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गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल, करीब 800 साल से दरगाह पर निभाई जा रही रस्म

वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पांचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता है, जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा भी होती है. इसे वसंत पंचमी का त्योहार कहा जाता है और देशभर में इसे मनाया जाता है.

Updated on: 21 Feb 2021, 01:31 PM

नई दिल्ली:

वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पांचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता है, जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा भी होती है. इसे वसंत पंचमी का त्योहार कहा जाता है और देशभर में इसे मनाया जाता है. इसी दिन राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की मशहूर हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर भी इस त्योहार को मनाया जाता है. वसंत पंचमी के दिन दरगाह को पीले गेंदे के फूलों से सजाया जाता है और दरगाह पर आने वाले सभी श्रद्धालु पीले रंग के वस्त्र पहन कर आते हैं और सर पर पीले रंग का पटका व पगड़ी पहनते हैं. यहां वसन्त पंचमी बीते करीब 800 सालों से मनाई जा रही है. दरगाह हजरत निजामुद्दीन औलिया के चीफ इंचार्ज सयैद काशिफ निजामी ने बताया, हर साल की तरह इस साल भी इस दिन सूफी वसंतोत्सव के रूप में मनाया गया. इस दिन कव्वाली भी होती है और हजरत मिजामुद्दीन औलिया की शान में भव्य कव्वाली पेश की जाती है.

बताया जाता है कि वसंत पंचमी का त्योहार केवल हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर ही नहीं मनाया जाता, बल्कि बीते कुछ सालों में कुछ और दरगाहों पर भी इसे मनाया जाने लगा है. दरगाह हजरत निजामुद्दीन औलिया की देखरेख करने वाले सयैद अदीब निजामी ने बताया, वसंत पंचमी के दिन दरगाह पर पीले रंग के लिबास पहने सूफी कव्वाल सूफी संत अमीर खुसरो के गीत हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर पेश करते हैं.

उन्होंने आगे कहा कि हर धर्म के त्योहारों को मजहब से ऊपर उठ कर देखना चाहिए, भारत देश में गंगा-जमुनी तहजीब की मिसालें दी जाती हैं. दरअसल कहा जाता है कि, हजरत निजामुद्दीन औलिया अपने भांजे (हरजत तकिउद्दीन नुह) के देहांत से काफी दुखी थे. हजरत निजामुद्दीन औलिया अपने भांजे से बेहद प्यार करते थे.

भांजे के देहांत के बाद हजरत निजामुद्दीन औलिया उदास हो गए और इतना सदमा लगा कि उन्होंने लोगों से मिलना-जुलना बंद कर दिया. वह अपने खानखा (दफ्तर) से भी बाहर नहीं निकलते थे. अमीर खुसरो को जब ये पता लगा कि निजामुद्दीन औलिया उदास हैं तो उन्हें बुरा लगा, और एक दिन अमीर खुसरो कालका मंदिर की तरफ से गुजर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि कुछ पुरुष, महलिाएं, बच्चे पीले फूल ओर पीला लिबास पहनकर जा रहे थे. खुसरो ने उन सभी से पूछा कि ये आप क्या कर रहे हैं? मौजूद लोगों ने खुसरो से कहा कि हम अपने भगवान को खुश करने जा रहे हैं, फूल और पीले लिबास से भगवान खुश हो जाते हैं.

ये बात सुन कर खुसरो ने सोचा कि इन्हीं की तरह मैं भी पीला लिबास पहनकर अपने पीर के सामने जाऊंगा तो शायद वह भी खुश हो सकते हैं. इसके बाद खुसरो ने पीला लिबास पहना और हजरत निजामुद्दीन औलिया के सामने आ पहुंचे. पीले लिबास में खुसरो को देख कर हजरत खुश हो गए और उनके चहरे पर मुस्कान वापस आ गई.

इसी याद को ताजा करने के लिए ये रस्म अब तक निभाई जा रही है. दरगाह में देखरेख करने वाले सयैद जोहेब निजामी ने बताया, दुनिया में भाईचारा कायम रहे, हर मजहब के लोग इंसानियत को पहले देखें, बस इसी सोच से ये त्यौहार मनाया जाता है. करीब 800 साल से रस्म मनाई जा रही है. वसन्त पंचमी वाले दिन हर मजहब के लोग यहां पहुंचते हैं और चेहरे पर मुस्कान के साथ इस त्यौहार को मनाते हैं. वसन्त पंचमी वाले दिन दरगाह पर सभी लोग पीली चादर या पीले फूल भी चढ़ाते हैं और उस दिन अमीर खुसरो द्वारा पढ़ी गई कव्वाली गाई जाती है.