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World War II: गोवा के Operation Creek और अंग्रेजों के 'भ्रमजाल' से हारा जर्मनी!

इसका बेस बना कोलकाता. जी हां, कोलकाता जब कलकत्ता (Culcatta) था. और यहां से सैकड़ों किलोमीटर दूर हिंदुस्तान के दूसरे कोने लेकिन तब पुर्तगाली कब्जे में रहा गोवा बना था निशाना. जमीन पर तो नहीं, लेकिन समंदर के किनारे किए गए इस कोवर्ट ऑपरेशन...

Updated on: 04 Oct 2022, 01:31 PM

highlights

  • ऑपरेशन क्रीक ने तोड़ा नाजी जर्मन का हौसला
  • यू-बोट्स को मिलने वाले इनपुट हो गए बंद
  • सालों बाद दुनिया 1974 में जान पाई सच

नई दिल्ली:

दुनिया दूसरे विश्वयुद्ध (World War II) में फंसी थी. हर तरफ जर्मनी की सेनाओं का खौफ था. समंदर में जर्मनी की यू-बोट्स (German U-Boats) के आगे दुनिया की हर समुद्री ताकत एकदम विफल नजर आ रही थी. जर्मनी की यू-बोट्स ने अटलांटिक से लेकर हिंद महासागर में तहलका मचा रखा था. मित्र देशों के जहाजों का समंदर में उतरना मुहाल हो गया था. सामान तो सामान, पूरा जहाज ही समंदर में डुबो दिया जाता था. यूरोप में सामानों की कमी हो रही थी. जर्मनी तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था. हिंद महासागर में तो जर्मन यू-बोट्स को कोई चुनौती ही नहीं मिल रही थी. जर्मन यू-बोट्स लगातार स्कोर बढ़ाते जा रहे थे. लेकिन इस बीच अंग्रेजों ने एक ऐसे 'कोवर्ट ऑपरेशन' को अंजाम दिया, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध की दिशा और दशा ही बदल दी. इसका बेस बना कोलकाता. जी हां, कोलकाता जब कलकत्ता (Culcatta) था. और यहां से सैकड़ों किलोमीटर दूर हिंदुस्तान के दूसरे कोने लेकिन तब पुर्तगाली कब्जे में रहा गोवा बना था निशाना. जमीन पर तो नहीं, लेकिन समंदर के किनारे किए गए इस कोवर्ट ऑपरेशन (Covert Operation) ने धुरी शक्तियों की रीढ़ की हड्डी ही तोड़ दी. इस कोवर्ट ऑपरेशन का नाम था 'ऑपरेशन क्रीक (Operation Creek)'. ऑपरेशन क्रीक को Operation Longshanks नाम से भी जाना जाता है. इसे 1943 में अंजाम दिया गया था. वो भी पुर्तगालियों का भरोसा तोड़कर. हालांकि दुनिया को ये बात बहुत बाद में पता चली कि ब्रिटेन ने पुर्तगाल की पीठ में छुरा घोंपा है.

ऑपरेशन क्रीक क्या था?

हिंद महासागर (Indian Ocean) में ब्रिटेन बड़ी शक्ति था. लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने अटलांटिक महासागर से लेकर हिंद महासागर में ऐसी दहशत मचाई कि यूरोप को जरूरी चीजों की सप्लाई तक लगभग पड़ गई थी. सामान लेकर गुजर रहे बड़े-बड़े जहाजों को जर्मनी की यू-बोट्स डुबो देती थी. यू-बोट्स बहुत तेजी से चलने वाली ऐसी पनडुब्बियां थी, जिनका जवाब मित्र देशों के पास था ही नहीं. इस बीच अंग्रेजों के हाथ में जर्मनी की यू-बोट्स से जुड़ी बड़ी जानकारी आई, तो उन्होंने ऑपरेशन क्रीक की रूपरेखा तय की. दरअसल, जर्मनी की यू-बोट्स के जिन ट्रांसमीटर्स से मैसेज पास करती थी, उसका स्टेशन एक बड़े व्यापारिक जहाज पर लगा था. वो जहाज गोवा के मार्मुगाव पोर्ट पर खड़ा था. यहीं पर जर्मनी के दो और इटली का एक बड़ा व्यापारिक जहाज भी खड़ा था. लेकिन अंग्रेजों के लिए ये बड़ी मुश्किल बात थी. गोवा उस समय और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भी पुर्तगाल के कब्जे में था. और पुर्तगाल द्वितीय विश्वयुद्ध से बिल्कुल अलग था. वो किसी भी गुट के साथ नहीं था और न ही कोई लड़ाई लड़ रहा था. ऐसे में पुर्तगाल की टेरिटरी में घुस कर अंग्रेजों ने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया. और इसके बाद जो अफवाह फैलाई, उसने जर्मन नेवी के हौसले को ही तोड़ दिया. इसके बारे में हम आगे बता रहे हैं. 

