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प्रेमदासा बनाम राजपक्षेः श्रीलंका के नए राष्ट्रपति बतौर भारत के लिए क्या रहेगा मुफीद

कट्टरपंथी राजपक्षे की तुलना में भारतीय द्रविड़ियन पार्टियों के लिए साजिथ कहीं अधिक सुविधाजनक चेहरे साबित होंगे. यहां यह भी कतई नहीं भूलना चाहिए कि श्रीलंका के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साजिथ आवास मंत्री बतौर उनके साथ रहे.

Updated on: 16 Nov 2019, 08:19 PM

highlights

  • मुख्य टक्कर यूनाइटेड नेशनल पार्टी (UNP) के सजीथ प्रेमदासा और श्रीलंका पोडुजना पेरमुना पार्टी (SLPP) के गोटाबया राजपक्षे के बीच.
  • प्रेमदासा के राष्ट्रपति बनने पर भारत के लिए खासी सहूलियत होगी. इसकी एक बड़ी वजह श्रीलंका की राजनीति के आंतरिक समीकरण हैं.
  • राष्ट्रपति कोई भी हो भारत के पास फिर एक ऐतिहासिक अवसर है दोनों देशों के बीच संबंधों को नए आयाम देने का.

New Delhi:

श्रीलंका के आठवें राष्ट्रपति के चुनाव के लिए शनिवार को 1.6 करोड़ मतदाताओं ने अपने-अपने मताधिकार का प्रयोग किया. श्रीलंका की चीन से बढ़ती नजदीकियों को देखते हुए भारतीय नीति नियंताओं की नजरें भी श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव परिणामों पर टिकी हैं. राष्ट्रपति पद के लिए हो रहे चुनाव में कई उम्मीदवार मैदान में हैं, लेकिन मुख्य टक्कर यूनाइटेड नेशनल पार्टी (UNP) के सजीथ प्रेमदासा (Sajith Premadasa) और श्रीलंका पोडुजना पेरमुना पार्टी (SLPP) के गोटाबया राजपक्षे (Gotabaya Rajapaksa) के बीच है. दोनों ही नेता ताकतवर राजनीतिक विरासत के उत्तराधिकारी हैं. इन दोनों ही के श्रीलंका के राजनीतिक परिदृश्य पर अपना-अपना प्रभाव है, जिसका असर भारत पर पड़ना लाजिमी है.

शक्तिशाली राजनीतिक विरासत के झंडाबरदार
सजीथ प्रेमदासा आत्मघाती आतंकी हमले के शिकार हुए पूर्व राष्ट्रपति राणासिंघे प्रेमदासा के सुपुत्र हैं, तो गोटाबया राजपक्षे पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के भाई हैं. महिंदा राजपक्षे के खाते में उत्तरी श्रीलंका में सक्रिय तमिल अलगाववादियों के सिरे से खात्मे का श्रेय जाता है. उन्होंने ही तमिल अलगाववादियों के खिलाफ निर्णायक जंग का ऐलान कर उनके ताबूत में आखिरी कील ठोकी थी. राष्ट्रपति के दोनों ही उम्मीदवारों ने अपने-अपने तरीके से भारत के साथ नजदीकी रिश्तों की वकालत की है. श्रीलंका में भारतीय शांति सेना की 1987 से 1990 में तैनाती के दौरान खुफिया ईकाई के प्रमुख बतौर सेवा दे चुके सेवानिवृत्त कर्नल आर हरिहरन का भी मानना है कि दोनों में से भले ही कोई राष्ट्रपति बने, भारत के लिए चिंता की कोई खास बात नहीं है. यहां यह नहीं भूलना चाहिए के महिंदा राजपक्षे उस वक्त रक्षा मंत्री हुआ करते थे, जब उनके भाई तत्कालीन राष्ट्रपति हुआ करते थे. हालांकि उस दौरान मानवाधिकारों के हनन से जुड़े मामलों का ठीकरा भी उन्हीं के सिर फूटा है. इसके बावजूद उन्होंने भारत को सिरे से किनारा करने की कोशिश कभी नहीं की.

