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अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल (फोटो- वीडियो ग्रैप)
तारीख-18 दिसंबर 1927। जगह- गोरखपुर जेल। फांसी से ठीक एक दिन पहले अपने बेटे से मिलने मां और बाप जेल में पहुचें पहुंचे। मां को देख कर फांसी का फंदा चूमने का इंतजार कर रहे बेटे की आंख में पानी छलक आया। पिता की आंखों से आंसूओं की धार बह निकली। लेकिन वो मां जिसने 9 महीने गर्भ में रख अपने खून से सपूत जन्मा था वो कड़क आवाज में बेटे को बोली 'बस हो गई क्रांत्रि, आ गया इंकलाब अगर मौत से इतना ही डर था तो इस रास्तें पर आएं क्यों- हरिश्चन्द्र, दधीचि आदि बुजुर्गों की तरह वीरता, धर्म व देश के लिए जान दे, चिंता करने और पछताने की जरूरत नहीं है।'
बेटे ने भी जवाब दिया, 'मां मुझे क्या चिंता और क्या पछतावा मैंने कोई कोई पाप नहीं किया है। मैं मौत से नहीं डरता ये तो तुम जानती हो लेकिन मां ये डर के आंसू नहीं है ये इस बात का दर्द है कि मरने के बाद जब मैं पुनर्जन्म लूंगा तो फिर से तुम्हारी कोख नसीब होगी या नहीं।'
ये बेटा अमरशहीद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल का जवाब था और वो गौरवशाली मां बिस्मिल की मां का नाम था मूलमति। कहने को तो देशभक्ति की रस्मी कवायदों में ऐसी कोई महफिल नहीं होती जिसमें बिस्मिल का लिखा तराना 'देखना है जोर कितना बाजुएं कातिल में है, सरफरोशी की तमन्ना आज हमारे दिल में है।' नहीं बजता।
ये तराना जो एक कौंम का तराना बन गया था। इनको लिखने वाला शख्स सिर्फ लिखता ही नहीं था अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ तेजाब बिखेरता था। फांसी पर चढ़ते वक्त जो तराना गाया वो भी एक मिसाल थी। फांसी पर ले जाने के लिए जब जेलर आया तो उन्होंने कहा वंदे मातरम, भारत मां की जय और शांति से चलते हुए कहा
'मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे
बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्रे यार, तेरी ही जुस्तजु रहे।'
देश के लिए दीवानापन एक एक कदम से टपक रहा था। फांसी के तख्ते पर खड़े होकर सबसे अंग्रेजी हुकूमत के मुलाजिमों के बीच कहा कि I wish the downfall of the British Empire और फिर फांसी का फंदा चूमने से पहले आखिरी शेर पढ़ा-
'अब न अहले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मिट जाने की हसरत , अब दिले-बिस्मिल में है'
...और रस्सी खींच दी गईं। इसी के साथ बिस्मिल के एक शरीर की यात्रा खत्म हो गई। बिस्मिल पर लिखना तो शायद कई किताबों में समेटा न जाएंगा। बिस्मिल एक शायर,अनुवादक, इतिहासकार थे।
क्रांत्रि की अवधारणा का पूरा जामा क्या हो इसकी विस्तृत रूपरेखा को सामने लाने वाले एक स्वप्नदृष्ट्रा लेकिन उससे ज्यादा हौंसला रखने वाली उनकी मां किस तरह का जिगर रखती थी ये उनकी और उनके बेटे की आखिरी बातचीत से ही पता चल जाता है।
बिस्मिल की मौत पर दुखी नहीं बल्कि कहा कि मैं भगवान राम के नाम पर रखे गए नाम के अनुरूप ही काम करके शहीद हुआ है मेरा बेटा। लेकिन ये सिर्फ तब तक था जब तक बिस्मिल की अंतिम यात्रा नहीं संपन्न नहीं हुई।
1927 के बाद आजादी की लड़ाई में बिस्मिल के लिखे गए अशरारों ने शरारे भर दिए। कांग्रेस के नेताओं के लिए ये गीत बिना हल्दी और फिटकरी के रंग चोखा दे रहे थे। देश को आजादी मिल गई।
