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वीर सावरकर ने अंग्रेजों से कभी नहीं मांगी माफी, कांग्रेस का है एक और दुष्प्रचार

अब जब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी वीर सावरकर के योगदान के अनुरूप उन्हें भारत रत्न (Bharat Ratna) देने के रास्ते पर है, तो कांग्रेस फिर से वीर सावरकर को 'अंग्रेजों का पिट्ठु' समेत काला पानी की सजा से बचने के लिए 'अंग्रेजों से दया याचिका' को दुष्प्रचार कर रही है.

Updated on: 17 Oct 2019, 04:15 PM

highlights

  • कांग्रेस का एक और दुष्प्रचार है वीर सावरकर का अंग्रेजों से दया याचिका प्रसंग.
  • अपनी आत्मकथा 'माय ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ' में इस बारे में साफ-साफ लिखा.
  • मुस्लिम तुष्टीकरण प लगातार चेताते आए, लेकिन गांधी और कांग्रेस नहीं माने.

New Delhi:

स्वतंत्रता आंदोलन (Indian Independence) में क्या महात्मा गांधी (Mahatama Gandhi) और भगत सिंह (Bhagat Singh) के योगदान को भुलाया जा सकता है? एक क्रांतिकारी (Revolutionary) और दूसरा सत्याग्रही (Satyagrahi), फिर भी दोनों का लक्ष्य एक ही था- अंग्रेजों से देश को पूर्ण आजादी दिलाना. सच तो यह है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में हजारों आहुतियां पड़ीं, लेकिन हरएक आहुति देने वाले की पहचान सामने नहीं आ सकी. अगर पहचान सामने आई भी तो उसे तत्कालीन 'पॉवर एलीट' (Power Elite) ने कमतर दिखाने की कोशिश शुरू कर दी. 'पॉवर एलीट' यानी गांधी-नेहरू (Gandhi-Nehru)परिवार, जिन्होंने हर उस नाम को पीछे करने की कोशिश की जो गांधी-नेहरू की सरपरस्ती में नहीं था. इस श्रेणी में सुभाष चंद्र बोस से लेकर, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभभाई पटेल, बी.आर. आंबेडकर तो आधुनिक भारत में लाल बहादुर शास्त्री से लेकर पीवी नरसिम्हा राव तक एक लंबी फेहरिस्त है. इस कड़ी में एक नाम हिंदू राष्ट्र के प्रबल पक्षधर रहे विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) उर्फ वीर सावरकर का भी है. कांग्रेस वीर सावरकर के 'प्रभाव और कद' से इस कदर पीड़ित थी कि उसने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे से उनका नाम जोड़ने में पल भर की देर नहीं की थी. अब जब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी वीर सावरकर के योगदान के अनुरूप उन्हें भारत रत्न (Bharat Ratna) देने के रास्ते पर है, तो कांग्रेस फिर से वीर सावरकर को 'अंग्रेजों का पिट्ठु' समेत काला पानी की सजा से बचने के लिए 'अंग्रेजों से दया याचिका' को दुष्प्रचार कर रही है.

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गांधी से कहीं पहले देश को समर्पित हो चुके थे सावरकर
बगैर यह सोचे-समझे कि वीर सावरकर का राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान समेत हिंदू राष्ट्र की अवधारणा से क्या आशय था. वीर सावरकर के राष्ट्र प्रेम और अंग्रेजों से आजादी के उद्देश्य पर कतई कोई शक नहीं किया जा सकता. जिस वक्त गांधी महात्मा नहीं बने थे और सिर्फ मोहनदास करमचंद गांधी के तौर पर दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव और नस्लीय दुराग्रह के प्रति दुनिया भर का ध्यान आकृष्ट कराने में लगे थे. मोहनदास करमचंद गांधी के लिए तब तक भारत कर्म भूमि नहीं बना था. यह दौर 1906 के आसपास का था. उस वक्त सावरकर लंदन में अंग्रेजों के खिलाफ दुनिया भर में न सिर्फ समर्थन जुटा रहे थे, बल्कि कानून की पढ़ाई कर अंग्रेजों से तार्किक-कानूनी लड़ाई के लिए खुद को तैयार कर रहे थे. तब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में चल रहे इस संघर्ष में सावरकर का सहयोग लेने लंदन गए थे और वहीं उनकी मुलाकात हुई थी. इसकी पुष्टि नीलांजन मुखोपाध्याय की किताब 'द आरएसएस-आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट' में उद्धत एक किस्से से भी होती है. एक ऐसा शख्स जो अंग्रेजों से हर लिहाज से मोर्चा लेने की तैयारी कर रहा हो, उसे कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए अंग्रेजों का पिट्ठु करार दे दिया.

