नई दिल्ली, 14 जून (आईएएनएस)। ‘देवी प्रसाद राय’...। इस नाम से भले ही आज की पीढ़ी वाकिफ न हो, लेकिन वह भारतीय कला जगत के एक चमकते सितारे थे, जिन्होंने अपनी असाधारण चित्रकला और मूर्तिकला के माध्यम से आधुनिक भारतीय कला को नई ऊंचाई प्रदान की। पद्म भूषण से सम्मानित इस महान कलाकार ने न केवल कांस्य मूर्तियों जैसे ‘श्रम की विजय’ और ‘शहीद स्मारक’ के जरिए सामाजिक यथार्थवाद (सोशल रियलिटी) को जीवंत किया, बल्कि अपने चित्रों में भारतीय संस्कृति, प्रकृति और मानवीय भावनाओं को भी शानदार ढंग से उकेरने का काम किया।
‘देवी प्रसाद राय’ की कला में बंगाल स्कूल की परंपरा, पश्चिमी प्रभाव और सामाजिक चेतना का अद्भुत समन्वय दिखता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी देवी प्रसाद राय ने ललित कला अकादमी के संस्थापक अध्यक्ष, संगीतकार, साहित्यकार और शिक्षक के रूप में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनकी कृतियां आज भी भारतीय कला के स्वर्णिम इतिहास की गवाही देती हैं।
देवी प्रसाद राय का जन्म 15 जून 1899 को अविभाजित भारत के रंगपुर जिले के ताजहट (वर्तमान में बांग्लादेश का हिस्सा) में एक जमींदार परिवार में हुआ था। बचपन से ही कला के प्रति उनकी रुचि ने उन्हें इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। राय के पिता ने उनकी प्रतिभा को पहचानकर उन्हें प्रसिद्ध चित्रकार अबनिंद्रनाथ टैगोर के मार्गदर्शन में कला सीखने के लिए प्रोत्साहित किया।
उन्होंने अपनी प्रारंभिक कला शिक्षा बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्राप्त की। टैगोर की बंगाल शैली ने उनकी चित्रकला को काफी प्रभावित किया। हालांकि, बाद में उन्होंने हिरण्यमय चौधरी के स्टूडियो में मूर्तिकला की शिक्षा ली और फिर वे आगे की शिक्षा के लिए इटली गए, जहां उनकी कला पर पश्चिमी शैली, विशेष रूप से फ्रांसीसी मूर्तिकार ऑगस्टे रॉडिन का प्रभाव पड़ा।
देवी प्रसाद राय चौधरी को उनकी स्मारकीय कांस्य मूर्तियों के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। उनकी दो सबसे प्रसिद्ध कृतियां ‘श्रम की विजय’ और ‘शहीद स्मारक’ हैं। साल 1959 में चेन्नई में समुद्र तट पर स्थापित ‘श्रम की विजय’ मूर्ति श्रमिकों के परिश्रम और शक्ति को दर्शाती है। चार व्यक्तियों द्वारा एक विशाल चट्टान को हटाने के प्रयास को यह मूर्ति जीवंत रूप से चित्रित करती है।
पटना सचिवालय के बाहर स्थापित ‘शहीद स्मारक’ में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान शहीद हुए सात युवकों की स्मृति को दर्शाया गया है। यह मूर्ति स्वतंत्रता संग्राम के बलिदान और जोश का प्रतीक है।
उनकी अन्य उल्लेखनीय मूर्तियों में दिल्ली में ‘दांडी मार्च की प्रतिमा’ भी शामिल है, जो महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश के स्वतंत्रता संग्राम की याद दिलाती है। इसके अलावा, महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू, सर सुरेंद्र नाथ बैनर्जी जैसी हस्तियों की प्रतिमाएं भी उन्होंने बनाई थीं। उनकी मूर्तियों में सामाजिक यथार्थवाद और मानवीय भावनाओं का गहरा चित्रण दिखाई देता है, जो रोडिन जैसे पश्चिमी मूर्तिकार के प्रभाव को दर्शाता है। मूर्तिकला के धनी देवी प्रसाद राय चौधरी एक कुशल चित्रकार भी थे।
उनके चित्रों में बंगाल शैली के साथ-साथ पश्चिमी प्रभावों का समन्वय दिखता है। उन्होंने वाटर कलर, ऑयल कलर, पेस्टल और टेम्परा में काम किया। उनके प्रसिद्ध चित्रों में ‘शरद प्रतिमा’, ‘जीवन संध्या’, ‘मुसाफिर’ और रवींद्रनाथ टैगोर के चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनके चित्रों में पर्वतीय नारी सौंदर्य, मछुआरों का जीवन और सामाजिक यथार्थवाद (सोशल रियलिटी) जैसे विषय प्रमुखता से उभरते हैं।
देवी प्रसाद राय चौधरी कला के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी निपुण थे। वह बांसुरी वादन, शिकार, कुश्ती और साहित्य लेखन में भी रुचि रखते थे। उनकी साहित्यिक रचनाओं और संगीत के प्रति प्रेम ने उनकी कला को और समृद्ध किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी देवी प्रसाद राय चौधरी को उनके योगदान के लिए पद्म भूषण (1958) से नवाजा गया। वह ललित कला अकादमी फेलोशिप (1962) सम्मान प्राप्त करने वाले चुनिंदा कलाकारों में से एक थे।
देवी प्रसाद राय चौधरी का निधन 15 अक्टूबर 1975 को कोलकाता में 76 साल की उम्र में हुआ। उनकी कृतियां और योगदान आज भी भारतीय कला के इतिहास में अमर हैं।
--आईएएनएस
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