इसी के साथ खद्दर को भी इन गीतों से आजादी मिल गई जिनको वो गाहे-बगाहे गाया करते थे। आजादी के बाद के सालों में बिस्मिल की मां जिंदा रही। पिता की जल्दी ही मृत्यु हो गई थी। लेकिन मां और एक बहन जिंदा रही। नेताओं के लिए शाहजहांपुर की वो गली गुमनाम हो गई।
बिस्मिल की मां और बहन अपनी जिंदगी को भीख में मिली सहायता राशि से दिन काटने लगी। बहन को इधर-उधर काम करना पड़ा। घर में बैठी वो गर्वीली मां क्या सोचती होगी नहीं मालूम।
क्योंकि भीख सड़क पर मिलती है घर में आकर भीख देने वाले को संख्या न के बराबर थी। और इसी गुरबत की हालत में बिस्मिल की मां गुजर गई। बहन का क्या हुआ कुछ मालूम नहीं।
बिस्मिल की कहानी में दर्द ही दर्द बिखरे हुए है। उनकी बहन शास्त्री देवी ने एक बात बताया था। बिस्मिल की तीन बहने और एक भाई था। दो बहनों की शादी हो गई थी। एक बहन की मौत शादी के कुछ ही दिन बाद हो गई थी और दूसरी बहन ने भाई को फांसी होने के बाद जहर खा लिया था।
एक छोटा भाई जिसकी उम्र बिस्मिल की शहादत के वक्त लगभग दस वर्ष की थी। उसे बाद में टीबी हो गई। घऱ में ईलाज कराने के लिए भी पैसा नहीं था। पिता एक अस्पताल लेकर गए तो डॉक्टर ने ईलाज के लिए 200 रूपए की मांग की। घर का खर्च ही 15 रूपए पर चलता था जो कि गणेश शंकर विद्यार्थी जी सहानुभूतिवश मदद के लिए भेजते थे।
बड़ा बेटा देश के लिए काम आ गया । एक हफ्ते तक अस्पताल में नाममात्र के ईलाज के सहारे सुशील चन्द्र पड़ा रहाऔर फिर खून की उल्टी दस्त के साथ उसने हॉस्पीटल में दम तोड़ दिया। इसी के साथ ही उम्मीद टूट गई बिस्मिल के परिवार के दिन फिरने की।
आजादी के तरानों के नायक के परिवार के पास खाने के दाने तक नहीं थे। और बिस्मिल के लिखे गए गीतों को गाकर गाने वाले और उनपर वोट मांगने वाले करोड़ों में खेलने लगे। बिस्मिल की बहन शास्त्री देवी को भी जीवन चलाने के लिए इधर-उधर काम करती रही।
चैनल में काम करने के दौरान एक बार शहीदों के परिवारों की हालत पर एक खबर करने के दौरान इस तरह की दारूण सच्चाईंया सामने आईे। हालांकि न तो आंखों से लहू टपका न हाथ पत्थर के हुए। सुनते रहे और चलते रहे।
देश भर में कवरेज करने के दौरान बड़े बड़े आईपीएस और आईएएस अधिकारियों से मुलाकात हुई। इनमें से कुछ अधिकारी बड़े गर्व के साथ ये बताते रहे कि वो तीसरी पीढी़ के सरकारी अफसर है उससे पहले उनके पिता और दादा अंग्रेजों के समय में बड़े अफसर रहे।
इन लोगो के चेहरे पर चमकती लाली बताती है कि ये उसी परंपरा के वाहक है जो सदियों तक अंग्रेजों के जूते जीभ से साफकर हिंदुस्तानियों के खून से को अपने चेहरे पर लगाते रहे ताकि अंग्रेजों जैसे दिख सके। और हैरत अंगेंज बात है कि मेरी नजरें इतनी कमजोर हो गई कि उनके चेहरों पर वैसी ही चमक दिखाई देती है जैसी कभी अंग्रेजों के चेहरों पर होती होंगी।
ये पीढ़ी दर पीढ़ी देश को लूटने की परंपरा के वाहक कभी उस गली जा सकते थे क्या जिस गली में पैदा हुए एक लाल ने उनके बाप दादाओं की हैसियत बाजार में दलाल की तरह उछाल दी थी। जिसने उनके मां-बाप अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। फिर बात नेताओं की। जिन राजनेताओं ने क्रांत्रिकारियों के जीते जी उनको नहीं माना था वो उनके मरने पर कैसे जाते।
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कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं ने बिस्मिल के गीतों का कुछ न कुछ फायदा तो जरूर उठाया होगा। लेकिन देने के लिए अंहिसा के नाम पर बने ट्रस्टों से खद्दर महीन दर महीन होती चली गई। गाडियों के टायर का परिमाप बढ़ता गया। ऐसे शहीदों के परिवारों के लिए सोचने का समय ही नहीं मिला।
