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सावरकर की दया याचिका का तो जिक्र, बाकी इतिहास दरकिनार क्यों

यह गंभीर चिंता की बात है कि जब भी विनायक दामोदर सावरकर का जिक्र आता है, तो राष्ट्र के लिए उनके महान बलिदान को दरकिनार कर उनकी 'दया याचिका' के लिए ही उन्हें निशाना बनाया जाता है.

Updated on: 18 Nov 2022, 07:02 PM

highlights

  • कांग्रेस ने वीर सावरकर को तिरस्कृत करने की बना ली आदत
  • ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज कर दया याचिका पर बात
  • मोतीलाल ने भी पंडित नेहरू को नाभा जेल से छुड़वाया था 

नई दिल्ली:

हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि स्वतंत्रता सेनानी वीडी सावरकर (VD Savarkar) ने आजादी से पहले अंग्रेजों को क्षमा याचना पत्र या 'दया याचिका' (Mercy Petition) पर हस्ताक्षर करके महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे नेताओं को धोखा दिया था. एक तरफ तो कांग्रेस (Congress) देश को एक करने के लिए 'भारत जोड़ो यात्रा' निकाल रही है, लेकिन वह वास्तव में वही कर रही है, जो उसके पूर्व नेता अतीत में किया करते थे. यानी देश की संस्कृति और संस्कृति को बदनाम कर सनातन बंधन और सामाजिक मूल्यों को विभाजित करने का काम. सच तो यह है कि वीर सावरकर की दया याचिका पर चर्चा करने का कांग्रेस नेताओं का प्राथमिक उद्देश्य बीते समय में अपनी ही पार्टी के नेताओं मसलन पंडित नेहरू (Jawaharlal Nehru) द्वारा दी गई दया याचिका को छिपाना है. ऐसे में लाख टके का सवाल यही उठता है कि केवल सावरकर के माफीनामे का ही क्यों जिक्र कर उनके प्रति तिरस्कृत व्यवहार किया जाता है? दया याचिका या 'रॉयल ​​क्लेमेंसी' अंग्रेजों द्वारा हिरासत में लिए गए शख्स द्वारा अपनाई जाने वाली एक प्रक्रिया के अलावा और कुछ नहीं थी. यह एक विशिष्ट प्रारूप था जिसे प्रत्येक हिरासत में लिए गए व्यक्ति को अपनी रिहाई के लिए आवेदन करते वक्त जरूरत पड़ती थी. स्वघोषित इतिहासकार भी इस ऐतिहासिक किंतु शाब्दिक तथ्य से अच्छे से परिचित हैं. फिर भी अपमान या तिरस्कार सिर्फ सावरकर का ही किया जाता है. जाहिर है जिस व्यक्ति ने देश के लिए इतना कुछ दिया सिर्फ उसकी बदनामी हो रही है.

छत्रपति शिवाजी और सावरकर का अटूट बंधन
यह भी देखा गया है कि जब भी सावरकर की याचिका पर उचित स्पष्टीकरण देने का कोई प्रयास किया जाता है, तो वे हमेशा छत्रपति और सावरकर के बीच के बंधन को ले आते हैं. इस क्रम में वे वास्तव में 1665 की पुरंदर संधि को भूल जाते हैं. उन्हें इस बात का भी अंदाजा नहीं है कि छत्रपति ने वह 'राजनीतिक समझौता' क्यों किया था या अंततः छत्रपति ने उन लोगों के साथ क्या किया जिनके साथ उन्होंने अनिच्छा से संधि पर हस्ताक्षर करने पड़े थे. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सावरकर एक कट्टर विश्वासी और सच्चे शिष्य थे, जो छत्रपति को प्रेरणा या भगवान के अवतार से कम नहीं मानते थे. एक ऐसा अवतार जो 'असली' स्वराज के लिए लड़े थे. गौरतलब है कि एक याचिका पर हस्ताक्षर करना हमेशा कायरता नहीं होती है. कभी-कभी यह चतुर राजनीतिक रणनीति का हिस्सा भी होती है. यहां एक उदाहरण और दिया जा सकता है. भगवान श्रीकृष्ण भी राजा जरासंध से युद्ध करते हुए रणभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए थे. इसी कारण वह 'रणछोर' की उपाधि से भी विभूषित हुए. हालांकि इसके बाद भगवान कृष्ण ने जरासंध के साथ जो किया, उसे फिर से बताने की आवश्यकता नहीं है. 