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अंग्रेजों से दया याचिका का सच
इस मसले पर उपलब्ध ऐतिहासिक दस्तावेज और उससे जुड़े संदर्भ ग्रंथ भी सावरकर को एक कट्टर देशभक्त साबित करते हैं. इतिहासकार और लेखक विक्रम संपथ ने सावरकर की आत्मकथा लिखी है. उन्होंने अपनी किताब 'सावरकर- इकोज़ फ्रॉम अ फॉरगॉटन पास्‍ट' में सावरकर के जीवन के कई अनछुए पहलुओं को उजागर किया है. इसमें अंग्रेजों को लिखी गई दया याचिका (British congress apology) पर भी विस्तार से चर्चा की गई है. सावरकर को लेकर यह बहुत बड़ा भ्रम फैलाया जाता है कि उन्होंने दया याचिका दायर कर अंग्रेजों से माफी मांगी थी. सच तो यह है कि ये कोई दया याचिका नहीं थी, ये सिर्फ एक याचिका थी. जिस तरह हर राजबंदी को एक वकील करके अपना मुकदमा लड़ने की छूट होती है उसी तरह सारे राजबंदियों को याचिका देने की छूट दी गई थी. वे एक वकील थे उन्हें पता था कि जेल से छूटने के लिए कानून का किस तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं. उनको 50 साल का आजीवन कारावास सुना दिया गया था, तब वह 28 साल के थे. अगर सावरकर जिंदा वहां से लौटते तो 78 साल के हो जाते. इसके बाद क्या होता? न तो वह परिवार को आगे बढ़ा पाते और न ही देश की आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दे पाते. उनकी मंशा थी कि किसी तरह जेल से छूटकर देश के लिए कुछ किया जाए. 1920 में उनके छोटे भाई नारायण ने महात्मा गांधी से बात की थी और कहा था कि आप पैरवी कीजिए कि कैसे भी ये छूट जाएं. गांधी जी ने खुद कहा था कि आप बोलो सावरकर को कि वह एक याचिका भेजें अंग्रेज सरकार को और मैं उसकी सिफारिश करूंगा. गांधी ने लिखा था कि सावरकर मेरे साथ ही शांति के रास्ते पर चलकर काम करेंगे तो इनको आप रिहा कर दीजिए. ऐसे में याचिका की एक लाइन लेकर उसे तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है.

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काला पानी की सजा में ढाए गए अकल्पनीय जुल्म
11 जुलाई 1911 को सावरकर को अंडमान जेल पहुंचाया जाता है, जिसे उस वक्त काला पानी (Kala Pani) के नाम से जाना जाता था. काला पानी की सजा का नाम सुनते ही बड़े-बड़ों के होश फाख्ता हो जाते थे. फिर सावरकर को तो डी श्रेणी का अपराधी ठहराया गया था. उन्हें महीनों काल कोठरी में रखा गया. एक ऐसी कोठरी जहां से फांसी का तख्त साफ दिखाई देता था. मकसद सिर्फ उनका मनोबल तोड़ना था. उन्हें राजनीतिक बंदी बतौर कोई सुविधा नहीं दी गई. यहां तक कि सावरकर से काल कोठरी में कोल्हू के बैल की तरह काम लिया गया. उन्हें पैरों और गले में बेड़ियां पहना कर लगातार कई-कई महीने रखा गया. इसी अवस्था में उन्हें अपने दैनिक नित्य कर्म करने होते थे. जेल के दूसरे साथियों से दूर इस कदर अमानवीय सजा 78 साल की उम्र तक भुगतते-भुगतते वह स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान कितना दे पाते, इसे सिर्फ समझा ही जा सकती है. ऐसे में अंग्रेजों के ही बनाए कानून की मदद से जेल से रिहा होकर अपनों के बीच पहुंच अपनी लड़ाई लड़ने के लिए सारवकर ने अंग्रेजों को याचिका लिखीं. पहली याचिका उन्होंने काला पानी की सजा काटने के डेढ़ महीने में यानी 29 अगस्त को लिखी. इसके बाद 9 सालों में उन्होंने 6 बार अंग्रेज़ों को माफ़ी पत्र दिए.

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भूमिगत रह कर देश की आजादी मुख्य मकसद
बाद में सावरकर ने खुद और उनके समर्थकों ने अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने को इस आधार पर सही ठहराया था कि ये उनकी रणनीति का हिस्सा था, जिसकी वजह से उन्हें कुछ रियायतें मिल सकती थीं. सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, 'अगर मैंने जेल में हड़ताल की होती तो मुझसे भारत पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता.' इसी बात को सावरकर के खिलाफ इस्तेमाल में लिया गया. कुछ लोग तर्क देते हैं कि भगत सिंह के पास भी माफ़ी मांगने का विकल्प था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. तब सावरकर के पास ऐसा करने की क्या मजबूरी थी? इसे ऐसा समझा जा सकता है कि भगत सिंह और सावरकर में बहुत मौलिक अंतर है. भगत सिंह ने जब बम फेंका तो वह वहां से भागे नहीं. उसी दिन उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें फांसी का फंदा चाहिए. दूसरी तरफ़ वीर सावरकर एक चतुर क्रांतिकारी थे. उनकी कोशिश थी कि भूमिगत रह कर देश की आजादी के लिए काम किया जाए. सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े कि उनके माफ़ी मांगने पर लोग क्या कहेंगे. उनकी सोच ये थी कि अगर वह जेल के बाहर रहेंगे तो वह जो करना चाहेंगे, वह कर सकेंगे. यहां यह याद दिलाना भी उचित होगा कि अंग्रेज अधिकारी की हत्या के लिए पिस्टल उपलब्ध कराने के आरोप में 'एसएस मौर्य' नाम के पानी के जहाज़ से उन्हें भारत लाया जा रहा था. जब वह जहाज़ फ्रांस के मार्से बंदरगाह पर 'एंकर' हुआ तो सावरकर जहाज़ के शौचालय के 'पोर्ट होल' से बीच समुद्र में कूद गए. हालांकि उनके पीछे-पीछे पानी में कूदे अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें कुछ मिनटों के बाद ही फिर से गिरफ्तार कर लिया. इस तरह सावरकर की कुछ मिनटों की आज़ादी ख़त्म हो गई और अगले 25 सालों तक वह किसी न किसी रूप में अंग्रेज़ों के क़ैदी रहे.

