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न कुंडली मिलान न गुणों की परख, बेमेल शादियों से भरा है भारतीय राजनीति का इतिहास

महाराष्ट्र ही नहीं भारतीय राजनीति (Indian Politics) में भी ऐसे बेमेल गठबंधनों से गठित सरकार के उदारहण कम नहीं हैं.

Updated on: 22 Nov 2019, 03:16 PM

highlights

  • बाला साहब ठाकरे ने तो मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन किया था.
  • 'कुर्सी' के लिए ऐसी बेमेल शादियों के उदाहरण भरे पड़े हैं राजनीति में.
  • इसीलिए कहते हैं राजनीति में कोई स्थायी शत्रु या स्थायी मित्र नहीं होता.

New Delhi:

अब यह तो तय हो गया है कि महाराष्ट्र (Maharashtra) में शिवसेना (ShivSena) अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री के साथ कांग्रेस-एनसीपी (Congress-NCP) के समर्थन से सरकार बनाने जा रही है. इसके साथ ही उन तमाम लोगों को 'झटका' लगा है, जो मान कर चल रहे थे कि कुछ भी हो जाए शिवसेना अपने 'कट्टर दुश्मन' (Enemy) कांग्रेस-एनसीपी के साथ नहीं जाएगी. हालांकि राजनीति ऐसे ही तमाम 'बेमेल शादियों' के उदाहरणों से भरी हुई है. फिर शिवसेना तो इसके पहले भी अपने 'निहित स्वार्थ' या 'राजनीतिक मजबूरियों' के तहत ऐसी कई बेमेल 'शादियों' (Mismatch Marriage) को अंजाम दे चुकी है. भले ही हालिया घटनाक्रम में शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे (Udhav Thackeray) की 'महत्वाकांक्षा' को इस बेमेल शादी के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा हो, लेकिन सच तो यह है कि बाला साहब ठाकरे (Bala Saheb Thackeray) ने अपने जीवनकाल में ही ऐसी ही बेमेल शादियों की एक नहीं कई बार कसमें खाईं. महाराष्ट्र ही नहीं भारतीय राजनीति (Indian Politics) में भी ऐसे बेमेल गठबंधनों से गठित सरकार के उदारहण कम नहीं हैं.

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कांग्रेस से समर्थन लेने कई कदम पीछे हटे उद्धव
अगर महाराष्ट्र में गहराए सियासी संकट (Political Crisis) और उसके पल-पल बदलते समीकरणों पर नजर डाली जाए, तो उद्धव ठाकरे ने शिवसेना-बीजेपी के साथ सरकार का गठऩ खटाई में पड़ते देख ही अपना 'चोला' बदलना शुरू कर दिया था. एनसीपी के आगे 'नतमस्तक' होते हुए शिवसेना ने सबसे पहले अपने एकमात्र केंद्रीय मंत्री अरविंद सावंत (Arvind Sawant) से इस्तीफा दिलाया. फिर कांग्रेस के साथ गठबंधन में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होने वाली 'हिंदुत्ववादी छवि' को पीछे करने का काम किया. अगर सरकार गठन में अहम भूमिका निभा रहे नेताओं के हवाले से छन कर आ रही खबरों पर यकीन करें तो उद्धव कई मसलों पर पीछे हटने को तैयार हैं यहा यूं कहें कि पहले ही कई कदम पीछे कर चुके हैं. 'मातोश्री' (Matoshree) से बाहर कदम रख उन्होंने शिवसेना के 'किंगमेकर' की अपनी छवि पहले ही ध्वस्त कर ली.

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उद्धव ठाकरे ने छोड़ा 'केसरिया बाना'
गौर करें मीडिया के सामने या सार्वजनिक रूप से उद्धव ठाकरे जब-जब 'प्रकट' हुए तो उन्होंने हमेशा केसरिया (Saffron) बाना ही धारण कर रखा था. हालांकि बीते कुछ दिनों से आप उन्हें बगैर केसरिया बाना ही देख रहे हैं. यह भी एक संकेत ही है कि उद्धव कांग्रेस को लुभाने के लिए 'केसरिया' रंग तक तज रहे हैं. इस कड़ी में एक बड़ा बदलाव वीर सावरकर (Veer Sawarkar) को भारत रत्न दिए जाने की मांग पर यू-टर्न है. गौरतलब है कि कांग्रेस वीर सावरकर को देशभक्त मानने तक से इंकार करती है, भारत रत्न (Bharat Ratna) की तो बात ही दूर की है. ऐसे में शिवसेना का इस मांग को छोड़ना जाहिर करता है कि 'कुर्सी' ही सब कुछ है, बाकी और कुछ नहीं. यही नहीं, चर्चा तो यह भी है कि शिवसेना मुसलमानों के आरक्षण के मसले पर भी अपना रुख छोड़ने को तैयार है.

