस्वीर लगाते थे.
पहलवानी का जोर पूरी तरह से संगीत में उतर गया था और कुश्ती का चैंपियन भोजपुरी लोक-संगीत का चैंपियन बन गया था. अस्सी के दशक के सुप्रसिद्ध लोक-गायक मुन्ना सिंह व्यास व उसके बाद के लोकप्रिय लोक-गायक भरत शर्मा व्यास तब जवान थे, उसी इलाके में रहते थे और इन लोगों ने जंग बहादुर सिंह व्यास का जलवा देखा था.
देश और देशभक्तों के लिए गाते थे जंग बहादुर सिंह
चारों तरफ आज़ादी के लिए संघर्ष चल रहा था. युवा जंग बहादुर देश-भक्तों में जोश जगाने के लिए घूम-घूमकर देश-भक्ति के गीत गाने लगे. 1942-47 तक आज़ादी के तराने गाने के लिए ब्रिटिश प्रताड़ना के शिकार हुए और जेल भी गए. पर जंग बहादुर रुकने-वाले कहां थे. जंग में भारत की जीत हुई और भारत आज़ाद हुआ. आज़ादी के बाद भी जंग बहादुर महाराणा प्रताप, वीर कुंवर सिंह, महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, चंद्र शेखर आजाद आदि की वीर-गाथा ही ज्यादा गाते थे और धीरे-धीरे वह लोक-धुन पर देशभक्ति गीत गाने के लिए जाने जाने लगे. साठ के दशक में जंग बहादुर का सितारा बुलंदी पर था. भोजपुरी देश-भक्ति गीत माने, भैरवी, रामायण और महाभारत के पात्रों की गाथा गाने का पर्याय बन चुके थे जंग बहादुर.
पर अब उस शोहरत पर समय की धूल की परत चढ़ गई. आज हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, पर जंग बहादुर किसी को याद नहीं हैं. देशभक्ति के तराने गाने-वाले इस क्रांतिकारी गायक को नौकरशाही ने आज तक स्वतंत्रता-सेनानी का दर्जा नहीं दिया. हालांकि इस बात का उल्लेख उनके समकालीन गायक समय-समय पर करते रहे कि जंग बहादुर को उनके क्रांतिकारी गायन की वजह से अंग्रेज़ी शासन ने गिरफ्तार कर जेल भेजा था, फिर भी उन्हें जेल में भेजे जाने का रिकॉर्ड आज़ाद हिंदुस्तान की नौकरशाही को नहीं मिल पाया. मस्तमौला जंग बहादुर कभी इस चक्कर में पड़े भी नहीं.
बहादुर का पारिवारिक जीवन
सन 1970 ई.में टूट गए थे जंग बहादुर, जब उनके बेटे और बेटी की आकस्मिक मृत्यु हुई. धीरे-धीरे उनका मंचों पर जाना और गाना कम होने लगा. दुर्भाग्य ने अभी पीछा नहीं छोड़ा था, पत्नी महेशा देवी एक दिन खाना बनाते समय बुरी तरह जल गई. जंग बहादुर को उन्हें भी संभालना था. वह समझ नहीं पा रहे थे कि राग-सुर को संभाले या परिवार को. उनके सुर बिखरने लगे. जिंदगी बेसुरी होने लगी. सन 1980 के आस-पास एक और बेटे की कैंसर से मौत हो गई. फिर तो अंदर से बिल्कुल टूट गये जंग बहादुर.
अभी दो बेटे हैं, बड़ा बेटा मानसिक और शारीरिक रूप से अक्षम है. बूढ़े बाप के सामने दिन-भर बिस्तर पर पड़ा रहता है. छोटे बेटे राजू ने परिवार संभाल रखा है. वह विदेश रहता है. वयोवृद्ध जंग बहादुर के अंदर और बाहर जंग चलता रहता है. पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं जंग बहादुर. इतने दुख के बाद भी मुस्कुराते रहते हैं और मूछों पर ताव देते रहते हैं. बीते तीस वर्षों से प्रेमचंद की कहानियों के नायक की तरह अपने गांव-जवार में किसी के भी दुख-सुख व जग-परोजन में लाठी लेकर खड़े रहते हैं जंग बहादुर.
