logo-image

मुसलमान-मुसलमान ही रहेगा, वह भारतीय कभी नहीं हो सकेगा, जानें सावरकर ने क्यों दिया था बयान

हालांकि काला पानी की सजा काटने के दौरान उनके विचार थोड़े बदले और बाद में महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के 'मुसलमान प्रेम' ने उन्हें काफी हद तक बदल दिया.

Updated on: 18 Oct 2019, 08:03 PM

highlights

  • वीर सावरकर शुरुआती दिनों में हिंदू-मु्स्लिम एकता के रहे थे प्रबल पक्षधर.
  • अंडमान में काला पानी की सजा काटने के दौरान आया सोच में थोड़ा बदलाव.
  • बाद में गांधी और कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण ने उनके विचार पूरी तरह से बदले.

New Delhi:

कांग्रेस आरोप लगाती आई है कि धर्म के आधार पर दो राष्ट्र (Double Nation Theory) का सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले हिंदू महासभा (Hindu Mahasabha) के संस्थापक वीर सावरकर (veer Savarkar) ही थे ना कि मुस्लिम लीग (Muslim League). हालांकि कांग्रेस के अन्य आरोपों की ही तरह यह भी एक दुष्प्रचार है. वीर सावरकर के हिंदुत्व की प्रारंभिक विचारधारा को कांग्रेस (Congress) ने एक सोची-समझी रणनीति के तौर पर कट्टर बना कर पेश किया. सच तो यह है कि उस समय सावरकर की हिंदुत्व की परिभाषा वास्तव में हिंदू-मुस्लिम एकता का ही समर्थन करती थी. उनके लिहाज से हिंदू बाहुल्य हिंदुस्तान राष्ट्र में हिंदू और मुस्लिम एक साथ अलग-अलग रह सकते हैं. एक सच तो यह भी है कि वह विभाजन के सख्त खिलाफ थे. वह चाहते थे कि मुस्लिम भारत (India) में हिंदुस्तानी मुस्लिम बतौर ही रहें. ठीक वैसे ही जैसे वे ग्रीस (ग्रीक मुस्लिम) और पोलैंड (पॉलिश मुस्लिम) के रूप में बतौर अल्पसंख्यक रह रहे थे. हालांकि काला पानी की सजा काटने के दौरान उनके विचार थोड़े बदले और बाद में महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के 'मुसलमान प्रेम' ने उन्हें काफी हद तक बदल दिया.

यह भी पढ़ेंः गाय की पूजा कोई अज्ञानी ही कर सकता है, जानें ऐसा क्यों कहा था सावरकर ने

अंडमान के अनुभवों ने बदला सावरकर को
इतिहासकार और वरिष्ठ पत्रकार वैभव पुरंडरे 'सावरकरः द ट्रू स्टोरी ऑप द फादर ऑफ हिंदुत्व' में लिखते हैं, सावरकर ने अंडमान के जेल में काला पानी की सजा पाए राजनीतिक कैदी बतौर जब पैर रखा था, तो वह हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर है. उनकी जुबान पर 1857 की क्रांति के मुस्लिम नायकों का ही नाम रहता था. चाहे वह अवध के शासक वाजिद अली शाह हों या फिर रोहिलखंड के विद्रोही खान बहादुर खान. यह अलग बात है कि उन्होंने जब अंडमान के जेल से बाहर कदम रखा था, तो उनका एक ही ख्वाब था भारत को हिंदुत्व या हिंदू राष्ट्रवाद के आधार पर नाम देना. यानी एक ऐसा राष्ट्र जहां हिंदुत्व विचारधारा का ही प्रभुत्व हो. आखिर उनके विचारों में यह बदलाव आया कैसे? इसका एक बड़ा कारण जेल में मिला अनुभव रहा. जेलर बैरी पठान और उनके बलूची और सिंधी 'गुर्गों' ने उन्हें इस कदर कड़वे अनुभव दिए कि वह हिंदू राष्ट्र के पक्षधर हो गए. अंग्रेज हुक्मरानों का मानना था कि भारत के बहुसंख्यक समुदाय यानी हिंदू धर्म का पालन करने वाला जेल का स्टाफ हिंदू कैदियों के साथ नरमी बरतेगा या उसके मन में इन बंदियों के लिए सहानुभूति होगी. ऐसे में ब्रिटिश हुक्मरानों ने चुन-चुन कर मुसलमान जेल स्टाफ रखा था. ये मुसलमान हिंदू कैदियों के साथ अमानवीय बर्ताव करते थे. उन्होंने हिंदू कैदियों का शारीरिक शोषण तक किया ताकि वे डर कर इस्लाम ग्रहण कर लें. सावरकर ने पठान, बलूचियों और सिंधियों को बेहद कट्टर मुसलमान पाया. यह अलग बात है कि तमिल, मराठी या बंगाली मुसलमान न तो कट्टर था और ना ही उनके मन में हिंदुओं के लिए कोई दुराग्रह या बैर भाव था. यही वजह है कि इन बुरे अनुभवों के बावजूद भारतीय मुसलमानों के लिए उनके मन में लेशमात्र भी बैर भाव नहीं आया था.

