कैसे रहे 'स्वच्छ भारत अभियान' के 4 साल?
बेहतर होता विपक्ष विरोध करने से बचता, लेकिन राजनीति में शायद इसकी गुंजाइश नहीं. वैसे 2014 में गंदगी के खिलाफ विपक्ष को छोड़ हर कोई हाथ में झाड़ू लिए नजर आता था, लेकिन अब 4 साल बाद हालात कितने सुधरे हैं, ये समझना भी जरूरी है.
नई दिल्ली:
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साल 2014 में 2 अक्टूबर को स्वच्छ भारत अभियान की शुरूआत की. लक्ष्य था साल 2019 तक देश को खुले में शौच से मुक्त करने का. दरअसल 2019 में बापू की 150 वीं जयंती है. इस दरमियान सिर्फ नरेन्द्र मोदी ही नहीं मंत्री, सांसद, विधायक, फिल्मी सितारे, खिलाड़ी और बड़े कारोबारी भी हर कोई सफाई की मुहिम में अपनी भूमिका निभाता नजर आया. हालांकि विपक्ष का आरोप है पिछली सरकार के निर्मल भारत अभियान का नाम बदलकर मोदी सरकार सिर्फ श्रेय लेने की राजनीति कर रही है.
बेशक योजना पहले भी थी, लेकिन सच ये भी है कि इससे पहले सफाई सियासत के मोर्चे पर ऐसे प्राथमिकता में नहीं रही. हालांकिं बेहतर तो ये होता कि विपक्ष भी सफाई के मोर्चे पर विरोध की राजनीति छोड़ सरकार का साथ देता नजर आता.
विरोध के लिए विरोध करने से बचता, लेकिन राजनीति में शायद इसकी गुंजाइश नहीं. वैसे 2014 में गंदगी के खिलाफ विपक्ष को छोड़ हर कोई हाथ में झाड़ू लिए नजर आता था, लेकिन अब 4 साल बाद हालात कितने सुधरे हैं, ये समझना भी जरूरी है.
सफाई के मोर्चे पर सुधरता मुल्क
सरकारी दावे हैं कि देश की 90 फीसदी आबादी के पास अब शौचालय की सुविधा उपलब्ध है. आंकड़ों पर नजर डालें तो 1947 से लेकर 2014 तक मुल्क में 6.5 करोड़ शौचालय बने थे, जबकि 2014 से लेकर 2018 के बीच यानि करीब 4 साल में करीब 9 करोड़ शौचालय बनकर तैयार हुए.
मोदी सरकार का दावा है कि 2013-14 तक देश में स्वच्छता कवरेज 38.70% था जो अब 2014-18 में बढ़कर 94% तक पहुंच चुका है. सरकार का दावा है कि देश के 4.73 लाख गांव खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं. वहीं शहरी इलाके में भी 50.71 लाख लाख शौचालय का निर्माण हुआ है.
आंकड़ें वाकई चौंकाने वाले हैं क्योंकि 2017 में जारी एनएसएसओ रिपोर्ट में बताया गया था कि देश की आधी से ज्यादा ग्रामीण आबादी करीब 55.4 फीसदी खुले में शौच करती है. वहीं शहरी इलाकों में भी तब 8.9 फीसदी लोग ही खुले में शौच करते थे.
कुछ समय पहले तक की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 62.6 करोड़ आबादी खुले में शौच करने को मजबूर थी।.जाहिर है मोदी सरकार के आंकड़ें बदलते भारत की तस्वीर पेश कर रहे हैं.
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दावों पर सवाल भी
वैसे कुछ सवाल भी हैं। मसलन, सरकार का दावा है कि देश के 21 राज्य ओडीएफ हैं, यानि वहां कोई खुले में शौच नहीं जाता। हालांकिं कैग अपनी रिपोर्ट में गुजरात और उत्तराखंड के ओडीएफ के दावों पर सवाल खड़े कर चुकी है.
कैग के मुताबिक गुजरात के 8 जिलों के सर्वे में करीब 30 फीसदी घरों में शौचालय नहीं था जबकि केंद्र सरकार ने फरवरी में लोकसभा में बताया था कि गुजरात खुले में शौच मुक्त राज्य है.
इसी तरह 2017 में कैग रिपोर्ट में उत्तराखंड को ओडीएफ घोषित करने पर भी सवाल उठे. मध्य प्रदेश के गुना में भी बीते साल खुले में शौच से मुक्ति के सरकारी दावों की पोल खुली.
