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चीतों को नामीबिया से लाकर कुनो में बसाने की कवायद आसान नहीं, जानें इससे जुड़े पेंच

विशेष कार्गो प्लेन से आठ चीते ग्वालियर के एयर फोर्स स्टेशन लगभग 8 हजार किमी का सफर तय कर पहुंच गए. वहां से उन्हें चिनूक हेलीकॉप्टर के जरिये मध्य प्रदेश के कुनो नेशनल पार्क ले जाया गया.

Updated on: 17 Sep 2022, 01:06 PM

highlights

  • पांच मादा और तीन नर चीतों के लाया गया भारत
  • साल के अंत में दर्जन भर चीते और लाए जाएंगे भारत
  • कुनो नेशनल पार्क के स्टाफ की चुनौतियां अब शुरू हुईं हैं

नई दिल्ली:

चीतों जैसे बड़े जंगली जानवरों के ट्रांसपोर्टेशन के लिए खासतौर पर मोडीफाइड किया गया बोइंग 747 विमान शनिवार सुबह अपने साथ आठ चीतों को लाकर एक नए युग की शुरुआत कर चुका है. नामीबिया (Namibia) के विंडहोएक से पांच मादा और तीन नर चीते मध्य प्रदेश के कुनो नेशनल पार्क में लाकर छोड़ दिए गए हैं. संयोग से यह उपलब्धि  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) के जन्मदिन के अवसर पर देश के खाते में दर्ज हुई. विदेश से चीतों को लाकर भारत में बसाने की योजना पहली बार तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश (Jairam Ramesh) ने 2009 में पेश की थी. हालांकि 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में इस योजना पर रोक लगा दी. 2017 में नरेंद्र मोदी सरकार ने इसे फिर से पेश किया. सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने 2020 में प्रायोगिक आधार पर योजना को अमल में लाने की अनुमति दी. फिर मध्य प्रदेश के कुनो नेशनल पार्क में विशेष बाड़ों की निर्माण किया गया. इसके तहत बनाए गए बाड़ों के इलाकों से तेंदुओं को हटाया गया. फिर चीतों की देखभाल के लिए नेशनल पार्क के स्टाफ को प्रशिक्षित किया गया. अब जब कुनो नेशनल पार्क में पीएम नरेंद्र मोदी चीतों को छोड़ चुके हैं, तो इस योजना से जुड़े लोगों की चुनौतियों और जिम्मेदारियां भी खासी बढ़ चुकी हैं. इनके सफल पुनर्वास के बाद साल के अंत तक 12 चीतों को और भारत लाया जाएगा. गौरतलब है कि 1952 चीतों को भारत में विलुप्त घोषित कर दिया गया था. अब सत्तर साल बाद देश में लोग चीतों के दर्शन कर सकेंगे. 

जंगली जानवरः शाही पिंजरों से संरक्षण के दौर तक
सदियों से शाही परिवार से जुड़े लोग जंगली जानवरों को शौकिया तौर पर अपने लिए पालते थे. इन जंगली जानवरों को अफ्रीका, एशिया के देशों से लाया जाता था. जंगली जानवरों को राजसी शौक के लिए पालने की पहली घटना 747 से 814 के दौरान सम्राट चार्लमैग्ने के शासनकाल में दर्ज की गई थी. सम्राट ने आज के नीदरलैंड्स और जर्मनी में तीन जंगली बाड़ों का निर्माण कराया था. इन बाड़ों में शेर, भालूओं को बसाया गया. रोमन युद्ध के बाद यूरोप में पहली बार इसी दौर में हाथी को भी लाकर बसाया गया. हालांकि जंगली जानवरों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण की शुरुआत 1960 से शुरू हुई. इसके तहत बजाय शाही पिंजरों या बाड़ों में जंगली जानवरों को कैद कर रखे जाने के संरक्षण के लिए इन्हें जंगलों में प्राकृतिक आवास में रखा जाने लगा. हालांकि यह काम अपने में ढेरों चुनौतियां समेटे हुए है. 

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जंगली जानवरों का स्थानांतरणः सफलता-असफलता की कहानियां
1960 में दक्षिण अफ्रीका के क्वाजुलू नतल प्रांत में सफेद गैंडे को पहली बार संरक्षण के लिए स्थानांतरित किया गया. 1991 से 1997 के दौरान दक्षिण अफ्रीका के मेडिक्वे गेम रिजर्व में शेर समेत 28 प्रजातियों के लगभग 8 हजार जंगली जानवर लाकर बसाए गए. अमेरिका में 1994 में लगभग विलुप्त हो रहे तेंदुओं को टेक्सास से लाकर फ्लोरिडा में बसाया गया. 1997 में उत्तर पश्चिम के मोंटाना से भेड़ियों को लाकर येलोस्टोन नेशनल पार्क में बसाया गया, जो 1970 में विलुप्त हो गए थे. 1984 में भारत के पोबितोरा से उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क में गैंडों को लाकर बसाया गया. हाल ही में कांजीरंगा के गैंडों को राज्य के मानस में बसाया गया ताकि उनकी आबादी बढ़ सके. 2011 में कान्हा से बायसन को बांधवगढ़ लाया गया, जहां स्थानीय तौर पर वे विलुप्त प्रायः हो गए थे. हालांकि बाघों के स्थानांतरण की घटनाएं बड़ी सुर्खियां बनीं. राजस्थान के सरिस्का और मध्य प्रदेश के पन्ना में सिर्फ बाघों को बसाने के लिए प्राकृतिक आवास बनाए गए. अवैध शिकार ने इन दोनों ही राज्यों में बाघों को लगभग खत्म कर दिया था. तेदुओं को भी इस तरह कई राज्यों में स्थानांतरण के जरिये लाकर संरक्षित किया गया. 

