म्यांमारः फिर दोहरा रहा है इतिहास, सेना का आंतरिक संघर्ष भी हावी
सवाल उठता है कि सेना ने दस साल सीधे सत्ता से दूर रहने के बाद एक बार फिर से म्यांमार में लोकतंत्र का गला क्यों घोंटा!!!
नई दिल्ली:
सोमवार अल सुबह तख्तापलट (Coup) और सत्ता सेना के हाथों में आने के बाद से म्यांमार में एक बार फिर इतिहास को दोहराया जा रहा है. कभी यहां पर भी अंग्रेजों का ही राज था. यहां तक कि 1937 से पहले भारत (India) की ब्रिटिश हुकूमत ने इसको भारत का ही एक राज्य घोषित किया था, लेकिन बाद में इसको भारत से अलग कर अपना उपनिवेश बना दिया था. 80 के दशक से पहले इसका नाम बर्मा हुआ करता था. बाद में इसका नाम म्यांमार (Myanmar) कर दिया गया. ये 4 जनवरी 1948 को ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ था. 1962 तक यहां पर लोकतंत्र के तहत देश की जनता अपनी सरकार चुनती थी, लेकिन 2 मार्च 1962 को सेना के जनरल ने विन ने सरकार का तख्तापलट करते हुए देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया था. वही इतिहास एक बार फिर 1 मार्च 2021 को दोहराया गया. सवाल उठता है कि सेना ने दस साल सीधे सत्ता से दूर रहने के बाद एक बार फिर से म्यांमार में लोकतंत्र का गला क्यों घोंटा!!!
पहले जानते हैं इतिहास
1962 में सैन्य सरकार ने यहां के संविधान को निलंबित कर दिया था. इसके बाद म्यांमार में सैन्य शासन का लंबा दौर चला. सैन्य सरकार को यहां पर मिलिट्री जुंटा कहा जाता था. 26 वर्षों तक चले इस शासन के दौरान मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप भी सरकार पर लगते रहे. संयुक्त राष्ट्र ने भी इसको लेकर देश की सरकार की कड़ी आलोचना की थी. 1988 तक देश में एकदलीय प्रणाली थी. इसमें केवल सेना के अधिकारी को ही सत्ता पर काबिज होने का अधिकार था. वहां की सेना बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी को समर्थन देती थी. 1988 में सैन्य अधिकारी सॉ मॉंग ने नई सैन्य परिषद का गठन किया. इस परिषद ने देश में लोकतंत्र की मांग करने वाले आंदोलन को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी. इसी परिषद ने देश का नाम बदलने का काम किया था.
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पहले की सैन्य सरकारों का बुनियादी ढांचा
इस सैन्य सरकार के तीन भाग थे. इसमें पहला था यूनियन पार्लियामेंट, दूसरा था चैंबर ऑफ नेशनेलिटीज और तीसरा था चैंबर ऑफ डिप्टीज. म्यांमार का जो पहले संविधान था वो यूगोस्लाविया के संविधान पर आधारित था. 1974 में म्यांमार का दूसरा संविधान लिखा गया. इसके तहत पिपुल्स असेंबली का गठन किया गया. यहां पर सरकार का कार्यकाल 4 वर्षों के लिए था. इस दौरान सत्ता के शिखर पर जनरल ने विन ही थे. 1988 में सेना की सरकार ने स्टेट लॉ एंड ऑर्डर रेस्टोरेशन काउंसिल को सस्पेंड कर दिया था. इसने 1993 कंस्टिटयूशन कंवेंशन का आह्वान किया था. 1996 में इसका आंग सान सू ची की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने बॉयकॉट किया. 2004 में कंस्टिटयूशन कंवेंशन का फिर आह्वान किया गया.. 2008 तक म्यांमार में कोई संविधान नहीं था. 2008 में देश की सैन्य सरकार ने जिस संविधान का प्रस्ताव रखा उसपर देश में जनमत संग्रह किया गया और लोकतंत्र का रास्ता साफ हुआ. इसके बाद देश में लोकतंत्र बहाल हो सका. हालांकि लंबे संघर्ष के बाद लोकतांत्रिक ढंग से 2010 के आम चुनाव के बाद देश से मिलिट्री जुंटा का भी अंत हो गया.
