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तो इसलिए नहीं मिले पीएम मोदी और शी जिनपिंग समरकंद में...

समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक से पहले यह माना जा रहा था कि मोदी-शिनपिंग के बीच भले ही औपचारिक द्विपक्षीय बातचीत नहीं हो, लेकिन कुछ मिनटों की अनौपचारिक बातचीत तो हो ही जाएगी. हालांकि यह कयास भी धरे के धरे रह गए.

Updated on: 18 Sep 2022, 01:55 PM

highlights

  • पीएम मोदी से बातचीत को जिनपिंग की कमजोरी के तौर पर देखा जाता
  • शी जिनपिंग नहीं चाहते हैं कट्टर राष्ट्रवाद की हामी उनकी छवि प्रभावित हो
  • अमेरिका की नीतियों और नए गठबंधन का हिस्सा बन भारत ने बनाई दूरी

नई दिल्ली:

बीजिंग में अक्टूबर में होने जा रहे बेहद महत्वपूर्ण नेतृत्व परिवर्तन से पहले घरेलू मोर्चे पर राजनीतिक दबाव एक बड़ी वजह मानी जा रही है, जिसकी वजह से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग (Xi Jinping) के बीच द्विपक्षीय बातचीत समरकंद में नहीं हो सकी. वह भी तब जब अप्रैल 2020 में दोनों देशों के सैनिकों के पूर्वी लद्दाख (Ladakh) में हिंसक संघर्ष के बाद उपजे सीमा विवाद और तनावपूर्ण हुए संबंधों के बाद उजबेकिस्तान के समरकंद में 22वीं शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक में दोनों नेता पहली बार एक मंच पर साथ आए थे. हालांकि चीन के विश्लेषकों की मानें तो दोनों नेताओं के बीच बहुचर्चित द्विपक्षीय बातचीत के नहीं हो सकने के पीछे भारत का कड़ा रवैया जिम्मेदार रहा. 

एक-दूसरे का अभिवादन तक नहीं किया मोदी-जिनपिंग ने
चीनी विश्लेषकों का मानना है कि पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सीमा तनाव की वजह बने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के जमावड़े को भारत हिंसक संघर्ष से पहले की यथास्थिति वापसी पर अड़ा हुआ था. इसके अलावा चीन को लेकर अमेरिकी नीतियो की तरफ नई दिल्ली का झुकाव भी एक वजह था. इस वजह से दोनों नेताओं ने द्विपक्षीय बातचीत से किनारा करना बेहतर समझा. गौरतलब है कि उजबेकिस्तान के समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक से पहले यह माना जा रहा था कि मोदी-शिनपिंग के बीच भले ही औपचारिक द्विपक्षीय बातचीत नहीं हो, लेकिन कुछ मिनटों की अनौपचारिक बातचीत तो हो ही जाएगी. हालांकि यह कयास भी धरे के धरे रह गए. एससीओ की बैठक के बाद फोटो खिंचवाने के लिए एक मंच पर आए दोनों नेताओं ने एक-दूसरे का अभिवादन तक नहीं किया और फोटो ऑप्स के बाद एक-दूसरे की तरफ बगैर देखे निकल गए.  

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रिश्तों पर जमी बर्फ की परत और मोटी हुई
दोनों नेताओं के बीच परस्पर द्विपक्षीय बातचीत नहीं होने के दो निहितार्थ सामने आ रहे हैं. पहला, दुनिया की दो बड़ी आबादी वाले राष्ट्र, जिनकी सेना भी बहुत बड़ी और क्षमतावान है, ने पूर्वी लद्दाख में जारी सैन्य तनाव का समाधान निकालने का एक बेहतरीन अवसर गंवा दिया. दोनों नेताओं के बीच इसके पहले 2019 में ब्राजील में परस्पर द्विपक्षीय बातचीत हुई थी. यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 2017 में हैम्बर्ग में जी-10 शिखर वार्ता के दौरान अनौपचारिक बातचीत से ही दोनों देश डोकलाम विवाद का हल निकालने में सफल रहे थे. दूसरे निहितार्थ के अनुसार समरकंद में मोदी-जिनपिंग का नहीं मिलना यह बताता है कि गलवान घाटी के हिंसक संघर्ष के बाद दोनों देशों के परस्पर संबंधों पर जमी बर्फ की परत अब और मोटी हो चुकी है. गलवान घाटी के हिंसक संघर्ष दोनों देशों के बीच पनपा तनाव हाल के दौर सबसे संवेदनशील विवाद माना जा रहा है. यह समझना मुश्किल है कि एससीओ शिखर सम्मेलन के इतर दोनों नेताओं के बीच कोई औपचारिक-अनौपचारिक बैठक क्यों नहीं हुई. हालांकि यह भी संभव है कि घरेलू मोर्चे पर विद्यमान स्थितियों के दबाव में दोनों नेताओं ने बैठक से किनारा करना बेहतर समझा हो. 

