लालची चीन भारत से मांग रहा 443 करोड़ का हर्जाना... आखिर मसला क्या है!
एक रेल कांट्रेक्ट रद्द करने से बौखलाया चीन भारत से हर्जाना मांग रहा है. अपनी बौखलाहट में वह सिंगापुर के द इंटरनेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स के जरिये पूरे प्रकरण को अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के लिए ले गया है.
highlights
- चीन सरकार के नियंत्रण वाली कंपनी को डेडिकेटेड फ्राइट कॉरिडोर के काम का ठेका दिया गया
- काम की धीमी गति और कई अनियमितताओं के सामने आने के बाद भारत ने अनुबंध कर दिया रद्द
- अब अनुबंध रद्द करने को अवैध बता कर चीनी कंपनी ने भारत से मांगा है करोड़ों रुपये का हर्जाना
नई दिल्ली:
लद्दाख में सीमा विवाद से द्विपक्षीय संबंधों में आए तनाव को खत्म कर राजनीतिक संबंधों की बहाली के लिए भारत और चीन चरणबद्ध तरीके से काम कर रहे हैं. इसके साथ ही दोनों देश एक मोर्चे पर और लड़ रहे हैं. यह मौर्चा है भारतीय रेलवे से जुड़े एक रेलवे कांट्रेक्ट का, जिसे 2020 में पूर्वी गलवान घाटी में भारतीय सेना (Indian Army) और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के सैनिकों में हुए हिंसक संघर्ष के बाद भारत सरकार (Modi Government) ने रद्द कर दिया था. अब चीन (China) कांट्रेक्ट रद्द होने पर भारत से 471 करोड़ रुपये का हर्जाना मांग रहा है और पूरे मामले को अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के लिए ले गया है. जून 2020 में चीन सरकार के नियंत्रण वाली सीआरएससी रिसर्च एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट ग्रुप को दिया ठेका भारत ने रद्द कर दिया था. इस ठेके के तहत चीनी कंपनी को आकार ले रहे ईस्टर्न डेडिकेटेड फ्राइट कॉरिडोर के कानपुर और दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन के बीच 417 किमी की रेल लाइन पर सिग्नल और टेलीकॉम सिस्टम लगाना था. इसी ठेके को रद्द करने से बौखलाया चीन सिंगापुर के द इंटरनेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स के जरिये पूरे प्रकरण को अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के लिए ले गया है. चीनी कंपनी ने तमाम अन्य बातों के समेत दावा किया है कि डेडिकेटेड फ्राइट कॉरिडोर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (डीएफसीसीआईएल) ने उसे काम का भुगतान नहीं किया है, जो उसने ठेका रद्द होने से पहले रेल लाइन पर किया था. चीन ने इसके साथ ही भारत में काम करने के दौरान सामने आई विभिन्न बातों का उल्लेख भी किया है, जिस पर उसका नियंत्रण नहीं था.
यह है पूरा विवाद और दोनों पक्षों के दावे
सीआरएससी ने हर्जाने के लिए पहले 279 करोड़ का दावा किया था. फिर संशोधित कर हर्जाने की राशि 443 करोड़ रुपये कर दी. इसके अलावा सीआरएससी अपनी बैंक गारंटी भी वापस चाहती है, जो डीएफसीसीआईएल ने जब्त कर ली है. गौरतलब है कि किसी ठेके को हासिल करने से पहले की शर्त के तहत ठेकेदार को बैंक गारंटी के रूप में एक रकम जमा करनी होती है. बतौर हर्जाना मांगी गई धनराशि में जब्त राशियों पर ब्याज, काम के दौरान बढ़े खर्च समेत कांट्रेक्चुअल डिपॉलयमेंट आदि मसले भी शामिल हैं. चीनी कंपनी के हर्जाने के दावे के जवाब में भारत ने 234 करोड़ रुपए का काउंटर क्लेम दायर किया है, जो शुरुआती दौर में 71 करोड़ रुपये था. भारत ने बाद में इसे संशोधित कर उक्त हर्जाने का दावा किया है. डीएफसीसीआईएल ने इस हर्जाने के दावे के लिए मोबलाइजेशन एडवांस, रिटेंशन मनी और ठेका रद्द होने के वक्त बैलेंस को आधार बनाया है. इसके अलावा बैंक गारंटी की जब्ती को भी सही करार दिया है. चीनी पक्ष इस बात पर अड़ा है कि ठेका रद्द करना अवैध है. चीनी कंपनी ने इसके लिए डीएफसीसीआईएल पर ठीकरा फोड़ते हुए कहा है कि उसने अनुबंध को खत्म करने के लिए निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया. अनुबंध की शर्तों के अनुरूप भारत-चीन के दावे-प्रतिदावे के लिए अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय के नियमों के तहत एक न्यायाधिकरण का गठन भी किया जा चुका है. न्यायाधिकरण ने दोनों पक्षों से विभिन्न प्रस्तुतियां मांगी है, जिसे तैयार करने की प्रक्रिया में दोनों ही पक्ष लगे हुए हैं.
