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इन मजदूरों की मौत पर दुहाई नहीं बधाई दीजिए...अपने सुलगते सवाल उनकी चिता पर डाल दीजिए

बधाई हो उन 16 मजदूरों को, जो महाराष्ट्र में ट्रेन से कटकर जिंदगी के जंजाल से आज़ाद हो गए, क्योंकि ट्रेन से न कटते तो वे सैकड़ों किलोमीटर के पैदल सफर में दम तोड़ देते और अगर बच भी जाते तो बेकारी के आलम में भूख उन्हें खा जाती .

Updated on: 10 May 2020, 03:22 PM

नई दिल्ली:

बधाई हो उन 16 मजदूरों को, जो महाराष्ट्र में ट्रेन से कटकर जिंदगी के जंजाल से आज़ाद हो गए, क्योंकि ट्रेन से न कटते तो वे सैकड़ों किलोमीटर के पैदल सफर में दम तोड़ देते और अगर बच भी जाते तो बेकारी के आलम में भूख उन्हें खा जाती या घर परिवार की मजबूरियों की भेंट चढ़ जाते.

बधाई हो उन सभी मारे गए मजदूरों के परिवार वालों को, जो अपनों के आने की बाट जोहते रहने के इंतज़ार से हमेशा के लिए आज़ाद हो गए. अब उन्हें न तो अपनी ज़िंदगी से कोई शिकायत होगी कि वो क्यों किसी अपने की कमाई की मोहताज है, और न ही अपने बच्चों को ये झूठा दिलासा देना होगा कि पिताजी के आते ही सारी मुसीबतें दूर हो जाएंगी.

बधाई हो महाराष्ट्र की उद्धव सरकार को जो कम से कम 16 मजदूरों को खिलाने-पिलाने और संभालने की झंझट से आज़ाद हो गई, क्योंकि अगर ये बदकिस्मत घर जाने की ज़िद कर पैदल ही न निकल पड़ते तो कोरोना के कहर से कराह रहे राज्य में लॉकडाउन के संकट के बीच उनके लिए कहां से इतने बंदोबस्त हो पाते.

बधाई हो मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार को जो इन 16 मजदूरों की आगवानी कर उनकी कोरोना टेस्टिंग करने और क्वारंटाइन के लिए ठिकाना ढूंढने की झंझट से आज़ाद हो गई, क्योंकि पहले से ही हजारों प्रवासी मजदूरों और छात्रों को खिलाने-पिलाने की चुनौती से जूझ रहा सरकारी सिस्टम इन अतिरिक्त मजदूरों के खाने-कमाने का नया ज़रिया कहां से जुटाता.

बधाई हो दुनिया की सबसे बड़ी व्यवस्था चलाने वाले भारतीय रेलवे को, जो इस आपातकाल में इन मजदूरों को ट्रेन में बिठाकर उनके घर तक पहुंचाने के पसोपेश से आज़ाद हो गया. इतने मजदूरों के लिए कम से कम एक-आध बोगी तो खर्च हो ही जाती, और अगर ये कमबख्त जेब से खाली निकलते तो उनका टिकट भी खुद ही करवाना पड़ता. ऐसे में काम रेलवे के बड़े बड़े अफसरान नहीं कर पाए उसे सिर्फ एक मालगाड़ी ने कितना आसान बना दिया.

बधाई की हकदार तो मोदी सरकार भी है जिसे लॉकडाउन लागू करने के महीने भर बाद याद आया कि देश में लाखों ऐसे मजदूर भी हैं जो अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर बिना किसी रोजगार और काम-धंधे के सिर्फ़ ख़ैरात के निवालों और फेंके गए टुकड़ों को चबाकर जीने को मजबूर हैं. बहुत ज्यादा न सही पर अगर ऐसे ही दर्जन-दर्जन भर मजदूर भी खुद ही निपटते गए तो 56 इंच के सीने के लिए सांस लेना कितना आसान होता चला जाएगा.

