Meru Trayodashi 2021: मोक्ष पाने के लिए किया जाता है मेरू त्रयोदशी व्रत, जानें पूजा विधि और महत्व
मेरू त्रयोदशी 2021 (Meru Trayodashi 2021): आज 9 फरवरी मंगलवार को मेरू त्रयोदशी मनाया जा रहा है. जैन धर्म में मेरू त्रयोदशी व्रत का विशेष स्थान है. पिंगल कुमार (pingal kumar) की याद में जैन धर्म का यह पर्व मनाया जाता है.
नई दिल्ली:
मेरू त्रयोदशी 2021 (Meru Trayodashi 2021): आज 9 फरवरी मंगलवार को मेरू त्रयोदशी मनाया जा रहा है. जैन धर्म में मेरू त्रयोदशी व्रत का विशेष स्थान है. पिंगल कुमार (pingal kumar) की याद में जैन धर्म का यह पर्व मनाया जाता है. जैन कैलेंडर के अनुसार, मेरू त्रयोदशी का व्रत हर साल माघ महीने के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाई जाती है. इसी दिन भगवान ऋषभदेव को निर्वाण प्राप्त हुआ था और उनके जरिए ही जैन धर्म को 24 तीर्थंकर मिले. भगवान ऋषभदेव को जैन धर्म का पहला तीर्थंकर माना जाता है. तीर्थंकर का अर्थ होता है जो तीर्थ की, संसार सागर से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करे. भगवान ऋषभदेव को आदिनाथ भी कहते हैं और वे वर्तमान अवसर्पिणी काल के पहले तीर्थंकर हैं.
जैन धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जो भक्त मेरू त्रयोदशी के दिन व्रत, तप और जाप करते हैं वो सभी सांसारिक सुखों का भोग करते हुए आत्मिक सुख और शांति को प्राप्त होते हैं. यह भी कहा गया है कि जो लोग मोक्ष की इच्छा रखते हैं उनके लिए 5 मेरू का संकल्प पूरा करना जरूरी होता है. भक्तों को इसके लिए 20 नवकारवली के साथ ऊँ रहीम्, श्रीम् अदिनाथ पारंगत्या नम: मंत्र का जाप करना चाहिए.
मेरू त्रयोदशी का शुभ दिन रसभा देव के निर्वाण कल्याणक के दिन के रूप में भी जाना जाता है. मगशिर के तेरहवें दिन पर मेरू त्रयोदशी का त्योहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन उपवास रखने वाले भक्तों को 13 साल और 13 महीने तक एक ही परंपरा का पालन करना होता है.
मेरू त्रयोदशी पर भक्त को कोविहार रूपी बहुत ही कठिन उपवास करना होता है. इस व्रत में आप अन्न ग्रहण नहीं कर सकते. यदि कोई भक्त इस दिन व्रत करता है तो उसे साधु को दान देने की क्रिया का पालन करना होता है. भक्त को महीने के प्रत्येक 13वें दिन, 13 महीने तक और अधिकतम 13 वर्षों के लिए यह उपवास करना होगा.
श्रद्धालु बिना कुछ खाए-पिए मेरू त्रयोदशी के दिन निर्जला व्रत रखते हैं. इस दिन पूजा करने के लिए भगवान ऋषभनाथ या ऋषभदेव की प्रतिमा के सामने चांदी के बने 5 मेरू रखे जाते हैं. बीच में एक बड़ा मेरू और उसके चारों ओर 4 छोटे-छोटे मेरू रखे जाते हैं. इसके बाद पवित्र स्वास्तिक का चिन्ह बनाया जाता है. इसके बाद भगवान ऋषभदेव की पूजा की जाती है.
पूजा और व्रत के बाद अगले दिन ऊँ ह्रीम श्रीम् ऋषभदेव परमगत्या नम: मंत्र का जाप करने के बाद मठ के किसी भिक्षुक को दान दें और फिर व्रत खोलें.
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