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चीन के लिए यह ठेका इसलिए है महत्वपूर्ण
चीन के लिए भारतीय रेलवे से जुड़ा यह ठेका कई मोर्चों के लिहाज से महत्वपूर्ण था. सबसे पहले तो रेलवे के क्षेत्र में चीन का यह सबसे बड़ा अनुबंध था, जो भारत ने रेलवे सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील सिग्नल और टेलीकम्युनिकेशन प्रणाली के लिए 2016 में चीन को दिया था. दूसरे, डेडिकेटेड फ्राइट कॉरिडोर से जुड़ा अनुबंध चीन को इस क्षेत्र में पैर जमाने में मदद करने वाला था. इस कॉरिडोर के पश्चिमी हिस्से को जापान का तकनीकी सहयोग और वित्त पोषण मिल रहा है. भारत डेडिकेटेड फ्राइट कॉरिडोर को और विस्तार देना चाह रहा है. ऐसे में यह ठेका पूरा कर चीनी कंपनी भविष्य में भी भारत से इस तरह के अनुबंध हासिल करने की इच्छा रखती है. वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत-चीन सैनिकों के हिंसक संघर्ष के बाद दोनों देशों में आए तनाव के बीच ठेके का अनुबंध रद्द होना चीन के लिए एक बड़ा झटका है.
भारत ने अनुबंध खत्म करने के लिए इसे बनाया आधार
भारत ने अनुबंध रद्द करने के निर्णय के पीछे दोनों देशों के बीच जारी राजनीतिक तनाव को जिम्मेदार नहीं ठहराया है. ठेका रद्द करने के पीछ भारत ने कार्य की धीमी गति को बड़ा कारण बताया है. इस काम की शुरुआत 2016 में हो गई थी, लेकिन 2020 तक महज 20 फीसदी काम ही हुआ था. जाहिर है इससे परियोजना अपने नियत पूरा होने की तारीख से काफी पीछे रह गई. चीनी कंपनी स्थानीय गठजोड़ के नहीं होने से पर्याप्त संसाधन जुटाने में भी असमर्थ रही. परिणामस्वरूप डीएफसीसीआईएल अधिकारियों के प्रोजेक्ट साइट के मुआयने पर चीनी कंपनी की कई खामियां सामने आईं. कई बार इंजीनियर और अधिकृत अधिकारी साइट से अनुपस्थित मिले. चीनी कंपनी की सामग्री खरीद भी धीमी आंकी गई. भारतीय अधिकारियों का कहना है कि चीनी संस्था प्रोजेक्ट से जुड़े तकनीकी दस्तावेज उनके साथ साझा करने में संकोच कर रही थी. मसलन लॉजिक डिजाइन और इंटरलॉकिंग से जुड़े उपकरण. यह तब था जब अनुबंध की शर्तों में यह भी शामिल था. भारतीय रेलवे के अधिकारी एक ऐसा सिस्टम चाहते थे, जो अन्य सिस्टम के साथ आसानी से सिंक हो जाए. ऐसे में उन्हें तकनीकी दस्तावेज चाहिए थे और यह काम भी नहीं हो रहा था.
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चीनी कंपनी को बाहर करने के बाद स्थिति
चीनी कंपनी का ठेका रद्द करने के बाद डेडिकेटेड फ्राइट कॉरिडोर के इसी काम के लिए दोबारा टेंडर निकाले गए. इस बार सिमेंस की अगुवाई में भारतीय ठेकेदारों के समूह ने यह ठेका हासिल किया. ये समूह 494 करोड़ रुपये में इस काम को अंजाम दे रहा है और अब तक 48 फीसदी काम हो चुका है.
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