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'कलकत्ता लाइट हॉर्स' और 'कलकत्ता स्कॉटिस' ने दिया ऑपरेशन को अंजाम

ऑपरेशन क्रीक को अंजाम देने वाली टीम कलकत्ता बेस्ड थी. ऑपरेशन में महज 18 लोग शामिल थे. ये पानी के रास्ते कलकत्ता से चले और फिर कोचीन पहुंचे. यहां सभी एक साथ मिले और फिर गोवा की तरफ कूच कर दिया. खास बात ये थी कि 'ऑपरेशन क्रीक' को अंजाम देने वाले सभी सैनिक अंग्रेजी सेना में काम नहीं करते थे. क्योंकि इसे अंजाम दिया था 'कलकत्ता लाइट हॉर्स' और 'कलकत्ता स्कॉटिस' ने. कलकत्ता लाइट हॉर्स (Calcutta Light Horse) कैलवरी रेजीमेंट थी, जो कलकत्ता बेस्ड थी. वहीं कलकत्ता स्कॉटिस (Calcutta Scottish) ब्रिटेन के लिए हिंदुस्तान में काम करने वाले स्कॉटिस मूल के लोगों से बनी ऐसी टुकड़ी थी, जो अपने दूसरे कामों को करते हुए भी सैन्य सेवा देते थे. ये एक तरह से वालंटियर थे. लेकिन जब ऑपरेशन क्रीक को अंजाम देने का समय आया तो 'कलकत्ता लाइट हॉर्स' और 'कलकत्ता स्कॉटिस' ने मोर्चा संभाला. 

ऑपरेशन क्रीक ऐसे दिया गया अंजाम

'ऑपरेशन क्रीक' को अंजाम देने वाली टीम के सदस्य 'फोएबे' नाम 'हॉपर बार्ज' में सवार होकर निकले. 'हॉपर बार्ज' एक तरह से ट्रैक्टर के पीछे लगने वाली ट्रॉली की तरह होता है. इसका मतलब है कि वो उसे किसी जहाज के पीछे 'टो' किया जाता है. इस हॉपर बार्ज पर हथियारों से लैस टीम पहुंची, तो बाकी के टीम मेंबर ट्रेन के सहारे कोचीन पहुंचे. यहां से सभी लोग किसी दूसरे जहाज के सहारे 'फोएबे' के साथ वास्को-डि-गामा के बंदरगाह पर पहुंचे. वास्को डि-गामा मार्मुगाव का ही हिस्सा है. यहां एक बड़ी पार्टी हो रही थी. ये पार्टी सालाना जलसे का हिस्सा थी, जहां 9-10 मार्च 1943 की रात सभी लोग 'कार्निवॉल' सेलीब्रेट करते थे. चूंकि पुर्तगाल युद्ध में शामिल नहीं था, तो वहां खुल कर सारे त्योहार मनाए जाते थे. ऐसे में ऑपरेशन क्रीक के एक सदस्य ने सरकारी पैसों पर बहुत बड़ी पार्टी की. चूंकि वो सभी व्यापारियों की तरह ही वहां पहुंचे थे. ऐसे में किसी को उनपर शक नहीं हुआ. पोर्ट पर मौजूद सभी जहाजों के सदस्यों को कार्निवॉल में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया. चूंकि ऑपरेशन क्रीक का मकसद था, दुश्मन के 4 बड़े जहाजों पर कब्जा करना. और उस ट्रांसमीटर को नष्ट करना, जिसके दम पर यू-बोट्स ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. ऐसे में 'कार्निवॉल' की रात अंग्रेजों के लिए वरदान बन गया था. चूंकि 'कार्निवॉल' की वजह से लाइटहाउस और मार्मुगाव पोर्ट के कर्मचारी काम पर नहीं थे. और बाकी के जहाजों के सदस्य कार्निवाल में शामिल होने गए थे. सिवाय उन 4 जहाजों के कुछ सदस्यों के, जो जहाजों पर मौजूद थे और अपने काम में लगे थे. निशाने पर जो जहाज थे, उनके नाम थे ऐरेनफेल्स (Ehrenfels), ड्रैकेनफेल्स (Drachenfels), ब्रॉनफेल्स (Braunfels) और इटली का एंफोरा (Anfora). कार्निवाल की वजह से वहां सुरक्षा भी कम थी, ऐसे में 18 सदस्यीय टीम ने ऐरेनफेल्स पर हमला बोल दिया. उन्होंने कैप्टेन समेत 5 नाविकों की हत्या कर दी. ट्रांसमीटर को नष्ट कर दिया. और जब लगा कि वो ऐरेनफेल्स जहाज को वहां से नहीं निकाल सकते, तो उन्होंने ऐरेनफेल्स में आग लगा दी और उसे डुबोने वाला सिस्टम चला दिया. हर तरफ आग फैल गई. और 'फोएबे' पर आए सभी ऑपरेटिव उस जहाज से निकलने लगे. ऐसे में जर्मनी और इटली के नाविकों ने जब देखा कि ऐरेनफेल्स पर हमला हुआ है और वो सुरक्षित नहीं निकल सकते, तो उन्होंने अपने बाकी के तीनों जहाजों के खुद को नष्ट करने वाले सिस्टम (Scuttling) को चालू कर दिया. और सभी जहाज पानी में डूब गए. अंग्रेजों ने इस ऑपरेशन को अंजाम दे दिया था और वो निकल भागे.

