सन् 2020 में पीएम नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने संयुक्त राष्ट्र की 75वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में यूएनजीए को संबोधित करते हुए बदलते काल-खंड और देश-काल की परिस्थितियों के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र में आमूल-चूल बदलाव का आह्वान किया था. उन्होंने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र में अब एक ऐसा बहुपक्षीय सिस्टम बनना चाहिए, जहां सभी की सुनी जाए. इसके साथ ही पीएम मोदी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में नए देशों को बतौर स्थायी सदस्य शामिल करने का भी आह्वान किया था. उस वक्त उन्होंने जोर देकर कहा था कि अगर बड़े पैमाने पर संयुक्त राष्ट्र में सुधार नहीं किए गए, तो दुनिया का इस संस्था पर से भरोसा उठने लगेगा.
संयुक्त राष्ट्र खो रहा प्रासंगिकता
अगर रूस के यूक्रेन (Ukraine) पर हमले की ताजा घटना और इसे रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र की महज मौखिक कवायद को ही उदाहरण बनाया जाए, तो साफ है कि संयुक्त राष्ट्र अपनी प्रासंगिकता खो चुका है. संयुक्त राष्ट्र के तमाम प्रयासों और चेतावनी के बावजूद रूस (Russia) ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया. इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद भी दोनों देशों के बीच जंग रोक पाने में विफल रहा. इस लिहाज से देखें तो यह कोई पहला मौका नहीं है, जब संयुक्त राष्ट्र दो देशों के बीच शांति कायम रखने में विफल रहा है. इसके पहले भी ऐसे कई घटनाक्रम हैं, जो संयुक्त राष्ट्र या सुरक्षा परिषद के हालिया स्वरूप में बदलाव की मांग को नए सिरे से उठाते हैं. इससे पहले भी कई युद्ध संयुक्त राष्ट्र की विफलता की वजह से ही हुए है.
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संयुक्त राष्ट्र इसलिए बना था
सेकंड वर्ल्ड वॉर के खात्मे के बाद 24 अक्टूबर 1945 को अमेरिका-रूस सहित 50 से अधिक देश सेन फ्रांसिस्को में एकजुट हुए. सभी ने एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए, जिसके साथ संयुक्त राष्ट्र संघ अस्तित्व में आया. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई और फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सामने आई, जिसका मुख्य मकसद समग्र दुनिया में शांति और सुरक्षा सुनिश्चित करना है. सुरक्षा परिषद सहित संयुक्त राष्ट्र के छह प्रमुख अंग हैं. 2021 में संयुक्त राष्ट्र का बजट 150 मिलियन डालर यानी करीब 1134 करोड़ रुपए है. संस्था को सदस्य देशों की ओर से चंदे के रूप में ये राशि मिलती है. संयुक्त राष्ट्र को अमेरिका सबसे अधिक चंदा देता है.
वीटो पावर पर उठते रहे सवाल
यूएन की सुरक्षा परिषद में अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन स्थाई सदस्य हैं. इन देशों को वीटो पावर हासिल है. वीटो पावर के जरिए ये देश किसी भी मामले को रोक सकते हैं. इसी वजह से यूएन कई बार सुरक्षा और शांति स्थापित करने में विफल रहता है. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव रहे बुतरस घाली ने भी अपनी आत्मकथा में वीटो सिस्टम की निंदा की थी. उन्होंने दो-टूक लहजे में लिखा था कि अगर वीटो सिस्टम खत्म नहीं हुआ, तो सुरक्षा परिषद स्वतंत्र होकर काम नहीं कर सकेगी. यही रूस के यूक्रेन पर हमले के दौरान भी देखने को मिला. रूस ने वीटो पावर का इस्तेमाल कर प्रस्ताव खारिज कर दिया. इसके पहले की कुछ अन्य घटनाएं भी संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता को कठघरे में खड़ी करती है.
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अमेरिका-वियतनाम युद्ध
संयुक्त राष्ट्र के गठन के महज 10 वर्ष बाद अमेरिका और वियतनाम के बीच जंग की शुरुआत हुई. संयुक्त राष्ट्र उस वक्त भी इसे रोकने में पूरी तरह से नाकाम रहा. अमेरिका-वियतनाम के बीच यह संघर्ष करीब एक दशक चला. इसमें वियतनाम के लगभग 20 लाख लोग मारे गए. साथ ही 30 लाख से ज्यादा लोग घायल हुए थे. वियतनाम ने अमेरिका को भी तगड़ी चोट दी थी, जब इस जंग में उसके 55 हजार से अधिक सैनिक खेत रहे थे.
ईरान-इराक जंग
इसके बाद 22 सितंबर 1980 को इराक और ईरान के बीच युद्ध छिड़ गया. इराकी सेना ने पश्चिमी ईरान की सीमा पर घुसपैठ कर उस पर हमला कर दिया. यह युद्ध भी करीब आठ वर्षों तक चला, जिसे रोक पाने में संयुक्त राष्ट्र पूरी तरह से विफल रहा. स्थिति यह थी कि शांति स्थापना और मानवता की ढेरों दुहाई देने के बावजूद इस युद्ध में इराक ने रासयनिक बम का प्रयोग किया. दोनों देशों को जानमाल का काफी नुकसान हुआ. हिंसा में करीब 10 लाख लोग मारे गए, जिसमें लाखों निर्दोष नागरिक शामिल थे.
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रवांडा नरसंहार
अफ्रीकी देश रवांडा में नरसंहार को रोकने में संयुक्त राष्ट्र नाकाम रहा है. यह संघर्ष करीब 100 दिनों तक चला था, जिसमें आठ लाख से अधिक लोगों की मौत हुई थी. बता दें कि रवांडा में वहां के बहुसंख्यक समुदाय हूतू ने अल्पसंख्यक समुदाय तुत्सी के लोगों पर हमला किया था. रवांडा नरसंहार में फ्रांस की भी अहम भूमिका थी. फ्रांस सरकार ने हालात को नियंत्रित करने के लिए सेना भेजी थी, लेकिन सेना उसे कंट्रोल करने के बजाए देखती रही. यह अलग बात है कि 2021 में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इस नरसंहार के लिए माफी मांगी थी.
बोस्निया गृह युद्ध
बोस्निया के गृह युद्ध को रोकने में भी संयुक्त राष्ट्र पूरी तरह से विफल रहा. यहां तो नाटो को अपनी सेना उतारनी पड़ी. यूगोस्लाविया के विभाजन के बाद 1992 में सर्ब समुदाय और मुस्लिम समुदाय के बीच नए राष्ट्र को लेकर तनातनी शुरू हो गई थी. इस विवाद में भी मध्यस्थता करने में संयुक्त राष्ट्र पूरी तरह से विफल रहा. 1995 में सर्ब सेना ने करीब आठ हजार मुस्लिमों को मार दिया. इसके बाद नाटो को सेना उतारनी पड़ी, तब कहीं जाकर स्थिति को नियंत्रित किया जा सका.
HIGHLIGHTS
- एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र नहीं रोक सका रूस-यूक्रेन युद्ध
- पीएम मोदी ने प्रासंगिकता को लेकर 2020 में ही चेताया था
- वीटो पावर यूएनएससी की निष्पक्ष कार्रवाई में है बड़ी बाधा