Kartavya Path : हमारे संविधान में क्या हैं नागरिकों के मौलिक कर्तव्य?
हमारे संविधान (Constitution Of India) में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ ही मौलिक कर्तव्यों (Fundamental Duties) को भी जगह दी गई है. आइए, जानते हैं कि नागरिकों के मौलिक कर्तव्य क्या हैं, कितने हैं और इसमें कब-क्या जोड़ा गया है.
highlights
- मूल या मौलिक कर्तव्य के अंतर्गत नैतिक और नागरिक दोनों कर्तव्य वर्णित
- मौलिक कर्तव्यों के प्रति विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं में कोई विवाद नहीं
- संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों की कुछ प्रमुख आलोचना भी की जाती है
नई दिल्ली:
सेंट्रल विस्टा (Central Vista) की शुरुआत के साथ ही राजधानी दिल्ली में राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ (Kartavya Path) कर दिया गया है. इसके बाद कर्तव्य पथ लगातार सुर्खियों में है. हालांकि, इसे गुलामी की निशानियों को हटाने के बारे में प्रचारित किया गया. फिर भी लोगों को नागरिक कर्तव्यों की याद दिलाने से जोड़कर भी इस सरकारी पहल को देखा जा रहा है. हमारे संविधान (Constitution Of India) में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ ही मौलिक कर्तव्यों (Fundamental Duties) को भी जगह दी गई है. आइए, जानते हैं कि नागरिकों के मौलिक कर्तव्य क्या हैं, कितने हैं और इसमें कब-क्या जोड़ा गया है.
मौलिक कर्तव्य क्या है
भारतीय संविधान में राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक नागारिक के कुछ सामान्य मुल्यों के आधार पर देशप्रेम और राष्ट्रीय विचारों को बढ़ाने के लिए मौलिक कर्तव्य से संबंधित अनुच्छेद-2 और भाग चार (क) और संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा जोड़े गए. संविधान में मौलिक कर्तव्य को अनुच्छेद 51 के भाग 4 में जोड़ा गया है. मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों की संख्या 10 थी. 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 धारा 11वां मौलिक कर्तव्य जोड़ दिया गया. वर्तमान में भारतीय संविधान में 11 मौलिक कर्तव्य हैं.
ये हैं 11 मौलिक कर्तव्य
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि –
1. संविधान के नियमों का पालन करें और उसके आदर्शों संस्थाओं राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का पालन करें.
2. स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने और उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और पालन करें.
3. भारत की प्रभुता एकता और अखंडता की रक्षा करें और उसे अक्षुण्ण बनाए रखें.
4. देश की रक्षा करें और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करें.
5. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो. ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरोध में हो.
6. हमारे समाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करें.
7. प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं रक्षा करें और उसका संवर्धन करें तथा प्राणीमात्र के प्रति दया भाव रखें.
8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और ज्ञान अर्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें.
9. सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें.
10. व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें.
11. माता-पिता या संरक्षक द्वारा 6 से 14 वर्ष के बच्चों लिए प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करवाना. ( यह मौलिक कर्तव्य 86 सविधान संशोधन अधिनियम 2000 द्वारा जोड़ा गया.)
मौलिक कर्तव्य की खासियत
संविधान में मूल या मौलिक कर्तव्य के अंतर्गत नैतिक और नागरिक दोनों प्रकार के कर्तव्यों को शामिल किया गया है. जैसे नैतिक कर्तव्य - स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करने वाले महान कर्तव्य को पालन करना और नागरिक कर्तव्य - राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय ध्वज एवं संविधान का पालन करना नागरिक कर्तव्य है. मौलिक कर्तव्य केवल भारत के नागरिकों पर लागू होता है, लेकिन कुछ मूल कर्तव्य भारतीय नागरिकों के साथ विदेशी नागरिकों के लिए भी है. हालांकि, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की तरह मूल कर्तव्य के हनन के खिलाफ कोई कानूनी प्रावधान परिभाषित नहीं है.
मौलिक कर्तव्य की उपयोगिता
यह निर्विवाद है. इन मौलिक कर्तव्यों के प्रति विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं में कोई विवाद नहीं है. यह दलगत राजनीति से ऊपर है. इनका आदर्श देश हित की भावना को नागरिकों के हृदय में जागृत करना है. आदर्श और पथ प्रदर्शक भी है. यह कर्तव्य जनता का मार्गदर्शन करेंगे और व्यवहार के लिए आदर्श उपस्थित करने वाले हैं. यह 11 कर्तव्य नागरिकों में जागृति पैदा करने वाले हैं. इन कर्तव्य की पूर्ति का आधार स्वविवेक है. स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस बारे में संसद में कहा था कि अगर मौलिक कर्तव्य को केवल अपने दिमाग में रख लेते हैं तो हम तुरंत एक शांतिपूर्ण क्रांति देखेंगे.
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मौलिक कर्तव्यों की आलोचना
संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों की कुछ आलोचना भी की जाती है. प्रमुख तौर पर आपातकाल के दौरान इसके सृजन होने, 42वें संशोधन के जरिए इन कर्त्तव्यों को एकांगी रूप में संविधान में जोड़ने, न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र से बाहर होने, कर्त्तव्यों के रुप का अस्पष्ट या अपरिभाषित होना और कुछ कर्तव्यों को संविधान में दोहराए जाने को लेकर इसकी आलोचना की जाती है. क्योंकि इनमें से कुछ कर्तव्यों का आदर्शों के रूप में भी संविधान की प्रस्तावना में भी वर्णन किया हुआ है.
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