यह भी पढ़ेंः 'वीर सावरकर अगर अंग्रेजों के पिट्ठू थे, तो इंदिरा गांधी ने ये चिट्ठी क्यों लिखी'

मुखर हो गए मुसलमानों पर
इसीलिए अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व-हू इज़ हिंदू?'. इसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया. हिंदुत्व की परिभाषा देते हुए उनका आशय बिल्कुल स्पष्ट था कि इस देश का बाशिंदा मूलत: हिंदू है. इस देश का नागरिक वही हो सकता है जिसकी पितृ भूमि, मातृ भूमि और पुण्य भूमि यही हो. पितृ और मातृ भूमि तो किसी की हो सकती है, लेकिन पुण्य भूमि तो सिर्फ़ हिंदुओं, सिखों, बौद्ध और जैनियों की ही हो सकती है, मुसलमानों और ईसाइयों की तो ये पुण्यभूमि नहीं है. इस परिभाषा के अनुसार मुसलमान और ईसाई तो इस देश के नागरिक कभी हो ही नहीं सकते. सावरकर ने हिंदुत्व का इस्तेमाल पहले भौगिलिक स्थिति के अनुरूप किया था. बाद में वह धर्म आधारित हो गया, जिस पर उन्होंने लगभग 18 किताब लिखी. इनमें से अधिकांश प्रतिबंधित कर दी गईं. कुछ अंग्रेजों द्वारा और बाद में कुछ कांग्रेस द्वारा. हालांकि इसके बाद समय-समय पर उन्होंने मुसलमानों के प्रति अपने विचारों को व्यक्त करने में कोई संकोच नहीं किया.

यह भी पढ़ेंः वीर सावरकर ने जब गांधी से कहा- मांस-मदिरा का करो सेवन, वर्ना अंग्रेजों से कैसे लड़ोगे

'मुस्लिम राज्य की धर्मांधता हावी'
'सावरकर एंड हिज टाइम' के पेज नंबर 230 पर उन्होंने मुसलमानों की मजहबी धारणा पर टिप्पणी की है. उनका कहना था, सामान्यतः मुसलमान अभी अत्यधिक धार्मिकता और राज्य की मजहबी धारणा के ऐतिहासिक चरण से नहीं उबर पाए हैं. उनकी मजहबी राजनीति मानव-जाति को दो भागों में विभाजित करती है-मुस्लिम भूमि और शत्रु भूमि! वे सभी देश, जिनमें या तो पूर्ण रूप से मुसलमान ही निवास करते हैं अथवा जहां मुसलमानों का शासन है, 'मुस्लिम देश' हैं और अन्य कोई भी देश 'शत्रु देश'. इसी तरह 30 दिसंबर 1939 को हिंदू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में सावरकर ने मुस्लिम धर्मांधता पर कड़ी टिप्पणी की. उन्होंने कहा, पारसी-ईसाई आदि भारत के लिए कोई समस्या नहीं हैं. जब हम स्वतंत्र हो जाएंगे तब इन्हें बड़ी सरलता से हिंदी नागरिक की श्रेणी में लाया जा सकेगा. किंतु मुसलमानों के बारे में बात दूसरी है. जब कभी इंग्लैंड भारत से अपनी सत्ता हटाएगा तब भारतीय राज्य के प्रति देश के मुसलमान भयप्रद सिद्ध हो सकते हैं. हिंदुस्तान में मुस्लिम राज्य की स्थापना करने की अपनी धर्मांध योजना को अपने मन-मस्तिष्क में संजोए रखने की मुस्लिम जगत की नीति आज भी बनी हुई है.

यह भी पढ़ेंः वीर सावरकर ने अंग्रेजों से कभी नहीं मांगी माफी, कांग्रेस का है एक और दुष्प्रचार

'मुसलमान कभी भारतीय नहीं हो सकता'
यही नहीं, नागपुर में हिंदू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में सावरकर यह कहने से भी नहीं चूके कि मुसलमान-मुसलमान ही रहेगा, वह भारतीय कभी नहीं हो सकेगा. अहमदाबाद में इसी को विस्तार देते हुए सावरकार ने मुसलमानों के वंदेमातरम के विरोध को मुद्दा बनाया. उन्होंने कहा मुस्लिम लीग वंदेमातरम को इस्लाम विरोधी घोषित कर चुकी है. राष्ट्रवादी कहे जाने वाले कांग्रेसी मुस्लिम नेता भी वंदेमातरम गाने से इंकार कर अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचय दे चुके हैं. हमारे एकतावादी कांग्रेसी नेता उनकी हर अनुचित व दुराग्रहपूर्ण मांग के सामने झुकते जा रहे हैं. आज वे वंदेमातरम्‌ का विरोध कर रहे हैं. कल हिंदुस्तान या भारत नामों पर एतराज़ करेंगे. इन्हें इस्लाम विरोधी करार देंगे. हिंदी की जगह उर्दू को राष्ट्रभाषा व देवनागरी की जगह अरबी लिपि का आग्रह करेंगे. उनका एकमात्र उद्‌देश्य ही भारत को दारूल इस्लाम बनाना है. तुष्टीकरण की नीति उनकी भूख और बढ़ाती जाएगी जिसका घातक परिणाम सभी को भोगना होगा.