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अंग्रेजों ने कैसे फैलाया भ्रम जाल?

ब्रिटिश सरकार ने इस ऑपरेशन के बाद घोषणा कर दी कि वो गोवा का घेरा डाल रही थी. हालांकि उसने ऐसा किया नहीं. लेकिन इस घोषणा के बाद धुरी शक्तियों से जुड़े जहाजों के कप्तानों को निर्देश मिले कि वो अपनी जहाजों को डुबो दें. ताकि ब्रिटेन के हाथ कुछ खास न लगे. न ही जहाज पर वो कब्जा कर पाए और न ही कोई सामान मिले. साथ ही उन पर तैनात नाविकों को बंदी भी न बनाया जा सके. ऐसे में बहुत सारे जहाजों को डुबो दिये जाने से ब्रिटेन का लक्ष्य हासिल हो चुका था. उसने गोवा पर कभी हमला ही नहीं किया. लेकिन इस ऑपरेशन के बाद अपनी जहाजों को डुबोकर समंदर किनारे पहुंचने वाले जर्मन नाविकों को पुर्तगीज सेना ने पकड़ लिया. उन पर अपनी ही जहाजों को डुबोने का मुकदमा चलाया गया. क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि वो जिन्हें पकड़ रहे हैं, उन्होंने अपने बचाव में ऐसा किया. हालांकि पुर्तगाल ने सभी पकड़े गए नाविकों के साथ अच्छा व्यवहार किया और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उन्हें आजाद कर दिया. कुछ जो पकड़े जाने की जगह मार्मुगाव से भागने में कामयाब रहे, वो अपने देशों में पहुंच गए, जो पकड़े गए उनमें से कुछ गोवा में ही रुक गए और अपनी नई जिंदगियां शुरू की.

ऑपरेशन क्रीक ने तय कर दी जर्मनी की हार!

ऑपरेशन क्रीक (Operation Creek) के बारे में दुनिया को जानकारी मिली साल 1974 में, जब ब्रिटिश सरकार ने इस ऑपरेशन की जानकारियां डि-क्लासिफाइड की. इसका मतलब है कि इस कोवर्ट ऑपरेशन के बारे में दुनिया अंजाम ही रही, जबकि इसने द्वितीय विश्व युद्ध की दिशा और दशा बदलने में बहुत अहम भूमिका निभाई थी.  इसकी जानकारी 1974 में मिली, जिसके बाद पत्रकार जेम्स लीजर ने 1978 में 'बोर्डिंग पार्टी' नाम से किताब लिखी. इस किताब पर एक फिल्म भी बनी, जिसका नाम 'द सी वुल्फ्स' था. ये फिल्म 1980 में बनी थी. जिसमें बताया गया है कि मार्च महीने के शुरुआती 11 दिनों में जर्मनी की यू-बोट्स ने हिंद महासागर में 12 जहाजों को डुबोया था. इसके बाद पूरे महीने में सभी यू-बोट्स मिलकर भी महज एक जहाज को डुबोने में कामयाबी पाई. इस तरह से ब्रिटेन की सप्लाई लाइन हिंद महासागर (Indian Ocean) में फिर से जुड़ गई. और ब्रिटेन धीरे-धीरे खुद को मजबूत करता चला गया. हालांकि इस ऑपरेशन को अंजाम देने वाली टीम को कोई अवॉर्ड नहीं मिला. क्योंकि आधिकारिक तौर पर इसे स्वीकारा ही नहीं गया था. इसकी वजह ये थी कि अगर ब्रिटेन इस हमले को स्वीकारता, तो ये पुर्तगाली जमीन पर हमला होता. जिसकी वजह से दोनों देशों के संबंध बिगड़ जाते. ऐसे में अंग्रेजों ने इसे गुप्त ही रखा. साल 1947 में भारत आजाद हो गया. 'कलकत्ता लाइट हॉर्स' और 'कलकत्ता स्कॉटिस' को बंद कर दिया गया. सभी लोग अपने-अपने देशों को लौट गए, एक गुमनाम सिपाही की तरह. महज 1978 के बाद जब दुनिया ने 'बोर्डिंग पार्टी' किताब के माध्यम से इस दिलेर ऑपरेशन के बारे में जाना, तो सभी ने उन गुमनाम सिपाहियों को सलाम किया, जिन्होंने इसे गुमनाम रहकर अंजाम दिया और फिर गुमनामी के अंधेरे में कहीं खो गए.