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भारत ने परोक्ष-अपरोक्ष मदद की गोटाबया की
तमिल इलम के खिलाफ 'युद्ध' में गोटाबया के पास भारत से नजदीकी रिश्ते रखने का अच्छा अनुभव है. वह भी तब जब उस वक्त तमिलनाडू में श्रीलंका के खिलाफ जबर्दस्त आक्रोश था, गोटाबया भारत से अपने संबंधों को बरकरार रखने में सफल रहे थे. उस वक्त भारत ने गोटाबया के राष्ट्रीय हितों को तरजीह देते हुए श्रीलंका के खिलाफ नकारात्मक कूटनीति को हावी नहीं होने दिया था. यही नहीं, भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भी गोटाबया के खिलाफ व्यापक स्तर पर मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में नरम रुख अपनाते हुए एक तरह से उनकी मदद ही की थी.

श्रीलंका में राष्ट्रीय सुरक्षा मुख्य मुद्दा
अगर हालिया राष्ट्रपति चुनाव पर नजर डालें तो एक बात बिल्कुल साफ है कि इस बार राष्ट्रीय सुरक्षा प्रमुख मुद्दा रहा है. अपनो घोषणापत्र में गोटाबया ने सुरक्षा सहयोग समेत भारत से नजदीकी संबंधों की जमकर वकालत की है. इस लिहाज से देखें तो भारत के लिए राजपक्षे को लेकर थोड़ी चिंता जरूर है. अपने राष्ट्रपति के कार्यकाल में राजपक्षे का झुकाव चीन के प्रति कुछ ज्यादा रहा. इसकी वजह भी यह रही कि चीन ने राजपक्षे के चुनाव में आर्थिक मदद जो की थी. अब जब चीन किसी देश के राष्ट्रपति चुनाव में आर्थिक मदद करे तो भारत का चिंतित होना जरूरी ही है.

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प्रेमदासा रहेंगे भारत के लिए बेहतर
इन समीकरणों के मद्देनजर प्रेमदासा के राष्ट्रपति बनने पर भारत के लिए खासी सहूलियत होगी. इसकी एक बड़ी वजह श्रीलंका की राजनीति के आंतरिक समीकरण हैं. श्रीलंका की प्रमुख तमिल पार्टी द तमिल नेशनल एलाइंस (TNA) का समर्थन राजपक्षे को है. इस लिहाज से देखें तो कट्टरपंथी राजपक्षे की तुलना में भारतीय द्रविड़ियन पार्टियों के लिए साजिथ कहीं अधिक सुविधाजनक चेहरे साबित होंगे. यहां यह भी कतई नहीं भूलना चाहिए कि श्रीलंका के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साजिथ आवास मंत्री बतौर उनके साथ रहे. उस दौरे के दौरान पीएम मोदी ने भारत के सहयोग से बनाए आवासों का लोकापर्ण भी किया था. दूसरी एक खास बात यह है कि श्रीलंका के संसद में चार बार चुनकर जा चुके साजिथ को भारत के साथ उतार-चढ़ाव भरे संबंधों का साक्षी बनने का गहरा अनुभव भी है. ऐसे में चूंकि उनकी भी प्राथमिकता विकास ही है, तो साजिथ भारत के साथ नजदीकी रिश्ते बनाने को ही प्राथमिकता देंगे.