और.. सबसे बड़ी बधाई दुनिया के सबसे महान देश और उन देशवासियों को जिन्हें ऐसे बोझ बन चुके मजदूरों की परवरिश के लिए अब अपने बेशकीमती टैक्स का पैसा बर्बाद नहीं करना होगा. न जाने कौन सा मजदूर कब और कहां कोरोना का कैरियर बन जाए या बना दे, अब ये डर भी थोड़ा ही सही पर कम तो हुआ. यूं भी जिन मजदूरों को पटरी और बेडरूम का फ़र्क नहीं पता वो जीकर भी भला क्या उखाड़ लेंगे.

तो आपको, हमको, इनको, उनको, सरकार को, विपक्ष को, मालिकों को, कारिंदों को, अफसरों को, कामगारों को, सबको इन 16 मजदूरों की वाहियात मौत की बहुत बहुत बधाई, बहुत-बहुत मुबारकबाद.

आप में से कुछ लोगों को या हो सकता है बहुत से लोगों इस तरह बधाई देना नागवार गुजरे. लेकिन ऐसे बदनसीब मजदूरों के लिए अब तो ऐसे ही जज्बात और अल्फाज बाकी रहे गए हैं. क्योंकि हर बार ऐसे किसी हादसे के बाद उस पर लंबी चौड़ी बातें करना, अफसोस जताना, नसीहतें देना समाज, सिस्टम, सरकार और हम जैसे फिक्रमंदों की भी आदत बन चुकी है.

इसलिए आदतन ही ये कहा जा रहा है कि भला रेल की पटरी भी कोई सोने की जगह है, उस पर दौड़ने का अधिकार तो सिर्फ ट्रेन का है. क्या मजदूरों को नहीं पता था जो उन्होंने इतनी बेफिक्री और लापरवाही से पटरी को ही बिस्तर बना लिया. वाकई नहीं पता होगा.. क्योंकि जो मजदूर लॉकडाउन जैसे हालात में भी तपती-धधकती धूप में हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर के लिए निकल पड़े हों उन्हें भला सड़क और पटरी का फर्क क्या मालूम.

जनाब ज़रा ये भी तो सोचिए कि ऐसे मूढ़ मजदूरों को तैयार करने वाला समाज किसका है. अगर ये बेवकूफ नहीं होते तो इस तरह चंद सिक्कों के लिए, दो जून की रोटी के लिए भला घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर जाकर मेहनत मजदूरी क्यों करते.

वैसे हम और आप वो हादसा तो भूले नहीं होंगे जब पंजाब में दशहरे के दिन पटरी पर खड़े होकर रावणवध देख रहे ऐसे ही गरीब कामगारों का रेलवध हो गया था. तब भी संवेदनाओं और नसीहतों का ऐसी ही सैलाब उमड़ा था पर साल भी नहीं बीता और फिर से वैसा ही हादसा दोबारा हो गया.

अब क्या करें, इतनी जल्दी और इतनी तेजी से ऐसे मजदूरों को कैसे तमीजदार बनाएं, कैसे उन्हें पटरी और सड़क का फर्क समझाएं. ये तो ऐसी ही थे और ऐसे ही रहेंगे और शायद इसीलिए हम भी जैसे थे वैसे ही रह गए. न ये बदले न हम और हमारी सोच.

चलिए, अब बेमौत मारे गए इन मजदूरों से जुड़ी कुछ बातें भी बताते चलें जो कमोबेश हर छोटे बड़े अखबार, पोर्टल या चैनल पर चल ही रही है. जैसे कि ये सभी 16 मजदूर मध्य प्रदेश के रहने वाले थे. इनमें 11 मजदूर शहडोल जिले के और 5 उमरिया जिले के रहने वाले थे. ये सभी मजदूर महाराष्ट्र के औरंगाबाद से घर के लिए पैदल निकल पड़े थे. 900 किलोमीटर से भी ज्यादा लंबा सफर था पर इनकी नजर सफर पर नहीं मंजिल पर थी. कुछ दूर तक सड़क के रास्ते आगे बढ़े फिर पटरी पकड़कर चलने लगे. रास्ते में जब थक गए तो पटरी पर ही आराम करने बैठ गए और फिर थके हारे वहीं सो गए. दो चार मजदूर जो पटरी से दूर सोए थे वो बच गए. शायद इस हादसे का गवाह बनने के लिए या फिर इनकी कटी-फटी लाशों को इनके रोते-कलपते परिवारवालों तक पहुंचाने के लिए.

