रांची के जगन्नाथपुर में 334 वर्ष की ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार निकली रथयात्रा, उमड़ा भक्तों का सैलाब

रांची के जगन्नाथपुर में 334 वर्ष की ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार निकली रथयात्रा, उमड़ा भक्तों का सैलाब

रांची के जगन्नाथपुर में 334 वर्ष की ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार निकली रथयात्रा, उमड़ा भक्तों का सैलाब

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IANS
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रांची के जगन्नाथपुर में 334 वर्ष की ऐतिहासिक परंपराओं के अनुसार निकली रथयात्रा, उमड़ा भक्तों का सैलाब

(source : IANS) ( Photo Credit : IANS)

रांची, 27 जून (आईएएनएस)। रांची के जगन्नाथपुर मंदिर से शुक्रवार को निकाली गई भगवान जगन्नाथ की ऐतिहासिक रथ यात्रा में आस्था का जनसैलाब उमड़ पड़ा। ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर की परंपराओं और मान्यताओं की तर्ज पर आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि को रांची में रथयात्रा का यह 334वां वर्ष है।

रांची में रथयात्रा की परंपरा 1691 में प्रारंभ हुई थी। अपराह्न ढाई बजे भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा एवं भाई बलभद्र के विग्रहों को रथ पर विराजमान किया गया और उनके शृंगार के बाद शाम पांच बजे रथयात्रा शुरू हुई तो विशाल मेला परिक्षेत्र स्वामी जगन्नाथ के जयकारे से गूंज उठा। बड़ी संख्या में भक्तों ने भगवान का रथ खींचकर करीब आधा किलोमीटर दूर मौसीबाड़ी तक पहुंचाया। भगवान नौ दिनों तक मौसीबाड़ी में ही दर्शन देंगे।

5 जुलाई को हरिशयनी एकादशी की तिथि में रथ यात्रा की वापसी होगी। 6 जुलाई को यहां लगे विशाल मेले का समापन होगा। अनुमान है कि रथयात्रा महोत्सव के पहले दिन करीब दो लाख लोग पहुंचे। रांची शहर के धुर्वा स्थित यह जगन्नाथपुर मंदिर सर्वधर्म और सर्वजाति समभाव के केंद्र के रूप में विख्यात रहा है।

इतिहास बताता है कि छोटानागपुर के नागवंशीय राजा ऐनीनाथ शाहदेव ओडिशा के पुरी मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने गए थे। वहां से मुग्ध होकर लौटने के बाद उन्होंने उसी मंदिर की तर्ज पर रांची में लगभग ढाई सौ फीट ऊंची पहाड़ी पर इस मंदिर का निर्माण कराया था। रांची स्थित जगन्नाथपुर मंदिर की बनावट पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलती-जुलती है।

इस मंदिर में पूजा से लेकर भोग चढ़ाने का विधि-विधान पुरी जगन्नाथ मंदिर जैसा ही है। गर्भ गृह के आगे भोग गृह है। भोग गृह के पहले गरुड़ मंदिर है, जहां बीच में गरुड़जी विराजमान हैं। गरुड़ मंदिर के आगे चौकीदार मंदिर है। ये चारों मंदिर एक साथ बने हुए हैं। मंदिर का निर्माण सुर्खी-चूना की सहायता से पत्थर के टुकड़ों द्वारा किया गया है तथा कार्निश एवं शिखर के निर्माण में पतली ईंट का भी प्रयोग किया गया है।

6 अगस्त, 1990 को मंदिर का पिछला हिस्सा ढह गया था, जिसका पुनर्निर्माण कर फरवरी, 1992 में मंदिर को भव्य रूप दिया गया। कलिंग शैली पर इस विशाल मंदिर का पुनर्निर्माण करीब एक करोड़ की लागत से हुआ है।

इस मंदिर और यहां की रथयात्रा का सबसे अनूठा पक्ष इसकी व्यवस्था और आयोजन में सभी धर्म के लोगों की भागीदारी है। सामाजिक समरसता और सर्वधर्म समभाव की एक ऐसी परंपरा शुरू की गई, जिसमें उन्होंने हर वर्ग के लोगों को कोई न कोई जिम्मेदारी दी।

मंदिर के आसपास कुल 895 एकड़ जमीन देकर सभी जाति-धर्म के लोगों को बसाया गया था। मंदिर की पहरेदारी की बड़ी जिम्मेदारी मुस्लिम समुदाय को सौंपी गई थी। सैकड़ों वर्षों तक उन्होंने इस परंपरा का निर्वाह किया। पिछले कुछ वर्षों से मंदिर की सुरक्षा का इंतजाम ट्रस्ट के जिम्मे है।

--आईएएनएस

एसएनसी/पीएके/एबीएम

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