स्वतंत्रता सेनानी से लेकर शंकराचार्य की उपाधि तक, ऐसे थे स्वरूपानंद सरस्वती

वह 19 साल की उम्र में 'भारत छोड़ो' आंदोलन (1942) में एक स्वतंत्रता सेनानी बन गए और उन्हें 'क्रांतिकारी साधु' (9 महीने और 6 महीने के लिए दो जेल की सजा काटे) के रूप में जाना जाता था.

वह 19 साल की उम्र में 'भारत छोड़ो' आंदोलन (1942) में एक स्वतंत्रता सेनानी बन गए और उन्हें 'क्रांतिकारी साधु' (9 महीने और 6 महीने के लिए दो जेल की सजा काटे) के रूप में जाना जाता था.

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Vijay Shankar
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Shankaracharya Swami Swaroopanand Saraswati

Shankaracharya Swami Swaroopanand Saraswati ( Photo Credit : File)

द्वारका शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का रविवार को मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में 99 वर्ष की आयु में निधन हो गया. हाल ही में 3 सितंबर को उनका 99वां जन्मदिन मनाया गया था. शंकराचार्य ने राम मंदिर समेत कई कानूनी लड़ाइयां लड़ी हैं. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया. स्वरूपानंद सरस्वती को हिंदुओं का सबसे बड़ा धार्मिक नेता माना जाता था. 1924 में सिवनी जिले के जबलपुर के पास दिघोरी गांव में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे जगतगुरु स्वरूपानंद जी सरस्वती ने नौ साल की उम्र में अपना घर छोड़ दिया और हिंदू धर्म को समझने और उत्थान के लिए धर्म की यात्रा शुरू की. उन्होंने वाराणसी सहित भारत के पवित्र स्थानों का दौरा किया जहां उन्होंने अंततः स्वामी करपात्री (उर्फ हरिहरानंद सरस्वती) के साथ अध्ययन किया जो गुरु देव स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे. उन्होंने उत्तर प्रदेश के वाराणसी पहुंचने के बाद स्वामी करपात्री महाराज से वेद और शास्त्र सीखे.

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वह 19 साल की उम्र में 'भारत छोड़ो' आंदोलन (1942) में एक स्वतंत्रता सेनानी बन गए और उन्हें 'क्रांतिकारी साधु' (9 महीने और 6 महीने के लिए दो जेल की सजा काटे) के रूप में जाना जाता था. वर्ष 1950 में गुरु देव ने उन्हें दांडी संन्यासी बना दिया और 1953 में गुरु देव के निधन के बाद एक शिष्य से स्वामी शांतानन्द को 12 जून 1953 को ज्योतिर मठ के शंकराचार्य की गद्दी पर बैठाया गया. 1982 में वे द्वारका, गुजरात में द्वारका शारदा पीठम और बद्रीनाथ में ज्योतिर मठ के शंकराचार्य बने.

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...जब भारत छोड़ो आंदोलन में लिया था भाग

ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दो बार जेल गए. एक बार उन्होंने स्वीकार किया था कि उन्होंने कांग्रेस पार्टी के झंडे के नीचे लड़ाई लड़ी थी, फिर भी उन्होंने 'कांग्रेसी शंकराचार्य' कहलाने से इनकार करते हुए कहा था कि एक शंकराचार्य मानवता के होते हैं न कि किसी विशेष राजनीतिक दल के. उन्हें राम मंदिर आंदोलन के दौरान कई मौकों पर अपने विवादास्पद रुख की वजह से नतीजा भुगतना पड़ा था. वह शायद एकमात्र शंकराचार्य हैं जिन्हें 1991 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार ने मिर्जापुर के चुनार किले में जेल में डाल दिया था.  

जब मोदी सरकार को दी थी चुनौती

स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती पीएम मोदी के जाने माने आलोचकों में से एक माने जाते थे. वर्ष 2019 के आम चुनावों की पूर्व संध्या पर उन्होंने एक बार फिर मोदी सरकार को चुनौती दी थी, जब 30 जनवरी, 2019 को प्रयागराज में कुंभ के दौरान उन्होंने राम मंदिर की नींव रखने के लिए 21 फरवरी को अयोध्या तक मार्च निकालने का आह्वान किया था. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने अयोध्या में राम मंदिर के 'भूमिपूजन' के 5 अगस्त 2022 के मुहूर्त को उस समय 'अशुभ' बताते हुए विवाद खड़ा कर दिया था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंदिर की नींव रखने वाले थे.

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