महाराष्ट्र के सीएम पद की लड़ाई पर शिवसेना ही नहीं, नीतीश कुमार का भी टिका है भविष्य

'महाराष्ट्र में कौन बनेगा सीएम' के जो भी परिणाम सामने आएंगे नीतीश कुमार उसके अनुरूप ही अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर फैसला लेंगे. इसकी वजह बनेंगे सामने आने वाले समीकरण.

'महाराष्ट्र में कौन बनेगा सीएम' के जो भी परिणाम सामने आएंगे नीतीश कुमार उसके अनुरूप ही अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर फैसला लेंगे. इसकी वजह बनेंगे सामने आने वाले समीकरण.

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Nihar Saxena
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महाराष्ट्र के सीएम पद की लड़ाई पर शिवसेना ही नहीं, नीतीश कुमार का भी टिका है भविष्य

सांकेतिक चित्र( Photo Credit : (फाइल फोटो))

महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री पद को लेकर उलझे पेंच पर सभी की निगाहें हैं. राजनीतिक पंडितों के साथ-साथ अगले साल विधानसभा चुनाव में उतरने जा रही नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) की भी. बिहार के संदर्भ में बात करें तो जदयू के डर और आकांक्षाएं शिवसेना की तरह ही साझा हैं. शिवसेना महाराष्ट्र के पड़ोसी राज्य गोवा के राजनीतिक इतिहास से सबक लेते हुए फिलवक्त अपनी खोई जमीन वापस हासिल करने के लिए 'करो या मरो' की लड़ाई पर उतर आई है. उसे डर यही सता रहा है कि हर चुनाव में अपना वोट शेयर बढ़ाती जा रही बीजेपी कहीं गोवा की महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी जैसा ही हश्र उसका भी नहीं कर दे. ऐसे में 'महाराष्ट्र में कौन बनेगा सीएम' के जो भी परिणाम सामने आएंगे नीतीश कुमार उसके अनुरूप ही अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर फैसला लेंगे.

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मुखपत्र बने बयानबाजी के हथियार
फिलहाल तो यह भी नहीं कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र का मसला सुलझाने के लिए बीजेपी और शिवसेना अपने-अपने स्तर पर गंभीर प्रयास भी कर रहे हैं. सरकार बनाने को लेकर 'गंभीर जुमलेबाजी' तो दोनों पार्टियों के मुखपत्र 'सामना' और 'तरुण भारत' में ही दिखाई पड़ रही है या फिर संजय राउत की ट्वीट्स में. हालांकि शिवसेना इस मसले पर बिल्कुल स्पष्ट और गंभीर है कि उसे सिर्फ सत्ता में भागीदारी ही नहीं चाहिए, बल्कि यह संदेश भी देना है कि सत्ता की चाबी उसके पास है. खासकर इस आलोक में कि हालिया विधानसभा चुनाव में एनसीपी-कांग्रेस ने अपने-अपने प्रदर्शन से संकेत दे दिया है कि वह भी अपनी खोई जमीन हासिल करने के लिए 'तैयार' हैं.

महाराष्ट्र
सालबीजेपीशिवसेना
19904252
19956573
19995669
20045462
20094645
201412263
201910556

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शिवसेना को सता रहा गोवा का भूत
जाहिर है शिवसेना का डर कई मोर्चों पर है. सबसे पहला तो उसे गोवा का राजनीतिक इतिहास भी डरा रहा है. गोवा का इतिहास गवाह है कि एक समय राज्य में 'बड़े भाई' की भूमिका रखने वाली महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी (एमजीपी) आज बीजेपी के समक्ष कहीं भी टिकती नहीं है. यहां तक कि एक समय 14 विधायक जीतने वाली एमजीपी के पास फिलहाल एक ही विधायक है. और यह सब बीजेपी के बढ़ते वोट प्रतिशत और राजनीतिक प्रभाव के चलते हुआ है. स्थिति यह आ गई है कि एक समय एमजीपी का हाथ पकड़कर सूबे की राजनीति में उतरी बीजेपी अब अपने दांव-पेंच खुलकर खेलती है और इन्हीं दांव-पेंचों ने एमजीपी को हाशिये पर ला दिया है. यानी एक समय बीजेपी नीत एनडीए गठबंधन का हिस्सा रही एमजीपी फिलवक्त अपने अस्तित्व की जद्दोजेहद में है.

महाराष्ट्र में बीजेपी की शुरुआत
गोवा का सबक शिवसेना के सामने हैं. लगभग 35 साल पहले शिवसेना का हाथ पकड़ कर बीजेपी ने महाराष्ट्र की राजनीति में कदम रखा था. यह वह दौर था जब कांग्रेस से अलग होकर एक नया दल बनाने वाले शरद पवार ने शिवसेना को अपना सहयोगी बनाने से इंकार कर दिया था. ऐसे में 'हिंदू हृदय सम्राट' बाल ठाकरे ने बीजेपी के 'पुरौधा' भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और फिलवक्त मार्गदर्शक मंडल के सदस्य लाल कृष्ण आडवाणी से डील की थी. बीजेपी ने तब तक बाबरी मस्जिद मसले को बाहर नहीं निकाला था. इस तरह 1984 में लोकसभा चुनाव में बीजेपी के टिकट पर शिवसेना ने अपने प्रत्याशी उतारे. 1989 में बीजेपी और शिवसेना ने विधिवत गठबंधन कर लिया.