शी जिनपिंग छवि को नहीं पड़ने देना चाहते कमजोर
माना जा रहा है कि संविधान में संशोधन कराने के बाद शी जिनपिंग अगले महीने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना की 20वीं कांग्रेस में चीन के राष्ट्रपति बतौर तीसरे कार्यकाल की रजामंदी पर मुहर लगवाने में सफल रहेंगे. इसके बाद वह आधुनिक चीन के सबसे शक्तिशाली नेता बतौर अपना स्थान इतिहास में पक्का कर लेंगे. जिनपिंग की ताकत की बराबरी माओ जेडांग या माओत्से तुंग से ही की जा सकती है. शी जिनपिंग के विचार और चीन को लेकर उनकी दृष्टि को सीपीसी के संविधान में भी दर्ज किया जा सकता है. इसके साथ ही उनके नाम के साथ चेयरमैन या  सर्वोपरि नेता की उपाधि भी जुड़ सकती है. ऐसे में ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल करने से महज एक महीने दूर शी जिनपिंग ने पीएम मोदी से बातचीत नहीं कर अपनी छवि पर क्षेत्रीय संप्रभुत्ता से समझौता करने का दाग लगने से परहेज किया. खासकर यह देखते हुए भी कि बीजिंग यही बात बार-बार कहता आ रहा है कि भारत ने ही पहले-पहल वास्तविक नियंत्रण रेखा का अतिक्रमण किया, जिसकी परिणति गलवान घाटी के हिंसक संघर्ष के रूप में सामने आई. भारत भी यही आरोप चीन पर लगातार लगाता आ रहा है और संघर्ष से पहले की यथास्थिति बरकरार रखने के मसले पर अड़ा हुआ है. 

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संप्रभुत्ता से जुड़े मसलों पर बीजिंग का कठोर रवैया
यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि पिछले हफ्ते सीमा विवाद की वजह बने कुछ बिंदुओं से पीएलए सैनिकों के पीछे हटने की स्वीकारोक्ति बीजिंग ने अनिच्छा के साथ की थी. भारत ने पहले सैनिकों के पीछे हटने की बात स्वीकार ली थी. इसके बीद चीन-भारत ने सैनिकों के कुछ प्वाइंट्स से पीछे हटने के बारे में एक संयुक्त बयान जारी किया गया. इस बयान में अगस्त 2021 की बातचीत के बाद सैनिकों के पीछे हटने का जिक्र चीन ने नहीं किया. जाहिर है चीन के कट्टर राष्ट्रवाद के प्रदर्शन के लिहाज से यही स्थिति मुफीद बैठती है. जाहिर तौर पर शायद ही किसी को शक हो कि अगले महीने कांग्रेस बैठक के बाद शी जिनपिंग बेहद ताकतवर नेता बनकर नहीं उभरेंगे. इसके बावजूद शी अपनी अवाम को दिखाना चाहते हैं कि आने वाले सालों में और आक्रामकता के साथ नेतृत्व देने की क्षमता उनमें है. सीपीसी की भी यही लाइन रहती है कि संप्रभुत्ता से जुड़े मसलों पर रत्ती भर भी पीछे नहीं हटा जाएगा. ताइवान के खिलाफ चीनी सेना का आक्रामक युद्धाभ्यास इसका ताजा उदाहरण है. ऐसे में भारत केंद्रित सीपीसी के रणनीतिकार मानते हैं कि समरकंद में मोदी-जिनपिंग की औपचारिक या अनौपचारिक बातचीत को नई दिल्ली की जीत के तौर पर देखा जाता. ऐसे में इससे किनारा करना ही श्रेयस्कर रहा. 

कूटनीतिक मोर्चे पर भी बीजिंग-नई दिल्ली में है भारी मतभेद
यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए बीजिंग प्रशासन भारत से लगातार ताइवान से तनाव के बीच आधिकारिक बयानों में चीन की एक राष्ट्र नीति का जिक्र करने को कहता आया है. चीन ताइवान पर अपना हक जताता है और इस कारण बयानों में एक राष्ट्र की बात करता है. यह अलग बात है कि नई दिल्ली ने बीजिंग को इस मसले पर कोई भाव नहीं दिया. चीनी विश्लेषकों को भी लगता है कि दोनों देशों के रिश्ते बेहद ठंडे हो चुके हैं. हालांकि उनमें भी दोनों नेताओं के बीच मुलाकात नहीं होने को लेकर अलग-अलग राय है. शंघाई की फुदान यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के लिन मिनवांग कहते हैं, 'दोनों नेताओं के बीच बैठक को लेकर स्थितियां अभी पूरी तरह से बनी नहीं हैं. आलम यह है कि भारत की कई नीतियां अमेरिका की चीन विरोधी नीतियों से मेल खाती हैं. ऐसे में अगर दोनों नेताओं के बीच परस्पर मुलाकात होती, तो उसके भी अच्छे परिणाम नहीं मिलने वाले थे. इसे समझ शी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी ने एससीओ की शिखर वार्ता में परस्पर बैठक से परहेज किया.' लिन आगे कहते हैं, 'सच तो यह है कि भारत-चीन के रिश्ते सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं. ऐसे में यदि भारत-चीन सीमा पर अप्रैल 2020 से पहले की यथास्थिति आ भी जाए तो भी भारत की विदेश कूटनीति अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति में आने वाली नहीं. चीन को घेरने की अमेरिकी नीतियों पर हामी भर और सहयोग के जरिए भारत काफी आगे बढ़ चुका है.'