गोटाबया को हासिल है मामूली बढ़त
अगर प्रचार के आधार पर बात की जाए तो आमने-सामने के इस मुकाबले में गोटाबया को थोड़ी बढ़त है. प्रेमदासा ने जहां अपना पूरा चुनाव प्रचार अभियान विकास के इर्दगिर्द रखा, वहीं गोटाबया ने राष्ट्रीय सुरक्षा पर खासा जोर दिया है. गौरतलब है अप्रैल में ईस्टर के मौके पर श्रीलंका में हुए श्रंखलाबद्ध आत्मघाती आतंकी हमलों के बाद देश की अंदरूनी राजनीति की दशा-दिशा खासी बदल चुकी है. आतंकी हमलों की प्रतिक्रियास्वरूप उत्तरी-पश्चिमी श्रीलंका में मु्स्लिमों के खिलाफ सांप्रदायिक दंगे हुए. इसकारण भी चुनाव प्रचार का केंद्र दक्षिणपंथी राजनीति हो गई और गोटाबया को इसका भी फायदा पहुंचा. हालांकि भारत की द्रविड़ियन पार्टियां राजपक्षे बंधुओं के प्रति अविश्वास का भाव रखती हैं. ऐसे में राजपक्षे के चुनाव प्रचार में चीनी इमदाद का साया भारत के लिए भी कम चिंता की बात नहीं है.

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चीन का कर्ज जाल समझे राजनेता
हालांकि भारत के पास यह जताने के पर्याप्त कारण हैं कि चीन आर्थिक मदद के जरिये देशों को अपने कर्ज जाल में फंसाता है और फिर उनकी मदद से अपनी विदेश या कूटनीति को साधता है. खासकर चीनी कर्ज नहीं चुका पाने की स्थिति में जिस तरह चीन की आर्थिक मदद से बने हंबनटोटा बंदरगाह को कर्ज अदायगी के पूरा नहीं हो सकने की वजह से 99 साल की लीज पर दिया गया, उसके बाद तो भारत इस बात को अच्छे से अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकता है कि चीन अपनी विस्तारवादी नीति से आसपास के देशों के लिए किस तरह कर्ज को बतौर जाल इस्तेमाल कर रहा है. चीनी रवैये के विपरीत भारत ने श्रीलंका के जातीय संघर्ष में लगभग बर्बाद हो चुके उत्तरी श्रीलंका में 1,200 घरों के निर्माण की एक आवासीय योजना को पूरा कराया है. इसके साथ ही जाफना सांस्कृतिक केंद्र को मदद देकर तमिल मसलों के साथ खड़े रहने की अपनी प्रतिबद्धता को भी भारत जाहिर कर चुका है.

भारत को नजरअंदाज करना नहीं होगा आसान
इसे आप ऐसे समझ सकते हैं कि भारत के साथ श्रीलंका के संबंध संसाधनों की जरूरत के लिहाज से हैं, जबकि चीन अपनी परियोजनाओं को थोप और उसके लिए आर्थिक मदद मुहैया करा संबंधित देश को अपने मकड़जाल में फंसाने की योजना रखता है. यहां यह भूलना नहीं चाहिए कि चीन बीते दो दशकों से भारत के श्रीलंका में प्रभाव को कम करने की कोशिश में था. ऐसे में उसे महिंदा राजपक्षे के बतौर राष्ट्रपति कार्यकाल में कुछ मदद जरूर मिली, लेकिन चीन ने जब आर्थिक तौर पर श्रीलंका पर नकेल कसनी शुरू की, तो भारत ही एकमात्र सच्चा मित्र देश बनकर उभरा. ऐसे में विद्यमान स्थितियों में भारत के पास फिर एक ऐतिहासिक अवसर है दोनों देशों के बीच संबंधों को नए आयाम देने का. श्रीसेना-विक्रमसिंघे ने जिस शक्ति संतुलन को बदलने की कोशिश की थी, भारत उसे अब अपने पक्ष में फिर से और कहीं अधिक मजबूती के साथ झुका सकता है. यह जानते-समझते हुए कहीं ज्यादा कि श्रीलंका में अपने पैर मजबूती से जमाने के बाद भारत को नजरअंदाज करना चीन-श्रीलंका के लिए आसान नहीं होगा.