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अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान, अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट  

तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता में आने पर शांति और सुरक्षा के साथ इस्लाम के सख्त शरिया क़ानून लागू करने का वादा किया था. तालिबान को लोगों का समर्थन मिला और उन्होंने जल्द ही काबुल को जीत लिया.

Updated on: 01 Sep 2021, 08:22 AM

highlights

  • साल 2006 में इराक में अल-क़ायदा और दूसरे चरमपंथी गुटों के विलय के बाद 'इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़' का हुआ जन्म
  • वर्ष 1996 से 2001 तक तालिबान ने अफगानिस्तान पर लागू किया एक ऐसा निज़ाम जो महिला विरोधी था
  • तालिबान, अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट अमेरिका और पश्चिमी देशों को मानते हैं अपना दुश्मन

 

 

नई दिल्ली:

काबुल पर तालिबान के कब्जा और अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी और काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद औपचारिक रूप से अब मुल्क पर तालिबान का शासन है. अफगानिस्तान पर कट्टरपंथी ताकतों के कब्जे के बाद दुनिया भर के सुरक्षा विशेषज्ञों को आशंका है कि अब मध्य पूर्व और मध्य एशिया में इस्लामी जिहाद का नया दौर शुरू हो सकता है. अफगानिस्तान की बात करें तो अभी भी पूरे मुल्क पर तालिबान शासन को स्वीकृति नहीं बल्कि जगह-जगह चुनौती मिल रही है. वर्तमान में अफगानिस्तान में तीन कट्टरपंथी ताकतों की प्रमुख भूमिका है. ये हैं तालिबान, अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट. तीनों संगठन इस बात पर यकीन रखते हैं कि सामाजिक और राजनीतिक जीवन को धार्मिक जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है. लेकिन तीनों संगठनों की ताकत और महत्वाकांक्षाएं अलग-अलग हैं.

इस्लामिक स्टेट की बात की जाये तो पिछले कुछ वर्षों में वो कमजोर हुआ है. लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में वे फिर से मजबूत हो सकते हैं. तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी है. अल-क़ायदा अलग-अलग देशों के जिहादियों का एक समूह है जो अपने नेटवर्क को फिर से खड़ा करना चाहता है. इस्लामिक स्टेट भी कुछ ऐसा ही है लेकिन वो अल-क़ायदा और तालिबान दोनों का ही दुश्मन है और उसे दोनों से ही जंग लड़नी है.

विदेशी शक्तियों के अफगानिस्तान में दखल के कारण वहां कट्टरपंथी जमातों का उदय हुआ. अस्सी के दशक के अंत में सोवियत संघ के हमले के विरोध में अल-क़ायदा और तालिबान दोनों की उत्पत्ति हुई थी. साल 2003 में जब अमेरिका ने इराक़ पर धावा बोला तो उसके बाद इस्लामिक स्टेट अस्तित्व में आया. इस्लामिक स्टेट में इराक़ी सेना के सैनिक-अधिकारी और अल-क़ायदा से जुड़े लोग शामिल हुए थे. अल-क़ायदा की स्थापना सऊदी अरबपति ओसामा बिन लादेन ने की थी. जिसे बाद में अमेरिका ने पाकिस्तान में मार गिराया था.

सबसे बड़ी बात यह है कि इस्लामी कट्टरपंथी जितने भी संगठन हैं उनका लक्ष्य किसी एक देश को इस्लामी मुल्क बनाना नहीं बल्कि सारी दुनिया पर इस्लामी राज स्थापित करना है. इसलिए ये संगठन दुनिया भर से मुसलमानों को अपने संगठन में भर्ती करते हैं.

अल-क़ायदा ने शुरू में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ लड़ रहे मुसलमानों को हथियारों और दूसरी चीज़ों से मदद पहुंचाई.सोवियत सेना की हार के बाद उत्तरी पाकिस्तान और दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में पश्तून लड़ाकों और छात्रों का एक समूह जिसे तालिबान के नाम से जाना जाता था, का उदय हुआ. 

तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता में आने पर शांति और सुरक्षा के साथ इस्लाम के सख्त शरिया क़ानून लागू करने का वादा किया था. तालिबान को लोगों का समर्थन मिला और उन्होंने जल्द ही काबुल को जीत लिया. साल 1996 की शुरुआत होते-होते लगभग पूरा अफ़ग़ानिस्तान ही तालिबान के नियंत्रण में आ गया. तब तक अल-क़ायदा एक ऐसा संगठन बन गया था जिसकी भूमिका एक सपोर्ट नेटवर्क से कहीं ज़्यादा हो गई थी.

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दुनिया भर में चरमपंथी गतिविधियों को अंजाम देने वाले अल-क़ायदा को तालिबान की हुकूमत ने अफ़ग़ानिस्तान में और धन की मदद की. साल 2006 में इराक में अल-क़ायदा और दूसरे चरमपंथी गुटों का विलय हो गया और उन्होंने खुद को 'इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़' का नाम दिया. ये नया संगठन इस्लाम की दुनिया भर में अगुवाई करना चाहता था और अब वो अल-क़ायदा के मूल विचारों के ख़िलाफ़ था. साल 2011 में जब इस्लामिक स्टेट का प्रभाव सीरिया में बढ़ने लगा तो उसने अपनी खिलाफ़त का एलान किया अल-क़ायदा से दूरी बना ली.

तालिबान, अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट अमेरिका के साथ पश्चिमी देशों को अपना दुश्मन मानते हैं. अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट की अंतरराष्ट्रीय स्तर की महत्वाकांक्षाएं हैं. अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट ख़िलाफ़त की स्थापना को लेकर एकमत हैं. इस निज़ाम में जो ख़लीफ़ा होता है, वो दुनिया भर के मुसलमानों का सियासी और मज़हबी रहनुमा होता है. 

अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट की तुलना में तालिबान उतना कट्टरपंथी नहीं है. उसका फोकस केवल अफ़ग़ानिस्तान पर है. तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान के गौरवशाली दिनों वापस लाने की बात करते हैं. पहली बार जब वर्ष 1996 से 2001 तक तालिबान अफगानिस्तान पर काबिज था तो उसने एक ऐसा निज़ाम लागू कर दिया गया था, जो ख़ास तौर पर औरतों के ख़िलाफ़ था. तालिबान के उस दौर की कड़वी यादों के कारण ही बहुत से अफ़ग़ानों ने हाल के हफ़्तों में अफ़ग़ानिस्तान छोड़ दिया है.  

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तीनों संगठनों के काम करने का तरीका एक है. तीनों संगठन हिंसा को जायज ठहराते हैं और अमेरिका और पश्चिमी देशों को इस्लाम का दुश्मन बताते हुए प्रोपेगैंडा चलाते हैं. इस्लामिक स्टेट का तरीका अधिक हिंसक है.इस्लामिक स्टेट के लिए चरमपंथ एक क्रांतिकारी लड़ाई का हिस्सा है. उसके नियंत्रण वाले इलाकों में सामूहिक नरसंहार, लोगों का सार्वजनिक तौर पर सिर काट देने और बलात्कार की घटनाएं आम बात हैं. वे लोगों को डराकर रखना चाहते हैं जबकि अल क़ायदा इस मामले में थोड़ा नरम है.

इस्लामिक स्टेट की खुरासान शाखा ने काबुल एयरपोर्ट के पास आत्मघाती हमला करके 200 लोगों की जान ले ली. जबकि तालिबान काबुल पर दखल करने से पहले तक अफ़ग़ान हुकूमत और सुरक्षा बलों को निशाना बनाता था.