ट्रांसलोकेशन में रखा जाता है इन बातों का ध्यान
जानवरों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण के लिहाज से ट्रांसलोकेशन के चलन में तेजी आई है. कई बार तो पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी जंगली जानवरों को इधर से उधर ले जाकर बसाया जाता है. जानवरों के संरक्षण के लिए उनके ट्रांसलोकेशन की प्रक्रिया को लेकर कई नियम-कायदे हैं, जिन्हें प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ ने तैयार किया है. यह संघ सरकारी और सिविल सोसाइटी के लोगों की देखरेख में संचालित होता है. इसके तहत प्रजातियों की आबादी बढ़ाने के लिए स्थानीय स्तर पर जंगली जानवरों का स्थानांतरण किया जाता है. मसलन रणथंभोर से सरिस्का लाए गए बाघ. या किसी दूसरे देश से जानवरों का लाकर स्थानीय स्तर पर बसाना. जैसा कि शनिवार को मामीबिया से कुनो लाए गए चीते. ट्रांसलोकेशन की एक निर्धारित प्रक्रिया है, जिससे कई जटिल बातें भी जुड़ी रहती है. 
आनुवांशिक विविधताः विशेष रूप से एक नई आबादी को बसाने के लिए आनुवंशिक रूप से उपयुक्त जंगली जानवरों को ढूंढना अक्सर मुश्किल होता है, क्योंकि दोनों ही में कोई आनुवांशिक संबंध नहीं होता है. इस तरह से नई आबादी में ब्रीडिंग असंतुलन पैदा हो सकता है, जो संबंधित प्रजाति के लंबे जीवन के लिहाज से बड़ा खतरा पेश करता है. 
प्राकृतिक आवास और शिकार का आधारः किसी प्रजाति की संख्या कम होने या उनके विलुप्त होने से रोकने के लिए बेहद जरूरी है कि संबंधित प्रजाति के जानवरों को प्राकृतिक आवास दिया जाए. इसके साथ ही मूल आवास की तरह ही उस इलाके का चयन करना पड़ता है. मकसद यही होता है कि ट्रांसलोकेशन के बाद जानवरों को अपने आसपास जाना-पहचाना वातावरण और सुविधाएं मिल सके. नई स्थान पर स्थानांतरित करके लाए गए जानवरों की सुरक्षा, पर्याप्त जगह और भोजन की प्रचुरता में उपलब्धता का भी खासा ख्याल रखा जाता है.
लैंडस्केप व्यवहार्यता: केवल जंगलों के बीच जानवरों को रिहा करना और स्थानांतरित करना उस प्रजाति के लिए चुनौती दे सकता है. भले ही इस तरह के आदान-प्रदान से आनुवंशिक व्यवहार्यता सुनिश्चित की गई है, लेकिन संबंधित प्रजाति के जानवर जनसांख्यिकीय और पर्यावरणीय घटनाओं के लिए अतिसंवेदनशील बने रहते हैं. ऐसे में उनके लिए प्राकृतिक वास तैयार करना ही बेहतर रहता है. 

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घरेलू प्रवृत्ति 
जानवरों के स्थानांतरण से जुड़ी एक बड़ी चुनौती उनकी घरेलू प्रवृत्ति भी रहती है. घोंघे से लेकर मेढक तक के विभिन्न प्रजातियों के जानवरों में दिशा दशा को लेकर जबर्दस्त संवेदशीलता होती है. यही वजह है कि भटक जाने पर वे आसानी से घर वापसी कर लेते हैं. अब बिल्ली जैसी प्रजातियों के बड़ा जानवरों के मामले में बड़ी चुनौती यही होती है कि दूसरी जगह से लाए गए जानवर परेशान हो सकते हैं. साथ ही वे अपरिचित क्षेत्र में घूमते हुए इंसानों के संपर्क में आ सकते हैं. इस तरह जंगली जानवर और इंसानों के बीच एक नए तरह का संघर्ष शुरू हो सकता है. इसका एक समाधान तो यह हो सकता है कि पहले जानवरों को एक सीमित स्थान पर रख आसपास के वातावरण से परिचित होने का पूरा मौका दिया जाए. दूसरा समधान यह हो सकता है कि जानवरों को उनके बचपने में ही ट्रांसलोकेट किया जाए. इसे वह उस स्थान पर घरेलू प्रवृत्ति के साथ बड़े होंगे और नए स्थान को जल्द आत्मसात कर लेंगे. हालांकि दोनों ही में शत-प्रतशित सफलता की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है. नवंबर 2009 में पेंच टाइगर रिजर्व से शावक बाघ को पन्ना लाया गया था. उसे शुरुआती आठ दिनों तक एक सीमित बाड़े में रखा गया फिर उसे जंगलों में छोड़ दिया गया. उसे उस जगह को समझने में कुछ समय लगा और फिर वह दक्षिण की तरफ आगे बढ़ गया. बाघ के पीछे चार हाथियों समेत 70 अधिकारी उस पर नजर रखते हुए चल रहे थे. बाघ छतरपुर, सागर, दमोह होते हुए पेंच की दिशा में महीने भर में 440 किमी तक बढ़ गया. बाद में उसे फिर से पन्ना लाया गया. ऐसी घटनाओं की आशंका कम करने के लिए सरकार के चीता एक्शन प्लान में नर चीतों में रेडियो कॉलर लगाने की सलाह दी जाती है. उन्हें विशेष रूप से बनाए प्राकृतिक बाड़ों में 4 से 4 हफ्ते रखा जाता है. साथ ही मादा चीतों को भी उनके साथ रखा जाता है ताकि वह नई जगह पर बने रहें.