कभी था धनी देश आज गै गरीब देशों की सूची में
बार-बार हिरासत में ली गईं आंग सान सू की के पिता आंग सान ने ही म्यांमार आर्म्ड फोर्स का गठन कर देश को अंग्रेजों से आजादी दिलाने के लिए कड़ा संघर्ष किया था, लेकिन आजाद देश को देखने से छह माह पहले ही उनकी हत्या कर दी गई थी. उन्होंने आधुनिक म्यांमार का पिता कहा जाता है. एक समय था जब म्यांमार दक्षिण-पूर्व एशिया के धनी देशों में से एक था. ये दुनिया का सबसे बड़ा चावल-निर्यातक तो था ही साथ ही कई तरह की लकड़ियों का भी बड़ा उत्पादक था. यहां पर टिन, सीसा, तेल, चांदी, टंगस्टन आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे, लेकिन दूसरे विश्व युद्ध में जापानियों के हमले में इनकी अधिकतर खदानें नष्ट कर दी गईं. आजादी के बाद सरकार की गलत नीतियों की बदौलत इसकी अर्थव्यवस्था लगातार गिरती चली गई और आज ये दुनिया के सबसे गरीब देशों की गिनती में आता है. अब बात करते हैं कि एक दशक के बाद म्यांमार में इतिहास क्यों दोहराया गया.
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संविधान का बुनियादी स्वरूप
सोमवार को सेना के स्वामित्व वाले मयावाडी टीवी ने देश के संविधान के अनुच्छेद 417 का हवाला दिया, जिसमें सेना को आपातकाल में सत्ता अपने हाथ में लेने की अनुमति हासिल है. प्रस्तोता ने कहा कि कोरोना वायरस का संकट और नवंबर चुनाव कराने में सरकार का विफल रहना ही आपातकाल के कारण हैं. सेना ने 2008 में संविधान तैयार किया और चार्टर के तहत उसने लोकतंत्र, नागरिक शासन की कीमत पर सत्ता अपने हाथ में रखने का प्रावधान किया. मानवाधिकार समूहों ने इस अनुच्छेद को 'संभावित तख्तापलट की व्यवस्था' करार दिया था. संविधान में कैबिनेट के मुख्य मंत्रालय और संसद में 25 फीसदी सीट सेना के लिए आरक्षित है, जिससे नागरिक सरकार की शक्ति सीमित रह जाती है और इसमें सेना के समर्थन के बगैर चार्टर में संशोधन से इंकार किया गया है. कुछ विशेषज्ञों ने आश्चर्य जताया कि सेना अपनी शक्तिशाली यथास्थिति को क्यों पलटेगी लेकिन कुछ अन्य ने सीनियर जनरल मीन आउंग हलैंग की निकट भविष्य में सेवानिवृत्ति को इसका कारण बताया, जो 2011 से सशस्त्र बलों के कमांडर हैं.
सेना में भी अंदरूनी खींचतान!
म्यांमार के नागरिक एवं सैन्य संबंधों पर शोध करने वाले किम जोलीफे ने कहा, 'इसकी वजह अंदरूनी सैन्य राजनीति है जो काफी अपारदर्शी है. यह उन समीकरणों की वजह से हो सकता है और हो सकता है कि यह अंदरूनी तख्तापलट हो और सेना के अंदर अपना प्रभुत्व कायम रखने का तरीका हो.' सेना ने उप राष्ट्रपति मींट स्वे को एक वर्ष के लिए सरकार का प्रमुख बनाया है जो पहले सैन्य अधिकारी रह चुके हैं. आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने नवंबर में हुए संसदीय चुनाव में 476 सीटों में से 396 सीटों पर जीत हासिल की. केंद्रीय चुनाव आयोग ने परिणाम की पुष्टि की है. लेकिन चुनाव होने के कुछ समय बाद ही सेना ने दावा किया कि 314 शहरों में मतदाता सूची में लाखों गड़बड़ियां थीं जिससे मतदाताओं ने संभवत: कई बार मतदान किया या अन्य चुनावी फर्जीवाड़े किए.
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अब आगे क्या होगा?
विश्व भर की सरकारों एवं अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने तख्तापलट की निंदा की है और कहा है कि म्यांमार में सीमित लोकतांत्रिक सुधारों को इससे झटका लगा है. ह्यूमन राइट्स वाच की कानूनी सलाहकार लिंडा लखधीर ने कहा, 'लोकतंत्र के रूप में वर्तमान म्यांमार के लिए यह काफी बड़ा झटका है. विश्व मंच पर इसकी साख को बट्टा लग गया है.' मानवाधिकार संगठनों ने आशंका जताई कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और सेना की आलोचना करने वालों पर कठोर कार्रवाई संभव है. अमेरिका के कई सीनेटरों एवं पूर्व राजनयिकों ने सेना की आलोचना करते हुए लोकतांत्रिक नेताओं को रिहा करने की मांग की है और जो बाइडन सरकार एवं दुनिया के अन्य देशों से म्यामां पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है. हालांकि वैश्विक राय के अनुरूप जो बाइडन ने भी म्यांमार के सैन्य शासकों को प्रतिबंध लगाने की चैतावनी दे दी है. भारत भी अपने इस पड़ोसी देश के घटनाक्रम पर नजदीकी से निगाह रखे हुए है.
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