और आखिर में बात हमारे जैसे बौनों की। हम लोग लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए नेताओं की साधना और नौकरशाहों की अराधना में लीन हो गए कि पता ही नहीं चला। कभी कभी कोई बौना अलग से करने की धुन में एक कॉलम की खबर ले कर आ जाता है और हम उस पर आधा घंटे का प्रोग्राम बना लेते है मैंने भी ऐसा किया।
बिस्मिल के परिवार की कहानी का पता तब चला था जब उसके घर एक खबर के सिलसिले में तलाश करता हुआ रिपोर्टर वहां पहुंचा। हाल का समाचार ये है कि उनका शाहजहांपुर का मकान खाली पड़ा था दस पन्द्रह साल पहले एक परिवार ने वहां कब्जा किया है। किससे लिया किसने दिया इस का कोई पता शाहजहांपुर के लोगो को नहीं है। और इससे बड़ी कहानी है बिस्मिल की पहचान की।
डाकुओं का एक शो करने के दौरान पुतलीबाई का गांव तलाश कर रहा था। चंबल के डाकुओं में पहली महिला डकैत। मुरैना जिले के बरबई गांव की तलाश कर रहा था। हर जगह पहुंचता था तो लोग कहते पुतलीबाई का गांव बरबई है। मेरे साथ मुरैना के वरिष्ठ साथी गौतम जी भी थे। खैर गांव आ गया। बीहड़ों के बीच बसा हुआ गांव।
एक नहर के पार करते ही गांव शुरू हो गया। लेकिन गांव में घुसते ही एक बड़े से पार्क को देखकर जिज्ञासावश पूछ लिया कि ये क्या है। इस पर गौतम जी ने बताया कि ये अमरशहीद बिस्मिल का गांव है। बिस्मिल का गांव।
हां ये ही तो अमर शहीद बिस्मिल का पैतृक गांव। लेकिन इलाके में किसी ने बताया नहीं कि बिस्मिल यही के रहने वाले थे। इलाके में इस गांव के आसपास भी आप पूछोंगे कि बिस्मिल का गांव कौन सा है तो एक जवाब ही सुन पाओंगे कौन बिस्मिल। बरबई बिस्मिल के गांव के नाम पर नहीं पुतलीबाई के गांव के नाम पर प्रसिद्ध है।
गौतम जी ने ही बताया कि पंडित बिस्मिल जाति से पंडित नहीं बल्कि इस गांव के एक तोमर परिवार से ताल्लुक रखते थे। यकीन नहीं हुआ क्योंकि ज्यादातर किताबों में पंडित बिस्मिल के बारे में इस तरह की कोई जानकारीर नहीं थी ।खैर जिज्ञासा शांत करने के लिए बिस्मिल के परिजन से मिलने की इच्छा की तो उनके परिवार से एक शख्स को बुलाया गया। और दीन-हीन सा वीरेन्द्र सिंह तोमर सामने आ खड़ा हुआ।
वीरेन्द्र सिंह चचेरा भाई हैं बिस्मिल का। एक दो सवालों के बाद पूछा कि क्या कभी कोई दर्द होता है कि ये गांव बिस्मिल का गांव नहीं बल्कि पुतलीबाई का गांव कहलाता है।
वीरेन्द्र का जवाब इस देश की पैलेट गन पर जवाब मांग रही पत्रकारिता को जवाब है कि साहब पुतलीबाई के नाम से तो फिर भी कई मीडिया वाले आ जाते है, बिस्मिल के नाम से इस गांव में कौन आता है।
और आखिर में लिखने को तो बहुत कुछ है लेकिन लिखकर भी क्या। क्योंकि जिस शख्स ने कभी दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य के खिलाफ उसकी बाजुओं की ताकत का जोर देखने लिए के लिए ललकारा था वो उसके दिमाग तो पढ़ने में भूल कर गए थे।
बाजुओं की ताकत में बिस्मिल जीत गए लेकिन अंग्रेजी के दम पर इस देश में जो पीढ़ी पैदा हुई उसको बिस्मिल की मां देख कर गुजरी थी। हम अपना घर बचाते है अपना मुल्क नहीं।
हालांकि आज भी लगता है कि अगर बिस्मिल की माता जी से इतने दुख में दिन गुजारने के बाद भी पूछा जाता तो शायद ये ही कहती 'भारत माता की जय'
धीरेंद्र पुंडीर न्यूज नेशन के वरिष्ठ पत्रकार हैं।
(डिस्कलेमरः- यह लेखक के निजी विचार हैं।)
Source : Dhirendra Pundir