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कांग्रेस के साथ बाला साहब का गठबंधन
हालांकि इसे उद्धव ठाकरे का कांग्रेस-एनसीपी के समक्ष समर्पण करार दिया जा रहा है, लेकिन शिवसेना के संस्थापक और 'हिंदू हृदय सम्राट' (Hindu Hriday Samrat) बाला साहब ठाकरे (Bal Thackeray) भी राजनीतिक लाभ या मजबूरियों के चलते ऐसे कई बेमेल गठबंधन कर चुके हैं. उन्होंने 1971 में कांग्रेस-ओ (कांग्रेस का इंदिरा गांधी विरोधी गुट जो 1969 में कांग्रेस से अलग हुआ था) के साथ गठबंधन किया. बाल ठाकरे ने शिवसेना के टिकट पर लोकसभा चुनावों में तीन प्रत्याशियों को उतारा था जिनमें से कोई भी नहीं जीता. 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया, बाल ठाकरे ने उसे सही ठहराया. 1977 के चुनावों में बाला साहब ठाकरे ने कांग्रेस को फिर समर्थन दिया. इसके बाद 1980 में भी शिवसेना ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को समर्थन दिया. ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि बाल ठाकरे और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री एआर अंतुले में घनिष्ठ संबंध थे.

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मुस्लिम लीग तक का साथ लिया हिंदू हृदय सम्राट ने
सुनने में भले ही थोड़ा अजीब लगे मगर अपनी कट्टर विचारधारा और मुसलमानों (Muslims) के खिलाफ 'उत्तेजक' बयान देने के लिए मशहूर शिवसेना सुप्रीमो मुस्लिम लीग (Muslim League) के साथ गठबंधन कर राजनीतिक पंडितों को अचंभित कर चुके हैं. यह बात 1989 की है. शिवसेना ने अपने कट्टर दुश्मन इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के साथ गठनबंधन किया था. यही नहीं, हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे ने मुस्लिम लीग के नेता गुलाम मोहम्मद बनातवाला (Gulam Mohammad Banathwala) के साथ मंच साझा करने से भी गुरेज नहीं किया था. गुलाम मोहम्मद बनातवाला को शिवसेना विशेषकर बाल ठाकरे का कट्टर आलोचक माना जाता था और तब ऐसे तमाम मौके आए जब बनातवाला ने बाल ठाकरे के लिए तीखी टिप्पणियां कीं. सेना ने 1970 में अपना मेयर (Mumbai Mayor) बनाए जाने के लिए मुस्लिम लीग से गठबंधन कर मदद ली थी. इसके बाद 1978 में बाल ठाकरे ने मुंबई स्थित नागपाड़ा के मस्तान तलाब मैदान में रैली की और इलाके के मुसलमानों के सामने अपना पक्ष रखा. उस रैली के दौरान भी कई ऐसे मौके आए थे जब शिवसेना और मुस्लिम लीग के बीच का मतभेद साफ़ दिखाई पड़ा.

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शरद पवार और सोनिया गांधी भी रहे मुखर आलोचक
आज एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार (Sharad Pawar) महाराष्ट्र में शिवसेना को समर्थन देने के मसले पर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के निर्णय को सर्वोच्च करार दे रहे हैं. यह अलग बात है कि वह विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया गांधी को 'लानते-मलानते' भेज कांग्रेस से अलग हुए थे और एनसीपी का गठन किया था. हालांकि अलग-अलग महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव लड़ने वाले शरद पवार को बाद में ऐसी राजनीतिक मजबूरी आन पड़ी कि उन्होंने 1999 में कांग्रेस संग गठबंधन किया. उस वक्त इस पर काफी हैरानी जताई गई थी. कांग्रेस नेता विलासराव देशमुख मुख्यमंत्री बने थे. हालांकि शरद पवार का भीतरखाने यही बयान माना गया था कि विदेशी मूल (Foreign Origin) का मुद्दा केंद्र की राजनीति के लिए था. राज्य में सोनिया गांधी तो मुख्यमंत्री बनने आ नहीं रहीं. फिर सूबे में सरकार गठन के लिए कांग्रेस का समर्थन लेने से गुरेज नहीं होना चाहिए.

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जब बीजेपी ने वीपी सिंह को दिया समर्थन
बात 1989 की है बोफोर्स (Bofors) कांड के बाद हुए लोकसभा चुनाव में वीपी सिंह (VP Singh) के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी. सरकार को बीजेपी से समर्थन मिला. तत्कालीन गठबंधन पर बहुत हैरानी जताई गई. हालांकि बीजेपी सरकार में शामिल नहीं हुई. 1990 में मंडल विरोधी आंदोलन और राम मंदिर आंदोलन के बहाने बीजेपी ने वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई. 'मंडल-कमंडल' (Mandal-Kamandal) की राजनीतिक के एक साथ आने का सुविधाभोगी उदाहरण इससे बेहतर और कोई नहीं है.