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अंग्रेजों की पेंशन का सच
इसके बाद कथित याचिका के बल पर जेल से रिहा होने के बाद सावरकर को रत्नागिरी में ही रहने को कहा गया था. अंग्रेज उन पर नजर रखते थे. उनकी सारी डिग्रियां और संपत्ति जब्त कर ली गई थी. सावरकर ने अपनी आत्मकथा 'माय ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ' में पेज नंबर 301 पर इस बारे में साफ-साफ लिखा है. वह लिखते हैं, 'अंडमान में रहते हुए भले ही मैं कितने ही अच्छे काम कर लेता. भले ही मैं वहां के लोगों में जागरूकता फैला पाता, लेकिन स्वतंत्र व्यक्ति बतौर वह सब अपने देश के लिए नहीं कर पाता, जो जेल से बाहर रहते हुए सक्षम था'. वह आगे लिखते हैं, 'दूसरी तरफ अपनी आजादी को हासिल करने के लिए मैं कोई भी अनैतिक काम करने को तैयार नहीं हूं. ऐसा काम नहीं करूंगा, जिससे मुझे आत्मग्लानि हो या मेरे देश की आन-बान-शान पर कोई बट्टा लगे. इस तरह से हासिल की गई आजादी वास्तव में अनैतिक होगी और स्वतंत्रता के आंदोलन पर एक बदनुमा दाग.' (पेज नंबर 245) अब कांग्रेस के दूसरे दुष्प्रचार पर आते हैं कि अंग्रेजों की पिट्ठुगिरी के एवज में उन्हें पेंशन मिलती रही, तो ब्रिटिश कानून के तहत सशर्त रिहाई प्राप्त सभी राज बंदियों को पेंशन दी जाती थी. उस समय अंग्रेजों का यह नियम था कि हम आपको काम करने की छूट नहीं देंगे, आपकी देखभाल हम करेंगे. ऐसे में सावरकर को अंग्रेज सरकार 60 रुपए देती थी, जो जेल से रिहा हुए सभी राजनीतिक कैदियों को दी जाती थी.

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मुस्लिम परस्ती पर कांग्रेस को चेताया था सावरकर ने
अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व-हू इज़ हिंदू?' जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया. हिंदुत्व को सावरकर एक राजनीतिक घोषणापत्र के तौर पर इस्तेमाल करते थे. हिंदुत्व की परिभाषा देते हुए उनका आशय बिल्कुल स्पष्ट था कि इस देश का इंसान मूलत: हिंदू है. इस देश का नागरिक वही हो सकता है जिसकी पितृ भूमि, मातृ भूमि और पुण्य भूमि यही हो. पितृ और मातृ भूमि तो किसी की हो सकती है, लेकिन पुण्य भूमि तो सिर्फ़ हिंदुओं, सिखों, बौद्ध और जैनियों की ही हो सकती है, मुसलमानों और ईसाइयों की तो ये पुण्यभूमि नहीं है. इस परिभाषा के अनुसार मुसलमान और ईसाई तो इस देश के नागरिक कभी हो ही नहीं सकते. इस आधार पर कांग्रेस ने यह दुष्प्रचार किया कि सावरकर न सिर्फ अंग्रेजों को पिट्ठु थे, बल्कि उनकी नीयत के अनुरूप दि्वराष्ट्र का सिद्धांत पेश करने वाले पहले शख्स थे, ना कि आवामी लीग. सच तो यह है कि सावरकर ने कई बार कांग्रेस को उस वक्त मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से बाज आने को कहा था. उनका कहना था कि हिंदू हितों पर मुस्लिम परस्ती देश को ही अंततः भारी पड़ेगी. यही हुआ भी आजादी के बाद भी कांग्रेस और उसके गांधी परिवार को समर्पित नेता मु्स्लिम तुष्टीकरण से बाज नहीं आए और आजाद भारत को कई ऐसी समस्याओं से नवाज गए, जिनसे निपटने में फरिश्तों को भी डर लग रहा है. ऐसी ही एक समस्या अयोध्या विवाद है, जो तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री राजीव गांधी के रवैये के कारण लंबी अदालती लड़ाई तक खिंचा चला आया.