हादसे के बाद अब सवालों और संवेदनाओं की बारिश हो रही है. अगर ये मजदूर जिंदा रहते तो पहला सवाल उन्हीं से होता कि क्या रेल की पटरी को अपने बाप का घर समझ रखा था. पर सभ्य समाज में मरने वालों से ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते.

इसलिए अब हर सवाल का जवाब देने की जिम्मेदारी मालगाड़ी चला रहे ड्राइवर की है. मसलन, क्या उसे पटरी पर इतनी बड़ी संख्या में सोए लोग दिखाई नहीं पड़े. माना कि सुबह चार बजे का वक्त था इसलिए अंधेरा रहा होगा पर तब जाग ही रहे थे या कहीं सो तो नहीं गए थे. समय रहते इमरजेंसी ब्रेक क्यों नहीं लगाया. भोंपू बजाया था या नहीं.

सवालों के घेरे में वो गरीब लाइनमैन भी होगा जिस पर उस इलाके की पटरियों की देख-रेख का जिम्मा होगा. नजदीकी स्टेशन मास्टर, कुछ तकनीशियन और अन्य अधिकारियों से भी सवाल पूछे जा रहे हैं. आखिर कहीं तो नुक्स ढूंढना ही होगा. क्योंकि सरकार के आला हुक्मरान और रेलवे के आला अफसरानों से तो सवाल होने से रहे.

सवाल तो देश के प्रधानमंत्री मोदी जी से भी होना चाहिए जो सबका साथ...सबका विकास की बात करते रहते हैं. एक महीने पहले दिल्ली के आनंद विहार में मजदूरों की भीड़ उमड़ी थी. वो भीड़ अविश्वास की भीड़ थी. वो भीड़ सबका साथ और सबका विकास वाले लाइन पर भरोसा नहीं करती थी. वो भीड़ मोदी सरकार के फेल होने की निशानी थी.

एक महीने आनंद बिहार की घटना को हुए इसके बावजूद भी चेतने की बजाय ऐसे नियम बनाए गए जो मजदूरों के लिए काल बन गए. बंद एसी कमरे में लॉकडाउन आगे बढ़ाने का प्लान तैयार होता है. मजदूरों को राहत दी जाती है लेकिन किस शर्त पर 90 परसेंट ऑक्यूपेंसी पर. सवाल है कि कितने मजदूर हैं जो ऑनलाइन फर्म भर सकते हैं. फिर इसका प्रिंट आउट लेकर जाकर रजिस्ट्रेशन कराएंगे. फिर मेडिकल सर्टिफिकेट बनाएंगे. नियम में कई पेंच हैं. लेकिन इन मजदूरों की आवाज सरकार तक नहीं पहुंचती है. इनके पास सरकार के सुनने और सुनाने का साधन नहीं है. क्योंकि ये मजदूर हैं.

इनकी मौत के धब्बे हम में से हरेक के दामन पर हैं . खासकर सरकार का जो सबका साथ और सबका विकास की बात करती है. कोरोना ने मजदूरों की जान नहीं ली, बल्कि सरकार और सिस्टम ने इनकी जान ली है.

यूं भी यह कोरोना काल है, जहां चंद निश्चित मौतों से ज्यादा अहम है ढेर सारे अनिश्चित मौत के खतरों का. लिहाजा आपके और हमारे लिए भी बेहतर यही होगा कि अपने अपने मौलिक सवालों को पोटली में बांध कर उन मजदूरों की चिताओं पर फूंक दें और पूरे जी जान से किसी ऐसे ही नये हादसे के लिए अपना कलेजा मजबूत कर लें.

Disclaimer: ये लेखक के निजी विचार हैं, न्यूज नेशन से इसका कोई लेना देना नहीं है.