सेहत से जुड़ी है सफाई
इन सवालों के बीच भी हालात सुधरने की उम्मीद नजर आ रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वच्छ भारत अभियान की तारीफ करते हुए इस अभियान से तीन लाख से ज्यादा लोगों की जिदंगियों के बचने की उम्मीद जताई थी.
वहीं यूनिसेफ का अनुमान है कि ओडीएफ गांव का हर परिवार मंहगे इलाज से राहत पाकर करीब 50 हजार रुपये तक की बचत कर सकता है. वैसे समझना होगा कि सफाई सेहत से जुड़ी है.
हमारे मुल्क में 5 साल से कम उम्र के 2959 बच्चे हर रोज काल के गाल में समाते हैं, जिन्हें बचाया जा सकता था. मंहगे इलाज के चलते हर दिन करीब 15 हजार लोग गरीब होने को मजबूर हैं. जाहिर है सफाई सीधे हमारी सेहत से जुड़ी है.
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कचरा प्रबंधन अभी भी चुनौती
हालांकिं चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं। खुद पीएम का मानना है कि सिर्फ शौचालय बनाने भर से स्वच्छ भारत का दावा करना गलत होगा. उनके मुताबिक कूड़े के निस्तारण का प्रबंध करना भी बड़ी चुनौती है.
इस मोर्चे पर यकीनन हालात गंभीर हैं क्योंकि हमारे मुल्क में सालाना करीब 6 करोड़ टन कचरा पैदा होता है. इसमें से बामुश्किल 4 करोड़ टन ही इकट्ठा हो पाता है, जिसका भी केवल एक तिहाई ही रिसाइकिल हो पाता है. चुनौती बड़ी इसलिए भी हैं क्योंकि अगले 10—12 साल में मुल्क में कचरा तीन गुना तक बढ़ जाएगा.
सड़कें साफ हुईं, 'राष्ट्रीय नदी' गंगा कब?
वैसे सफाई का जिक्र आते ही राष्ट्रीय नदी गंगा की जिक्र भी होता है, जिसकी अविरलता का बात करीब 100 साल पहले 1916 में मदन मोहन मालवीय ने की थी. हालात इतने बिगड़े कि 2014 में अदालत ने पूछा क्या 100 साल में गंगा साफ हो सकेगी?
2016 में अदालत को पूछना पड़ा कि एक जगह बताइए जहां गंगा साफ हुई हो? ये तब जबकि गंगा ऐक्शन प्लान फेज़ वन साल 1985 में शुरू हुआ था, जबकि फेज़ टू साल 1993 में। दोनों फेज़ के तहत करीब 986 करोड़ रूपये खर्च तो हो गए, लेकिन हालात सुधरने की बजाय बदतर हुए. इस बीच 2009 में गंगा बेसिन प्राधिकरण का गठन हुआ और गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा भी मिला.
अनुमान है कि करीब 4 हजार करोड़ रूपए फिर खर्च हुए लेकिन गंगा मैली ही रही. जुलाई 2016 में मोदी सरकार ने नमामि गंगे प्रोजेक्ट शुरू किया। 20 हज़ार करोड़ रूपये खर्च किये जाने के साथ 2020 तक गंगा सफाई का लक्ष्य रखा गया, लेकिन आंकड़ें बता रहे हैं कि 5 वित्त वर्षों में कुल बजट का 35 फीसदी ही खर्च हो सका है.
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सीपीसीबी की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि गंगाजल का आचमन तो दूर अब डुबकी लगाने लायत तक नहीं बचा! वो पतित पाविनी गंगा जो मुल्क के 50 करोड़ से ज्यादा लोगों की जिंदगी का आधार है.
2500 किलोमीटर के दायरे में फैली वो गंगा, जिसके किनारे बसे करीब 1700 शहर, कस्बे, गांव उसी पर टिके हैं. जाहिर है शहरों की सफाई के मोर्चे पर काफी कुछ बदला है हालांकिं काफी कुछ अभी भी बदला जाना बाकी है.
गंगा के मोर्चे पर तो हालात जस के तस ही नजर आते हैं. राहत की बात ये कि सफाई के मोर्चे पर मोदी सरकार की नीयत पर सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता. उम्मीद है 2019 तक वाकई अभियान सफल हो सकेगा.
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