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दया याचिका कई लोगों ने की,लेकिन केवल एक के खिलाफ इस्तेमाल की गई
यह गंभीर चिंता का विषय है कि जब भी सावरकर का विषय उठाया जाता है या किसी भी प्रकार का चिंतन शुरू होता है, तो राष्ट्र के लिए महान बलिदान को स्वीकार किए बिना इतिहासकार उनकी याचिका को लेकर सावरकर को कठघरे में खड़ा कर देते हैं. वे भूल जाते हैं कि श्रीपद अमृत डांगे, सचिंद्र नाथ सान्याल, बारिन घोष, नलिनी भूषण दास गुप्ता और अन्य प्रमुख शख्सियतों ने भी दया याचिका दायर की थी. अपनी दया याचिका में डांगे ने लिखा था... 'मुझे चार साल के सश्रम कारावास की सजा दी गई है ताकि भारत में ब्रिटिश सम्राट की संप्रभुता के प्रति मेरे दृष्टिकोण में बदलाव आ सके. मैं महामहिम को सूचित करना चाहता हूं कि इतने सालों की सजा व्यर्थ है, क्योंकि मैं अपने लेखन या भाषणों में कभी भी महामहिम के प्रति राजद्रोही नहीं रहा हूं और न ही भविष्य में ऐसा करने का इरादा रखता हूं. उम्मीद है कि यह जवाब महामहिम को संतुष्ट करेगा. उत्सुकता से उत्तर की प्रतीक्षा में. (डांगे का पत्र, फाइल संख्या 41, 1924, एनएमएमएल अभिलेखागार).' इस पत्र के संदर्भ में क्या कम्युनिस्ट बता सकेंगे कि डांगे ने दया याचिका क्यों दायर की और वह वास्तव में अंग्रेजों से प्रार्थना क्यों कर रहे थे? 

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मोतीलाल नेहरू ने भी की थी जवाहरलाल नेहरू की पैरवी
इस कड़ी में मोतीलाल नेहरू के अपने बेटे जवाहर के लिए उठाए गए कदम की भला अनदेखी क्यों की जाती है. 1923 में जवाहरलाल नेहरू नाभा जेल में थे और उन्हें नहीं पता था कि वह उन परिस्थितियों में कितने समय तक रह सकते हैं. जवाहरलाल नेहरू को शाही आदेशों की अवहेलना करने के लिए के संतनम और एटी गिडवानी के साथ गिरफ्तार किया गया था. बीआर नंदा, द नेहरूज: मोतीलाल एंड जवाहरलाल, 217-23 के मुताबिक संतनम ने जिक्र किया था, 'मोतीलाल नेहरू अपने बेटे का पता लगाने के लिए पहुंचे थे. हैरानी की बात यह है कि उसी शाम पंडित नेहरू को नजरबंदी से रिहा कर दिया गया. उससे पहले नाभा जेल के अधिकारियों का रवैया भी अचानक बदल गया. हमारे नहाने की व्यवस्था की गई. हमारे कपड़े हमें दिए गए थे और बाहर से दोस्तों को फल और अन्य खाने की चीजें भेजने की अनुमति दी गई थी'. जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं अपनी आत्मकथा में इस घटना को स्वीकार किया और लिखा कि शौर्य के स्थान पर विवेक को प्राथमिकता दी गई. उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि चौथा सदस्य नाभा जेल से रिहा होने में सक्षम नहीं था, क्योंकि उसकी मदद करने के लिए कोई शक्तिशाली दोस्त या सार्वजनिक हित नहीं था. इस घटनाक्रम को भुला प्रत्येक कांग्रेसी अब सावरकर के असली बलिदान की आलोचना करता है. इस कड़ी में वे भूल गए हैं कि सावरकर को 25 साल के लिए आजीवन कारावास की सजा दी गई थी. इसके विपरीत मोतीलाल के प्रभाव में पंडित नेहरू को रिहाई मिली थी.