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उत्तर प्रदेश ने तो रचा बेमेल इतिहास
राजनीतिक रूप से बेमेल गठबंधन का गवाह उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) भी कई बार बना. 1995 में सपा-बसपा गठबंधन ने मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) के नेतृत्व में बहुमत से सरकार बनाई थी. मगर बाद में विवाद की वजह से मायावती (Mayawati) अलग हो गईं. गेस्ट हाउस कांड ने दोनों ही पार्टियों और उनके नेताओं को एक-दूसरे के इतना दूर कर दिया कि दोनों दलों के नेता उस स़ड़क से नहीं गुजरते थे, जिस पर विरोधी नेता का घर पड़े. इसके बाद यूपी में बीजेपी के दिग्गज नेता ब्रह्मदत्त दि्वेदी के प्रयासों से 3 जून 1995 में बीजेपी के सहयोग से मायावती सीएम (CM) बनीं. हालांकि सरकार कुछ ही महीने चल पाई और अक्टूबर में मायावती को इस्तीफा देना पड़ा. अब बसपा और बीजेपी ने एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोसा. हाल के दौर की बात करें तो मुलायम सिंह यादव के चश्म-ओ-चिराग अखिलेश सिंह (Akhilesh Yadav) ने 2019 लोकसभा चुनाव में मायावती के साथ फिर से संबंध जोड़ा. हालांकि परिणाम सामने आए तो बसपा फायदे में रही और मायावती ने सपा से किनारा करने में देर नहीं लगाई.

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बिहार में भी सुविधा की राजनीति
जातिगत राजनीति के लिए लोकप्रिय बिहार (Bihar) भी इस तरह के बेमेल गठबंधन का गवाह बना. बीजेपी की ओर से गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi)का नाम अगले पीएम बतौर घोषित होते ही विरोधस्वरूप एनडीए का हिस्सा रहे जदयू के नीतीश कुमार (Nitish Kumar) अलग हो गए. 2015 में विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी से मतभेद के बाद नीतीश कुमार एनडीए (NDA) से अलग हो गए. फिर राजद, कांग्रेस के साथ महागठबंधन बनाया. चुनाव के बाद नीतीश के नेतृत्व में सरकार भी बनी. मगर बाद में ये टूट गया और बाद में बीजेपी संग मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सरकार बनाई. इसकी वजह यह बताई जाती है कि नीतीश को समझ आ गया था एनडीए के साथ रहने से उन्हें इतना नुकसान नहीं है, जितना राजद यानी लालू प्रसाद यादव (lalu Prasad Yadav) के साथ रहने से है.

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बीजेपी ने पीडीपी को समर्थन दे चौंकाया
जम्मू-कश्मीर (Jammu Kashmir) ने तो बेमेल शादियों के क्रम में इतिहास रचा. विधानसभा चुनाव के बाद 2016 में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) और बीजेपी के गठबंधन से हर कोई हैरान रह गया था. दोनों पार्टियों के गठबंधन की सरकार 2016 में बनी, मगर आगे चलकर साथ टूट गया और 2018 में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती (Mehbooba Mufti) की सरकार गिर गई. जाहिर है ऐसी स्थिति में जैसा होता आया है, एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा जमकर तीर चले. हालांकि पीडीपी के साथ गठबंधन की आंच बीजेपी को हालिया महाराष्ट्र चुनाव के बाद शिवसेना के साथ सरकार बनाने के क्रम में भी झुलसा रही है.

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कर्नाटक का नाटक तो रहा बेमिसाल
2018 कर्नाटक (Karnataka) विधानसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला. सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी थी मगर उसे रोकने के लिए कांग्रेस ने अपने से बेहद कम विधायकों वाली पार्टी जेडीएस (JDS) को समर्थन दे दिया. इस तरह कुमारस्वामी (Kumarswamy) मुख्यमंत्री बने. हालांकि कर्नाटक का नाटक लंबे समय तक चलता रहा. कांग्रेस-जेडीएस के गठबंधन पर लोग हैरान रह गए थे. कुमारस्वामी लगभग हर मौके पर अपने 'आंसू' पोछते देखे गए और गठबंधन को जहर बताते रहे. यह अलग बात है कि 2019 में बीजेपी के अविश्वास प्रस्ताव पर कुमारस्वामी की सरकार गिर गई. फिलहाल राज्य की सत्ता में बीजेपी है.

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हरियाणा में मोदी को कोसा फिर सरकार बना ली
यह तो चंद उदाहरण भर है सत्ता के लिए बेमेल गठबंधन का इतिहास बहुत लंबा है. हरियाणा (Haryana) भी एक उदाहरण है, जहां जेजेपी के दुष्यंत चौटाला (Dushyant Chautala) ने बीजेपी को कोसने के साथ अपना चुनाव अभियान शुरू किया था. यह अलग बात है कि परिणाम आते ही दुष्यंत चौटाला मनोहर लाल खट्टर के खेमे में आ खड़े हुए और हरियाणा की नवगठित सरकार में शामिल हो गए. दक्षिण में द्रमुक (DMK) को अपना विरोधी मानने वाली कांग्रेस ने मौका पड़ने पर द्रमुक के साथ भी सरकार बनाई. ऐसी स्थिति में आज की तारीख में महाराष्ट्र के हालिया घटनाक्रम में शिवसेना को कठघरे में खड़ा करना सिरे से उचित नहीं होगा. भारतीय राजनीति दलबदलुओं और निहित स्वार्थवश बेमेल शादियों के लिए हमेशा से जानी जाती रही है और जानी जाती रहेगी.