मंचीय गायन छोड़ने के बाद भी गांव के मंदिर-शिवालों व मठिया में शिव-चर्चा व भजन गाते रहते हैं जंग बहादुर. समय हो तो जाइए 102 वर्ष के इस वयोवृद्ध गायक के पास बैठिए. हार्ट पैसेंट हैं. डॉक्टर से गाने की मनाही है, फिर भी आपको लगातार चार घंटे तक सिर्फ देश-भक्ति गीत सुना सकते हैं. आज भी भोर में ‘’ घास की रोटी खाई वतन के लिए’’, ‘’ शान से मूँछ टेढ़ी घुमाते रहे ‘’ ..‘’ हम झुका देम दिल्ली के सुल्तान के ‘’/ .. ‘’ गाँधी खद्दर के बान्ह के पगरिया, ससुरिया चलले ना ‘’..सरीखे गीत गुनगुनाते हुए अपने दुआर पर टहलते हुए मिल जायेगें जंग बहादुर सिंह.
लुप्त होती स्मृति में तन्हा जंग बहादुर सिंह
लुप्त होती स्मृति में तन्हा जंग बहादुर सिंह अब बहुत कुछ भूलने लगे हैं. वह अकेले में कुछ खोजते रहते हैं. कुछ सोचते रहते हैं. फिर अचानक संगीतमय हो जाते हैं. देशभक्ति गीत गाते-गाते निर्गुण गाने लगते हैं. वीर अब्दुल हमीद व सुभाष चंद्र बोस की गाथा गाते-गाते गाने लगते हैं कि ‘’ जाये के अकेल बा, झमेल कवना काम के.‘’ विलक्षण प्रतिभा के धनी जंग बहादुर ने गायन सीखा नहीं, प्रयोग और अनुभव से खुद को तराशा है. अपने एक मात्र उपलब्ध साक्षात्कार में जंग बहादुर ने बताया कि उन्हें गाने-बजाने से इस कदर प्रेम हुआ कि बड़े-बड़े कवित्त, बड़ी-बड़ी गाथाएँ और रामायण-महाभारत तक कंठस्थ हो गये. वह कहते हैं, प्रेम पनप जाये तो लक्ष्य असंभव नहीं. लक्ष्य तक वह पहुँचे, खूब नाम कमाया. शोहरत-सम्मान ऐसा मिला कि भोजपुरी लोक-संगीत के दो बड़े सितारे मुन्ना सिंह व्यास और भरत शर्मा व्यास उनकी तारीफ करते नहीं थकते. पर अफसोस कि तब कुछ भी रिकार्ड नहीं हुआ. रिकार्ड नहीं हो तो कहानी बिखर जाती है. अब तो जंग बहादुर सिंह की स्मृति बिखर रही है, वह खुद भी बिखर रहे हैं, 102 वर्ष की उम्र हो गई है. जीवन के अंतिम छोर पर खड़े इस अनसंग हीरो को उसके हिस्से का हक़ और सम्मान मिले.
देश और समाज के लिए जंग बहादुर का योगदान
जंग बहादुर सिंह बचपन से ही स्वाभिमानी और क्रांतिकारी तेवर के रहे हैं. 10 साल की उम्र से अखाड़ों में जाने लगे थे. बलिष्ठ और हष्ट-पुष्ट थे. कोई कमजोर को सताता था तो उसकी ओर से अत्याचारी से लड़ जाते थे. गाँव के सामाजिक कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे. मंदिर पर भजन-कीर्तन और अष्टजाम में खूब झाल बजाते थे और सुर में गाते थे. धीरे-धीरे उनका गायक और पहलवान दोनों बड़े हो रहे थे. जंग बहादुर भी अब 22 साल के हो गये थे, जब गाँधी का भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था. वह गाँधी के प्रभाव में थे. जगह-जगह क्रांतिकारियों के बीच जाकर भोजपुरी में देशभक्ति-गीत गाने लगे थे. उनमें जोश भरने लगे थे. छुप-छुपकर आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने लगे थे. उन दिनों उनका गायक और पहलवान दोनों लड़ रहे थे तो देश की आज़ादी की लड़ाई में भाग लेना और अपने क्रांतिकारी गीतों से देशभक्तों में जोश जगाना जंग बहादुर का पहला योगदान है, देश और समाज के लिए. देश आज़ाद होने के बाद भी वह देश-भक्तों और रामायण-महाभारत के पात्रों की वीर-गाथा व्यास शैली में गाते रहे और धीरे-धीरे 60-70 के दशक में भोजपुरिया जनमानस पर छा गये.
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