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बीजेपी बढ़ती गई, शिवसेना घटती गई
हालांकि महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में बीजेपी और शिवसेना ने साथ-साथ लड़ा. इसमें बीजेपी ने 14 फीसदी वोटों के साथ 46 सीटें जीती. शिवसेना ने 16 फीसदी वोटों के साथ 44 सीटें अपने कब्जे में की. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के वोटों में इजाफा हुआ और उसने 28 फीसदी वोटों के साथ राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से 23 पर जीत दर्ज करने में सफलता हासिल की. शिवसेना को 21 फीसदी वोटों के साथ महज 18 सीटों पर संतोष करना पड़ा. हालांकि 2014 में दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. बीजेपी ने 28 फीसदी वोट शेयर अपने पाले में रखते हुए राज्य की 288 में से 122 सीटों पर कब्जा किया. इस चुनाव में शिवसेना का वोटबैंक सिकुड़ कर 19 फीसदी पर आ गया और उसे 63 सीटों पर जीत मिली. हालांकि बाद में दोनों ने फिर सरकार बनाई. 2019 लोकसभा चुनाव का परिणाम भी सभी के सामने आया. बीजेपी ने अपना वोट शेयर फिर से बरकरार रखा. हालांकि इस बार शिवसेना के वोटों में वृद्धि दर्ज की है. फिर भी इतना साफ है कि बीजेपी न सिर्फ शिवसेना को उसका स्थान दिखाने में सफल रही है, बल्कि सूबे में 35 साल की तुलना में कहीं मजबूती से खड़ी है. यही वह डर है जो शिवसेना को खासा सता रहा है.

शिवसेना के लिए आगे कुंआ पीछे खाई वाली स्थिति
जाहिर है इस बार शिवसेना अपना पलड़ा कमजोर साबित नहीं करना चाहती है. इसलिए वह 'चुनाव पूर्व वादा' करार दे सूबे के मुख्यमंत्री पद पर अड़ी है. बीजेपी भी हरियाणा की तुलना में यहां ढील देकर पेंच लड़ा रही है. उसके दोनों हाथों में लड्डू हैं. अगर राज्यपाल शासन लगता है तो उसके पास अपेक्षित संख्या जुटाने के लिए वक्त होगा. दूसरे, यदि शिवसेना अपनी 'विचारधारा' को तज कर एनसीपी-कांग्रेस से हाथ मिलाती है, तो भी बीजेपी के लिए आगे की लड़ाई के लिए 'खुला मैदान' होगा. दोनों ही सूरतों में शिवसेना को ही इसका खामियाजा उठाना पड़ेगा. शह-मात के इस खेल पर संभवतः इसीलिए जदयू और नीतीश कुमार की निगाहें लगी हैं.

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बिहार का पेंच भी है सामने
बीजेपी की ओर से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करते हुए बिहार में नीतीश कुमार ने अपनी राहें अलग-अलग कर ली थीं. हालांकि दो साल बाद ही वह वापस बीजेपी नीत एनडीए के खेमे में लौट आए. जिस उलझन से शिवसेना जूझ रही है, उसी से जदयू भी संशय में है. 2010 में बिहार में जदयू और बीजेपी ने साथ-साथ विधानसभा चुनाव लड़ा. जदयू को 115 और बीजेपी को 91 सीटें मिली. दोनों का वोट शेयर भी क्रमशः 22.58 और 16.49 फीसदी रहा. 2013 में जदयू ने एनडीए का साथ छोड़ा और 2014 का चुनाव अकेले लड़ा. इस चुनाव में जदयू के वोट शेयर में 6 फीसदी के आसपास की गिरावट दर्ज की गई. यही नहीं, राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से सिर्फ दो पर ही जदयू को जीत मिली. इस साल भी बीजेपी ने 30 फीसदी से अधिक वोटों पर कब्जा किया. 2015 में जदयू महागठबंधन का हिस्सा बना और राजद और कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ा.

नीतीश के लिए साफ है संकेत
यह अलग बात है कि नीतीश कुमार को समझ आ गया कि उसका भविष्य एनडीए के साथ ही सुरक्षित है. अन्यथा 'सुशासन बाबू' की छवि ध्वस्त होते देर नहीं लगेगी. इसे समझते हुए एक दशक बाद जदयू ने बीजेपी का साथ पकड़ा और नतीजा उसके लिए सुखद रहा. जदयू ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें से 16 पर उसे जीत मिली. साथ ही उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा और उसे 21.82 फीसदी वोटरों का समर्थन हासिल हुआ. हालांकि बीजेपी को सबसे ज्यादा 24 फीसदी वोट मिले थे. अब महाराष्ट्र में सीएम रूपी ऊंट किस करवट बैठता है, इस पर नीतीश कुमार की निगाहें हैं.

HIGHLIGHTS

  • शिवसेना गोवा से सबक लेते हुए फिलवक्त 'करो या मरो' की लड़ाई पर उतर आई है.
  • बीजेपी के लिए आगे की लड़ाई के लिए 'खुला मैदान' होगा.
  • शह-मात के इस खेल पर इसीलिए जदयू और नीतीश कुमार की निगाहें
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